Edited By ,Updated: 26 Nov, 2019 12:58 AM
आज के राजनीतिक मौसम में यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो रही है कि मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा मित्र है और गिरगिट कभी भी अपना रंग बदल सकता है और इसका ताजा सर्वोत्तम उदाहरण आमची मुम्बई में चल रहा सत्ता का खेल है जहां पर विचारधारा का कोई ध्यान नहीं रखा...
आज के राजनीतिक मौसम में यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो रही है कि मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा मित्र है और गिरगिट कभी भी अपना रंग बदल सकता है और इसका ताजा सर्वोत्तम उदाहरण आमची मुम्बई में चल रहा सत्ता का खेल है जहां पर विचारधारा का कोई ध्यान नहीं रखा गया। भ्रष्टाचार के दाग किसी को दिखाई नहीं दिए, परोक्ष और प्रत्यक्ष सौदे हुए तथा पीठ में छुरे घोंपे गए। इसमें कौन-सी बड़ी बात है? केवल संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन हुआ और जनादेश के साथ धोखा किया गया।
कुल मिलाकर भाजपा ने शिवसेना को झटका दिया, एन.सी.पी. को सरकार में अटका दिया और कांग्रेस को लटका दिया। महाराष्ट्र में महीने भर से चल रहे राजनीतिक गतिरोध का शनिवार सुबह 8 बजे बड़े नाटकीय अंदाज में पटाक्षेप हुआ जब भाजपा के फडऩवीस ने मुख्यमंत्री पद और राकांपा के अजीत पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस खबर से शिवसेना के ठाकरे, एन.सी.पी. के शरद पवार और कांग्रेस की सोनिया भौंचक्की रह गईं क्योंकि 12 घंटे पहले पवार ने घोषणा की थी कि तीनों पाॢटयों में शिवसेना के उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति हो गई है और कांग्रेस तथा राकांपा उनका समर्थन कर रहे हैं।
प्रश्न उठता है कि भाजपा किस तरह राकांपा से अलग हुए गुट के साथ 30 नवम्बर को विधान सभा में बहुमत सिद्ध करेगी क्योंकि अजीत पवार के साथ राकांपा के 54 विधायकों में से केवल 7 विधायक हैं और 47 विधायक अभी भी शरद पवार के साथ हैं। किंतु सत्ता का प्रलोभन इतना बड़ा है कि अजीत पवार को विश्वास है कि वह राकांपा के 54 विधायकों में से दो तिहाई अर्थात 36 विधायकों को फडऩवीस सरकार का समर्थन करने के लिए मना लेंगे और इस तरह दल-बदल रोधी कानून के अंतर्गत अयोग्यता की तलवार से बच जाएंगे।
भाजपा को भी विश्वास है कि वह 288 सदस्यीय विधान सभा में 170 विधायकों का समर्थन जुटा लेगी। हालांकि राकांपा, कांग्रेस और शिवसेना अपने विधायकों को भाजपा से बचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। शिवसेना राज्यपाल कोश्यारी के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में भी गई है और उसने 24 घंटे के भीतर सदन में बहुमत साबित कराने की मांग की है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या फडऩवीस एक ईमानदार नेता के रूप में अपनी छवि को बचा पाएंगे क्योंकि अजीत पवार प्रवर्तन निदेशालय के 25 करोड़ रुपए के सहकारी बैंक घोटाले में आरोपी हैं या अजीत की सत्ता में भागीदारी होने से उनके मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?
फडऩवीस की यह बात किसी को याद नहीं
इस शोर-शराबे में फडऩवीस की यह बात किसी को याद नहीं है जो उन्होंने 2014 में कही थी कि वह राकांपा के साथ कभी भी गठबंधन नहीं करेंगे क्योंकि विधान सभा में उनका भ्रष्टाचार साबित हो चुका है। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या राकांपा में विभाजन अजीत पवार ने कराया या उनके चाचा शरद पवार ने? क्या एन.सी.पी. में विभाजन के लिए प्रवर्तन निदेशालय की जांच का उपयोग किया गया? क्या यह महाराष्ट्र में शरद की राजनीति के अंत का संकेत है जो राज्य की राजनीति के महारथी रहे हैं। राजमार्ग मंत्री गडकरी के शब्दों में राजनीति क्रिकेट की तरह है। इसमें भी कुछ भी हो सकता है।
सेना इस घटनाक्रम को लोकतंत्र की हत्या बता रही है और अजीत पवार पर आरोप लगा रही है कि उनके विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय के मामले के डर से उन्होंने यह षड्यंत्र रचा है और सेना ने शरद पवार को क्लीन चिट दी है कि उनकी इसमें कोई भूमिका नहीं है। कांग्रेस का भी मानना है कि अजीत ने अपने चाचा की पीठ में छुरा घोंपा है। किंतु किसलिए?
राकांपा के एक वरिंष्ठ नेता के अनुसार वह राकांपा-शिवसेना-कांग्रेस सरकार में भी उपमुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। शायद अजीत पवार अपने चाचा की छाया से बाहर निकलना और स्वयं एक नेता के रूप में उभरना चाहते हैं। शरद पवार ने अजीत के कदम से दूरी बना ली और एक ट्वीट में कहा है कि यह अजीत का व्यक्तिगत निर्णय है और इसने परिवार और पार्टी में विभाजन कर दिया है। किंतु कुछ लोगों का मानना है कि पवार एक घाघ राजनेता हैं और वह दरवाजे के पीछे कुछ भी कर सकते हैं तथा अजीत के कदम के पीछे उनका हाथ है और उन्होंने ही भाजपा-राकांपा सरकार बनाने के लिए सहमति दी है और यह कार्य उनकी प्रधानमंत्री के साथ मुलाकात के बाद किया गया है। एक घाघ राजनेता के रूप में पवार ने अपने पत्ते नहीं खोले और सेना तथा कांग्रेस को उदासीनता बरतने के लिए मजबूर किया और पिछले सप्ताह उन्होंने अपने विधायकों को समर्थन पत्र दिए बिना शिवसेना को समर्थन देने के लिए राजभवन भेजा और उसके बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा और फिर उनके साथ गठबंधन किया।
कुछ लोगों का मानना है कि अजीत पवार को हमेशा से शरद पवार का उत्तराधिकारी माना गया है और वह अपने चाचा की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकते हैं। 2 माह पूर्व अजीत ने शरद पवार के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय द्वारा भ्रष्टाचार के मामले में उनका नाम डालने को लेकर विरोध स्वरूप राजनीति छोडऩे तक की धमकी दी थी। हालांकि बाद में उन्होंने अपना निर्णय वापस ले लिया और विधान सभा चुनाव लड़ा तथा जीता। किंतु अक्सर कहा जाता है कि राजनीति में खून हमेशा पानी से ज्यादा गाढ़ा नहीं होता है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि पवार परिवार में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है और पिछले कुछ महीनोंं से लोकसभा और विधानसभा चुनावों के टिकट वितरण को लेकर शरद और उनकी पुत्री तथा अजीत के बीच मतभेद चल रहे थे। अजीत इस बात को लेकर भी गुस्से में थे कि आरम्भ में उनके बेटे को लोकसभा का टिकट नहीं दिया गया किंतु बाद में शरद पवार ने चुनाव न लडऩे का फैसला किया और अजीत पवार के बेटे को टिकट दे दिया।
इस महा प्रकरण ने हमारी विकृत राजनीति का पर्दाफाश किया
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की व्यावसायिक राजधानी में इस महा प्रकरण ने हमारी विकृत राजनीति का पर्दाफाश किया है। यह एक ऐसा सत्ता का खेल है जहां पर व्यक्तित्व पर कीचड़ उछालना लोकतंत्र की पहचान बन गया है। यहां पर राजनीति का तात्पर्य अपनी प्रतिष्ठा बनाना नहीं, अपितु हर किसी के लिए खाई खोदना है और यही आज की राजनीति का सार है। यह मुद्दा केवल महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है। सारे देश में इस तरह की राजनीति देखने को मिल रही है जिसके चलते धर्मनिरपेक्ष दुश्मन और साम्प्रदायिक मित्र एक ही रंग में रंगते जा रहे हैं और इस तरह भारत की राजनीति को पलटा जा रहा है।
प्रातिनिधिक सरकार चुनने की बजाय हम अवसरवादी और झूठे लोगों को चुन रहे हैं और इस तरह हम लोकतंत्र व आम आदमी की उपेक्षा कर रहे हैं। झूठ और धोखे के इस खेल में भाजपा, राकांपा, शिवसेना और कांग्रेस ने आज के भारत के सच को उजागर किया है कि सत्ता ही सब कुछ है। आप यह भी कह सकते हैं कि यही लोकतंत्र है, किंतु हमारा मानना है कि यदि प्रबल प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे के साथ गठबंधन करने के लिए तैयार हैं तो फिर उन्होंने चुनाव ही क्यों लड़ा? सभी लोगों को संसदीय लोकतंत्र की वास्तविकता को समझना होगा और राजनेताओं द्वारा सत्ता प्राप्ति और नई सरकार के गठन से पूर्व जनादेश का सम्मान करना होगा। इन कृत्रिम गठबंधनों को देखकर हमें यह मानने के लिए मजबूर किया जा रहा है कि साध्य साधन को उचित ठहराता है और अपने को आगे रखने की होड़ में कोई भी अपने कारनामों के प्रभावों की परवाह नहीं करता है। उनके लिए केवल एक ही चीज सर्वोपरि है वह है गद्दी।
राजनीति असंभव को सम्भव बनाने की कला है और यह बात आज के ‘मोदी है तो मुमकिन है’ नारे से सिद्ध हो जाती है। ठाकरे, शरद पवार और सोनिया को यह बात याद रखनी होगी कि जीत का श्रेय लेने वाले कई लोग होते हैं किंतु हार अनाथ की तरह है। देखना यह है कि क्या सत्ता की ललक फडऩवीस और अजीत को एकजुट रख पाएगी क्योंकि यह एकता एक छोटे से धक्के से भी तोड़ी जा सकती है। कुल मिलाकर हमारे राजनेताओं को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि राजनीतिक फैविकोल देश के नैतिक और भावनात्मक ताने-बाने को नहीं जोड़ सकता है और न ही तुरत-फुरत उपायों से कोई राहत मिलती है।-पूनम आई. कौशिश