जनसामान्य से बुद्धिजीवियों तक : विभाजन के भुक्तभोगियों की प्रेरणादायी गाथा

Edited By ,Updated: 26 May, 2022 05:11 AM

from the masses to the intellectuals inspiring saga of victims of division

वस्तुत: बात वर्ष 1988 के अक्तूबर माह की है। मैं आइजोल से शिलांग के पूर्वोत्तर-पर्वतीय विश्वविद्यालय (नेहू) में बैठक के लिए आया था। बैठक संबंधी कुछ कागजात की फोटोकॉपी के लिए शिलांग के ही लाइतमुखरा की दुकान में पहुंचा। वहां मैंने एक वयोवृद्ध व्यक्ति

वस्तुत: बात वर्ष 1988 के अक्तूबर माह की है। मैं आइजोल से शिलांग के पूर्वोत्तर-पर्वतीय विश्वविद्यालय (नेहू) में बैठक के लिए आया था। बैठक संबंधी कुछ कागजात की फोटोकॉपी के लिए शिलांग के ही लाइतमुखरा की दुकान में पहुंचा। वहां मैंने एक वयोवृद्ध व्यक्ति को देखा, जिनकी उम्र लगभग 80 वर्ष रही होगी। चेहरे की झुर्रियां उनकी उम्र का आभास दिला रही थीं। 

उन्होंने फोटोकापी करने के लिए मेरे कागजात ले लिए। मैंने विनम्रतापूर्वक उनसे पूछा, ‘‘दादा आप इस उम्र में भी काम कर रहे हैं, जबकि आपको आराम करना चाहिए। क्या इस काम के लिए आपके पोते-पोतियां नहीं हैं? मेरे इस अनपेक्षित हस्तक्षेप को सुनकर उन्होंने गुस्से भरे कड़े स्वर में जवाब दिया : क्या आप विभाजन के आघात और दुखों से गुजरे हैं? उन्होंने मुझे मेहनत से अर्जित की गई सारी चल-अचल सम्पत्ति को वहीं छोड़कर किसी तरह पूर्वी बंगाल (वर्तमान बंगलादेश) से भागने और अपनी जान बचा कर मेघालय पहुंचने की व्यथा सुनाई। उन्होंने मुझे बताया कि कैसे उनके परिवार के सभी सदस्य और उनके जैसे हजारों परिवार, स्वयं को पुनर्वासित करने एवं संभ्रांत जीवन जीने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। 

उन्होंने मुझे बताया कि उनके परिवार के प्रत्येक सदस्य को स्वयं को स्थापित करने के लिए उम्र की परवाह किए बगैर कठिन परिश्रम करना पड़ता है। यह कहानी सुनाते समय मैंने उनके चेहरे पर अंकित व्यथा और पीड़ा के भाव को महसूस किया। उनकी बात से स्तब्ध होकर मैं इस वार्तालाप को और आगे जारी रखने का साहस नहीं जुटा सका। मध्य भारत के एक छोटे से गांव (मध्य प्रदेश के रीवा जिले) में पला-बड़ा मेरे जैसा व्यक्ति अपने साथी नागरिकों के विभाजन की इस त्रासदी से सर्वथा अनभिज्ञ था। मुझे बेहद अफसोस था कि मैंने यह बात छेड़ कर उन सज्जन को कष्ट पहुंचाया। 

वर्ष 2020 के अगस्त में पंजाब आने तक यह घटना मेरे अवचेतन मन में कौंधती रही। मैंने विभाजन के बाद अविभाजित भारत से लौटे कई परिवारों के साथ बातचीत की और मुझे उनसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे पाकिस्तान से शरणार्थी बनकर यहां आए हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि वे अविभाजित भारत से आए हैं इसलिए उन्हें शरणार्थी कहा जाना तर्कसंगत नहीं होगा। मेरी जिज्ञासा तब और बढ़ गई जब मैंने ब्रिगेडियर एच.एस. संधू (सेवानिवृत्त) का 8 मई को ‘डिस्पाइट ऑल: नो इल फीलिंग्स’ शीर्षक से प्रकाशित आलेख एक अंग्रेजी अखबार में पढ़ा, जो एक प्रत्यक्षदर्शी का आंखों देखा सच है। मैं ब्रिगेडियर संधू की सहजता का कायल हूं, जिन्होंने बिना किसी द्वेष और दुर्भावना के अपने पारिवारिक सदस्यों और अन्य लोगों की दुर्दशा सुनाई। 

ब्रिगेडियर संधू की उदारता अपनी जगह ठीक है, लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि हमारे ही देश के नागरिकों ने विभाजन के कारण पूर्वी बंगाल एवं पश्चिम बंगाल में कठिन परिश्रम से अर्जित संपत्ति वहीं छोड़कर भारत आते वक्त कठोर यातनाएं और यंत्रणाएं झेलीं। इसके बावजूद उनमें कठिन परिश्रम करने की क्षमता, जीने की प्रबल इच्छाशक्ति एवं खुद को पुनस्र्थापित करने की मनोभावना की वजह से आज वे मानव ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने में सक्षम हुए। वास्तव में यह हम सभी के लिए प्रेरणादायक है। उन लोगों का ही उदाहरण लें, जो पश्चिमी पंजाब से भारत आए। उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक, आॢथक, सांस्कृतिक और जीवन के अन्य क्षेत्रों, जैसे शिक्षा, चिकित्सा, रक्षा, न्यायपालिका, साहित्य, सिनेमा, व्यवसाय आदि में नए कीर्तिमान स्थापित किए। कमोबेश यही बात उन लोगों पर भी लागू होती है जो पूर्वी बंगाल (वर्तमान बंगलादेश) से आए थे। अब वे देश के बौद्धिक समूह का एक आवश्यक अंग बन गए हैं। 

कल्पना कीजिए कि कैसे 75 साल पूर्व, वे कई दिनों तक भोजन और आश्रय के बिना, असुरक्षा की गहरी भावना से ग्रसित होकर नंगे पांव आए, देश के विभिन्न हिस्सों में बढ़ते चले गए और अनजान क्षेत्रों में बसते गए। बावजूद इसके उनकी हिम्मत, दृढ़ संकल्पना, अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ समायोजन के कौशल, एक संभ्रांत जीवन जीने की ललक एवं राष्ट्र के विकास में योगदान की प्रबल इच्छाशक्ति ने उन्हें विजयी बनाया। वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान हेतु सक्षम बने। वे उन चुनौतियों का लाभ उठाने में सक्षम रहे, जो विस्थापन से उत्पन्न हुईं और उन्हें अवसर के रूप में रूपांतरित करने में सफल हुए। 

इस लेख को लिखने का उद्देश्य उनके घावों को फिर से हरा करना और पीड़ायुक्त यादों को ताजा करना नहीं, अपितु इतिहास से सबक सीखना है, ताकि हमसे इस तरह की गलतियों की पुनरावृत्ति न हो सके। मेरा मानना है कि इन बौद्धिक लोगों की सफलता की कहानियों को विस्तृत केस स्टडी के माध्यम से समझा जाना यथोचित होगा। साथ ही ऐसे लोगों की सफलता की कहानियां हमारे विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जानी चाहिएं जिससे राष्ट्र की वर्तमान एवं भावी पीढ़ी इन कहानियों से प्रेरणा ग्रहण कर सके कि कैसे विषम परिस्थितियों से जूझते हुए भी जीवन में सफल होकर उत्कृष्ट कार्य किए जा सकते हैं।-आचार्य राघवेंद्र प्रसाद तिवारी कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा

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