गरीब को और गरीब बनाता जी.डी.पी. आधारित ‘विकास’

Edited By ,Updated: 13 Jul, 2019 04:22 AM

gdp becomes poor and poor based  development

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओ.पी.एच.आई.) की  ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर साबित किया कि सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित विकास नितांत दोषपूर्ण है और इसकी जगह भारत सरीखे तमाम मुल्कों को मानव...

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) और ऑक्सफोर्ड गरीबी एवं मानव विकास पहल (ओ.पी.एच.आई.) की  ताजा रिपोर्ट ने एक बार फिर साबित किया कि सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) आधारित विकास नितांत दोषपूर्ण है और इसकी जगह भारत सरीखे तमाम मुल्कों को मानव विकास के बहु-आयामी गरीबी सूचकांक को तरजीह देनी होगी। हालांकि रिपोर्ट ने यह भी कहा कि सन् 2005-06 से सन् 2015-16 तक के 10 सालों में भारत ने गरीबी कम करने में दुनिया में सबसे अधिक सफलता हासिल की है। रिपोर्ट में चौंकाने वाली बात यह है कि गरीबों में भी व्यापक असमानता है और यहां तक कि उनके घरों में भी एक बच्चा कुपोषित है तो दूसरा पोषित। 

बढ़ती आर्थिक असमानता
ऑक्सफाम सहित विश्व की तमाम मकबूल सर्वेक्षण संस्थाएं भारत में लगातार बढ़ती आॢथक असमानता की ओर इंगित कर रही हैं। भारत आज से 29 साल पहले दुनिया में जी.डी.पी. के पायदान पर 35वें स्थान पर था, आज छठवें पर। देखने में लगता है मानो सब कुछ हासिल हो गया है   लेकिन यह देश मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.) में 29 साल पहले भी 135वें स्थान पर था और 2011 में भी उसी पायदान पर। बड़ी कूद-फांद के बाद पिछले वर्ष यह 130वें स्थान पर पहुंचा। सीधा मतलब है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि का लाभ स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के रूप में गरीबों या मध्यम वर्ग तक कदापि नहीं पहुंच रहा है। 

इसके ठीक उलट तमाम देश जिनका जी.डी.पी. भारत से काफी कम है, हम से बेहतर सुख-सुविधाएं अपने नागरिकों को दे रहे हैं। यहीं भारत असमानता-समायोजित मानव विकास सूचकांक के पैमाने पर फिसल कर दुनिया के देशों में 136वें पायदान पर पहुंच जाता है। यानी तथाकथित आॢथक विकास (जी.डी.पी.) का लाभ गरीबों तक बिल्कुल नहीं पहुंच रहा है जबकि अन्य देश, यहां तक कि पड़ोस के श्रीलंका और बंगलादेश, कई पैमानों पर हमसे बेहतर कर रहे हैं। 

अगर देश की 77 प्रतिशत पूंजी केवल 10 प्रतिशत लोगों के पास महदूद रहे और यह साल-दर-साल बढ़ती जाए तो समझ में आता है कि भारत में पिछले 28 साल से क्यों हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर लेता है और क्यों इसी दौरान हर रोज 2052 किसान खेती छोड़ मजदूर बन जाते हैं। देशवासियों की अज्ञानता का राज तब खुला जब लंदन की जानी-मानी संस्था इप्सोस मोरी ने अपने एक व्यापक सर्वेक्षण में पाया कि गरीबी-अमीरी के बीच फासले की हकीकत के प्रति अज्ञानता में भारत के लोग सबसे आगे हैं। उन्हें इस बात का कतई इल्म नहीं है कि देश की पूंजी किस तरह लगातार एक प्रतिशत अमीरों के पास सिमटती जा रही है तथा किस तरह गरीब और गरीब होता जा रहा है। जनता की इसी अज्ञानता की वजह से सरकारें जी.डी.पी. में भारत का दुनिया में क्या स्थान है, कह कर वोट भी मांगती हैं और अपनी पीठ भी थपथपाती हैं। 

किसानों की मौत के आंकड़े
जहां एक ओर दशकों से सरकारें बढ़ती जी.डी.पी. का ङ्क्षढढोरा पीटते नहीं अघातीं, वहीं किसानों की मौत के आंकड़े देने वाली संस्था नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो  ने सन् 2015 के बाद से यह कॉलम ही अपनी रिपोर्ट से गायब कर दिया। हाल ही में देश के कृषि राज्यमंत्री ने 3 माह पहले तक कृषि मंत्री रहे राधामोहन सिंह के सवाल के जवाब में लोकसभा में स्पष्ट किया कि किसानों के मरने के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि किसानों की आत्महत्या की संख्या सन् 2014 के 5650 के मुकाबले सन् 2015 में 8007 हो गई थी। लेकिन इसके बाद ये आंकड़े देना सरकार ने बंद कर दिया। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अगले चंद वर्षों में भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था (जी.डी.पी. साइज) बनाने की प्रतिबद्धता को जगह-जगह दोहराया। ऐसा आभास दिलाने की कोशिश है जैसे जी.डी.पी. बढ़ गया तो सब कुछ हासिल हो गया। हकीकत यह है कि विकास से इसका कोई सीधा सम्बन्ध तब तक नहीं हो सकता, जब तक सरकारें बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ आमजन तक न पहुंचाएं। दरअसल सरकार, खासकर राज्य सरकारें जब तक डिलीवरी को भ्रष्टाचार-मुक्त और शिथिलता-शून्य नहीं करतीं तब तक अर्थव्यवस्था में वृद्धि का कोई मतलब नहीं होगा। 

केरल प्रति व्यक्ति राज्य जी.डी.पी. में अन्य कई प्रदेशों से काफी नीचे है परन्तु मानव विकास सूचकांक में काफी  ऊपर। उत्तर भारत के तमाम राज्य आज भी स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन गुणवत्ता में सबसे नीचे के पायदान पर कराह रहे हैं। इसका मुख्य कारण राज्य सरकारों के अमले में व्याप्त भ्रष्टाचार या शाश्वत उनींदापन है। ऐसा नहीं कि बेहतरीन योजनाएं नहीं लाई जा रही हैं। पिछली सरकारों की सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना या मोदी सरकार की फसल बीमा योजना या आयुष्मान भारत अपने आप में बेहतरीन जन-कल्याण योजनाएं हैं लेकिन चूंकि इनमें से अधिकतर योजनाओं का अमल राज्य सरकारों के हाथ में होता है, लिहाजा वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं या सरकारी अमले की सुस्ती की चौखट पर असमय दम तोड़ देती हैं। 

फसल बीमा योजना का हश्र तो स्वयं  केन्द्र सरकार के आंकड़े बताते हैं जो पिछले 2 वर्षों में लगातार घटती गई और आज केवल 17 प्रतिशत कवरेज है जोकि तीन वर्षों में 50 प्रतिशत की जानी थी। आयुष्मान के आंकड़ें चाहे जो भी कहें, आज भी प्राइमरी चिकित्सा व्यवस्था उतनी ही लचर है, बड़े सरकारी अस्पतालों की तो छोडि़ए। केन्द्र सरकार के मंत्री ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन शुरू करते हुए संसद में 2 साल पहले स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को जी.डी.पी. का 2.50 प्रतिशत करने की प्रतिबद्धता का ऐलान किया था पर बढ़ाना तो दूर, इसे घटा दिया गया और आज यह मात्र 1.25 प्रतिशत है, जो सरकार के मुताबिक ही विश्व में सबसे कम है। शिक्षा की भी स्थिति कमोबेश यही है। फिर इस जी.डी.पी. को चाहे पांच ट्रिलियन नहीं, 50 ट्रिलियन कर लें, अगर प्रेमचंद की झुनिया और गोबर को और उनके बच्चों को पतन के उसी गर्त में रहना पड़ा तो इसका कोई लाभ नहीं। 

विकास का खोखलापन
जी.डी.पी. आधारित विकास के खोखलेपन का पर्दाफाश तब हुआ जब सन् 2010 में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति सरकोजी के प्रयास से जी.डी.पी. आधारित विकास की सार्थकता पर नोबेल पुरस्कार विजेता जोड़ी अमत्र्य सेन और जोसेफ स्टिगलिट्ज के नेतृत्व में दुनिया के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों का एक आयोग गठित किया गया। इस रिपोर्ट में जी.डी.पी. की गणना के तरीके का भंडाफोड़ करते हुए बताया गया कि भारत की राजधानी दिल्ली के कनाट प्लेस में अगर ट्रैफिक जाम हो जाए या किसी बिजली संयंत्र के धुएं से आसपास के गांव के हजारों लोग बीमार हो जाएं तो देश का जी.डी.पी. बढ़ जाएगा। इसके बाद ब्रिटेन के सस्टेनेबल डिवैल्पमैंट आयोग, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) व अर्थशास्त्रियों का रोम क्लब सरकारों को खासकर विकासशील देशों की सरकारों को अपना ध्यान उत्पादन आधारित विकास (जी.डी.पी.) से हटा कर जन-कल्याण आधारित बनाने की सलाह देते रहे हैं।-एन.के. सिंह
 

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