‘अमर प्रेम’ से ‘कटी पतंग’ तक पाखंड यकायक फैशन बन गया है

Edited By ,Updated: 03 Dec, 2019 02:06 AM

from  amar prem  to  kite kite  hypocrisy has suddenly become a fashion

इस राजनीतिक मौसम में पाखंड यकायक फैशन बन गया है। विचारधारा और भ्रष्टाचार के दाग छोडि़ए। पिछले महीने में कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता था कि ऐसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी जो एक-दूसरे पर तनिक भी विश्वास नहीं करते, गठबंधन कर लेंगे और आज दोस्त तथा दुश्मन...

इस राजनीतिक मौसम में पाखंड यकायक फैशन बन गया है। विचारधारा और भ्रष्टाचार के दाग छोडि़ए। पिछले महीने में कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता था कि ऐसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी जो एक-दूसरे पर तनिक भी विश्वास नहीं करते, गठबंधन कर लेंगे और आज दोस्त तथा दुश्मन सभी एक रंग में रंग गए हैं। पहले भाजपा-शिवसेना का अमर प्रेम छिन्न-भिन्न होकर कटी पतंग बन गया तो फिर भाजपा-राकांपा का 80 घंटे तक चला प्रेम देखने को मिला और अब शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस गुनगुना रहे हैं हम साथ-साथ हैं। 

प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी आशावादी इस बात की कल्पना कर सकता है कि धर्मनिरपेक्ष राकांपा-कांग्रेस और सांप्रदायिक शिवसेना महाराष्ट्र में सरकार बना देंगे? इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती थी किन्तु घोर अवसरवादिता और सत्तालोलुपता के चलते ऐसा हो गया है और यदि इस क्रम में संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखा गया, जनादेश का अपमान किया गया और मतदाताओं के साथ धोखा किया गया तो किसी को परवाह नहीं है। 

इस खिचड़ी में क्या सरकार एक संगठित सरकार की छवि प्रस्तुत कर पाएगी जबकि गठबंधन के सहयोगी दलों में अनेक विवादास्पद मुद्दे हैं और वैचारिक रूप से वे एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं। जरा देखिए, धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को घोर सांप्रदायिक शिवसेना के साथ गठबंधन करना पड़ा है। दोनों वैचारिक रूप से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं और उन्हें अनेक सिद्धांतों को त्यागना पड़ेगा। यह सच है कि अतीत में कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष गौड़ा, गुजराल के राष्ट्रीय मोर्चा, पश्चिम बंगाल में ममता की तृणमूल, बिहार में नीतीश के जद (यू) के साथ गठबंधन किया और इनका उद्देश्य सांप्रदायिक भाजपा को सत्ता से बाहर रखना था। किन्तु आज कांग्रेस हिन्दुत्व संगठन शिवसेना के साथ गठबंधन कर चुकी है और इसका उद्देश्य भी भाजपा को सत्ता से बाहर रखना है। जब धर्मनिरपेक्ष मित्र भाजपा का साथ देते हैं तो वे सांप्रदायिक दुश्मन बन जाते हैं और जब सांप्रदायिक दुश्मन भाजपा का साथ देते हैं तो वे धर्मनिरपेक्ष मित्र बन जाते हैं। 

कांग्रेस के इस कदम से उसके जनाधार का एक मुख्य हिस्सा मुस्लिम समुदाय उससे दूर हो सकता है। कांग्रेस ने पहले ही केरल में आई.यू.एम.एल. से गठबंधन कर रखा है और उसने शिवसेना के साथ गठबंधन का विरोध किया है। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि दक्षिण पंथी शिवसेना के साथ उसका गठबंधन कब तक चलेगा। किन्तु लोकसभा में 42 तक पहुंचने और महाराष्ट्र में 44 तक पहुंचने के बाद कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। महाराष्ट्र में सत्ता में भागीदार बनने से उसकी यह आशा जगी है कि पार्टी ने अभी सब कुछ खोया नहीं है तथा झारखंड और दिल्ली में उसके कार्यकत्र्ताओं का मनोबल बढ़ सकता है। 

कांग्रेस और राकांपा द्वारा शिवसेना सरकार को समर्थन देना एक वैचारिक विरोधाभास है तो इसमें जोडऩे का काम तीनों दलों का यह भय है कि भाजपा उन्हें समाप्त कर देगी। भाजपा विरोध एक नया सिद्धांत बन गया है और इसके चलते गैर-भाजपा पाॢटयां एकजुट हो रही हैं क्योंकि मित्र और शत्रु दोनों ही मोदी और शाह पर विश्वास नहीं कर रहे हैं। इसलिए नया धु्रवीकरण हिन्दुत्व बनाम धर्मनिरपेक्ष नहीं है क्योंकि कांग्रेस, राकांपा और जद (यू) ने भगवा के साथ गठबंधन किया है। आज राजनीति मोदी-शाह के विरुद्ध समर्पण करने वालों और उनका मुकाबला करने वालों के बीच बंट गई है। 

भारतीय राजनीति में कांग्रेस की अप्रासंगिकता के चलते उसका अस्तित्व ही खतरे में आ गया है इसलिए उसके पास पवार पर विश्वास करने और सेना का साथ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे समय में जब मोदी सरकार उसके नेताओं को जेल में डाल रही हो कांग्रेस को महाराष्ट्र में भाजपा सरकार बनने से रोकने के लिए अपने धर्मनिरपेक्ष गौरव का घूंट पीना पड़ा और इसके लिए उसने शिवसेना के साथ ही दोस्ती कर ली। अब यह समय ही बताएगा कि क्या दक्षिणपंथी ङ्क्षहसक साम्प्रदायिक पार्टी के साथ गठबंधन से उसका भला होगा या बुरा होगा। 

आज विरोधियों के साथ प्रेम करना राजनीतिक कार्य साधकता बन गया
विडम्बना देखिए, आज शिवसेना उदारवादियों की प्रिय बन गई है। आज विरोधियों के साथ प्रेम करना राजनीतिक कार्य साधकता बन गया है। यह कांग्रेस की ही देन है जिसने वामपंथियों का विरोध करने के लिए शिवसेना के बीज बोए थे। सबसे पहले उसने दक्षिण भारतीयों को मराठी मानुष के दुश्मन के रूप में देखा फिर वामपंथियों, बिहारियों, मुसलमानों आदि का नम्बर आया। उदारवादियों का मानना है कि सत्ता में बने रहने के लिए सेना गिरगिट की तरह रंग बदल लेगी किन्तु यह इतना आसान नहीं है। 

सेना कांग्रेस और राकांपा द्वारा सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रस्ताव से खुश नहीं है। शिवसेना ने राम मंदिर, राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर और हिन्दू महासभा के संस्थापक विचारक सावरकर को भारत रत्न देने के मुद्दे पर भाजपा से अधिक तत्परता दिखाई है। किन्तु अब सेना धर्मनिरपेक्षता के प्रति वचनबद्ध हो गई है। अब उसे केवल 17 मिनट में बाबरी मस्जिद विध्वंस करने की बातें भूलनी होंगी, बिहारियों का मुम्बई में स्वागत करना होगा। अब वह गोडसे को देशभक्त नहीं कह सकती है। इस दिशा में ठाकरे ने पहले ही कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। उन्होंने अपना अयोध्या दौरा रद्द कर दिया है और उनकी पार्टी नागरिकता विधेयक का विरोध भी कर सकती है। 

अल्पकाल में यह उसके लिए लाभदायक स्थिति हो सकती है क्योंकि वह अपने पुराने सहयोगी भाजपा से अलग हुई है और उसने भाजपा से मुम्बई में अपने एक नम्बर का दर्जा छीनने का बदला ले लिया है। आरम्भिक वर्षों में भाजपा शिवसेना की जूनियर बनकर रही, किन्तु बाद में उसने स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन कार्य साधकता पर आधारित होगा और अब शिव सैनिक भाजपा से बदला चुकाने से खुश हैं। किन्तु दीर्घकाल में पार्टी को नुक्सान हो सकता है। भाजपा को रोकने के लिए मुख्यधारा में आने का प्रयास करने से यह दुविधा की स्थिति में फंस सकती है। 

भाजपा अपने मित्र से दुश्मन बनी शिवसेना को सबक सिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेगी और वह हिन्दुत्व का पक्ष लेगी तथा सेना के विरुद्ध मनसे का उपयोग कर सकती है। इस खेल में मैन ऑफ द मैच राकांपा के पवार रहे हैं। किन्तु वह भी पूर्णत: सफल नहीं हुए हैं। इससे पूर्व उन्होंने सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने पर पार्टी से अलग होने का कदम उठाया था किन्तु यू.पी.ए.-1 और 2 में वह कांग्रेस गठबंधन के सहयोगी रहे और महाराष्ट्र में भी दोनों पाॢटयों ने सत्ता में भागीदारी की। उन्होंने भाजपा और शिवसेना का मुकाबला किया तथा ये सब दूसरे को बेईमान कहते रहे किन्तु वह मोदी को अपना मित्र बताते हैं और हाल ही में उन्होंने मोदी से मुलाकात भी की। 

ठाकरे और पवार के बीच राजनीतिक और पारिवारिक संबंध
ऊपरी तौर पर यह मुलाकात किसानों की समस्या को लेकर थी किन्तु चुनाव से पूर्व प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें एक घोटाले में नामजद कर दिया था। भ्रम की स्थिति इसलिए भी बढ़ी कि कुछ समय पूर्व मोदी सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण भी दिया। ठाकरे और पवार के बीच राजनीतिक और पारिवारिक संबंध व्यावसायिक संबंधों की तरह हैं। यह मानना उचित न होगा कि मोदी और शाह ने हार मान ली है। वे इसका प्रतिकार करेंगे। एक संभावना यह है कि उनका मानना है कि विभिन्न विचारधारा वाली पाॢटयों की बेमेल सरकार ज्यादा दिन नहीं चलेगी। दूसरा वह हिन्दुत्व विचारधारा त्यागने और हिन्दू विरोधी दलों के साथ सहयोग करने के लिए शिवसेना को बदनाम कर सकती है जिससे वह हिन्दुत्व के एकमात्र रक्षक के रूप में उभरेगी और उसे लाभ मिलेगा। 

दूसरी ओर महाराष्ट्र में सत्ता गंवाना न केवल भाजपा के लिए एक बड़ा झटका है, बल्कि लोकसभा चुनावों के 6 महीने बाद यह उसकी जीत पर भी एक प्रश्न चिन्ह लगा देता है। हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी पार्टी पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी। यह पार्टी के प्रसार की धीमी गति का सूचक है। अब सबकी निगाहें झारखंड पर लगी हुई हैं जहां पर भाजपा के लिए जीत अवश्यंभावी बन गई है। 

महाराष्ट्र के सबक क्या हैं? पार्टियों को सत्ता से चिपके नहीं रहना चाहिए क्योंकि यदि आप ऐसे व्यक्ति को धक्का दोगे जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है तो वह अपने अस्तित्व के लिए प्रतिकार करेगा। जीत का श्रेय लेने वाले कई लोग होते हैं किन्तु हार अनाथ-सी होती है। देखना यह भी है कि क्या स्वार्थी, बेमेल पाॢटयों की सत्तालोलुपता की एकता बनी रहती है या नहीं। हमारे राजनेताओं को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि राजनीतिक फैविकोल राष्ट्र के नैतिक और वैचारिक ताने-बाने को नहीं जोड़ सकता है और न ही तुरत-फुरत उपायों से कोई राहत मिलती है।-पूनम आई. कोशिश
 

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