Edited By ,Updated: 12 Mar, 2021 03:58 AM
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले आंदोलन को बढ़ता समर्थन, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ अदालत का निर्णय तथा मीडिया के माध्यम से लोगों के गुस्से का प्रतिबिम्बित होना 1975 में आपातकाल लागू होने का कारण बने।
राजनीतिज्ञों
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले आंदोलन को बढ़ता समर्थन, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ अदालत का निर्णय तथा मीडिया के माध्यम से लोगों के गुस्से का प्रतिबिम्बित होना 1975 में आपातकाल लागू होने का कारण बने। राजनीतिज्ञों तथा ट्रेड यूनियनिस्टों के अतिरिक्त बहुत से वरिष्ठ पत्रकारों को भी सलाखों के पीछे डाल दिया गया तथा प्रैस पर सैंसरशिप लाद दी गई। कुछ मीडिया समूहों ने अपने तौर पर काम जारी रखा और नहीं झुके। आखिरकार सरकार का कदम विपरीत साबित हुआ तथा इंदिरा गांधी को आपातकाल हटाने तथा चुनाव करवाने पर मजबूर होना पड़ा। बाकी इतिहास है कि कांग्रेस को एक शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा।
मीडिया का मुंह बंद करने के असफल प्रयोग के कई वर्षों बाद तक किसी भी सरकार ने मीडिया पर प्रतिबंध लागू करने का जोखिम नहीं उठाया, सिवाय मीडिया तथा मीडियाकर्मियों पर सामान्य कानून लागू करने के। मीडिया की स्वतंत्रता के लिए दिनों दिन स्थिति खराब होती जा रही है, विशेषकर मोदी सरकार की दूसरी पारी के दौरान। यहां सर्वाधिक दुखद तथ्य यह है कि जहां अधिकतर मीडिया सरकार के इशारे के इंतजार में रहता है तथा खुलकर सत्ताधारी दल का पक्ष लेता है, वहीं सरकार बाकी उस छोटे हिस्से का मुंह बंद करने के भी सभी प्रयास कर रही है जो उद्देश्यपूर्ण बने रहने का प्रयास कर रहा है या अपने रुख में सरकार विरोधी हो सकता है।
पत्रकारों के खिलाफ मामले दर्ज किए जा रहे हैं अथवा आई.टी., ई.डी. तथा सी.बी.आई. जैसे सरकार के अन्य ‘सहयोगी’ उनके या उनके संगठनों के पीछे पड़ गए हैं। ऐसे असहज व्यक्तियों तथा संगठनों के खिलाफ देशद्रोह के मामले तथा मान हानि के मामले खुलकर दर्ज किए जा रहे हैं। जबकि जो कोई भी सरकार के खिलाफ बोलता है उसके खिलाफ ‘धमकी सेना’ को खुला छोड़ दिया जाता है। सरकार के नवीनतम कदम के तहत मंत्रियों के एक समूह ने सरकार के आलोचकों को काबू करने के विभिन्न उपाय सुझाकर देश को सकते में डाल दिया है। वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों सहित कई मंत्री 6 बार मिले तथा सरकार की आलोचना पर नियंत्रण लगाने के विभिन्न सुझाव देने के लिए व्यापक बैठकें कीं।
इसमें कोई नुक्सान नहीं यदि सरकार मीडिया में अपने विचार रखना और तथ्यों के साथ अपनी आलोचना का सामना करना चाहती है। लेकिन समूह ने जो सुझाव दिया है वह इससे कहीं अधिक है। इसने नकारात्मक रिपोटर््स को ‘बेअसर’ करने की बात की है। इसने सोशल मीडिया पर ‘50 नकारात्मक तथा 50 सकारात्मक प्रभावशालियों’ पर नजर रखने तथा ‘ऐसे लोगों को बेअसर करने की बात की है जो तथ्यों के बिना सरकार के खिलाफ लिख रहे हैं तथा झूठी खबरें फैला रहे हैं।’
यहां तक कि इस समूह ने कुछ मित्रवत ‘संपादकों’ को भी घेरा है पर उनमें से एक ने संभवत: यह सुझाव दिया है कि पत्रकारों को सरकार के खिलाफ तथा पक्ष में उनके लेखों के लिए रंगदार कोड दिया जाए। इससे उनकी आसानी से पहचान करने में मदद मिलेगी। मंत्रियों में से एक ने सुझाव दिया कि ‘मीडियाकर्मियों तथा प्रमुख व्यक्तियों, जो राष्ट्रीय तथा वैश्विक दोनों पक्षों से सरकार के विचारों के हिमायती हैं, की सूची तैयार की जाए। कुछ प्रमुख शिक्षाविदों, उप कुलपतियों, सेवानिवृत्त भारतीय विदेश सेवा अधिकारियों आदि की पहचान की जाए जो हमारी उपलब्धियों बारे लिख सकें तथा हमारे दृष्टिकोण को प्रचारित कर सकें।’
एक अन्य मंत्री ने कहा कि सरकार को ‘50 नकारात्मक तथा 50 सकारात्मक प्रभावशाली व्यक्तियों की पहचान करनी चाहिए।’इस सुझाव को मंत्रियों के समूह तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने स्वीकार कर लिया है। मंत्रियों के समूह द्वारा सुझाव दिए गए अन्य कार्य बिंदुओं में प्रसार भारती समाचार सेवा का एक ‘मुख्य रेखा समाचार एजैंसी’ के तौर पर विस्तार करना शामिल है। रणनीतियों में एक दिलचस्प यद्यपि हास्यास्पद है ‘पत्रकारिता के स्कूलों के साथ तालमेल बनाना क्योंकि वर्तमान छात्र भविष्य के पत्रकार हैं।’ सरकार ने फिलहाल न तो रिपोर्ट्स की पुष्टि की है और न ही इनसे इंकार किया है लेकिन यह सुझाव मीडिया का मुंह बंद करने तथा उस पर पूर्ण नियंत्रण करने के प्रयासों के अंतर्गत हैं।
हाल ही में इसमें ओ.टी.टी. प्लेटफाम्र्स के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं जहां इनका कहना है कि यह समस्या पैदा करने वाली विषय वस्तु पर रोक लगाने, अधिक सूचित विकल्प बनाने, दर्शकों का सशक्तिकरण करने तथा विभिन्न माध्यमों के लिए एक जैसा मैदान बनाने के लिए है, कुछ धाराएं गंभीर ङ्क्षचताएं उत्पन्न करती हैं।
पहली है स्व: नियामक इकाई का पंजीकरण सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की स्वीकृति का विषय होना तथा दूसरा स्व:नियामक के पहले दो स्तरों को बाईपास करके मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित अंतविभागीय समिति का शिकायतें सुनने के लिए सशक्तिकरण करना। हालांकि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि नियम कैसे लागू किए जाते हैं। जिस तरह से मीडिया में सरकार के बारे में कथानक को नियंत्रित करने के लिए एक टूलकिट के तौर पर मंत्रियों के समूह ने रिपोर्ट तैयार की है उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने दुख तथा अविश्वास जताया है।
गिल्ड ने मांग की है कि ‘सरकार, जिससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की आशा की जाती है, को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वह मीडिया में विचारों की अनेकता को लेकर प्रतिबद्ध है।’ मीडिया के प्रति सरकार के व्यवहार तथा किसी भी तरह की आलोचना की रोशनी में गत 30 वर्षों से अधिक समय में पहली बार प्रो-डैमोक्रेसी फ्रीडम हाऊस ने भारत को आंशिक रूप से स्वतंत्र श्रेणी में रखा है। 2014 से लेकर पत्रकारों सहित 7000 से अधिक व्यक्तियों पर देशद्रोह के दोष लगाए गए हैं। दूसरी पारी खेल रही सरकार, जो और भी अधिक बहुमत के साथ वापस आई है, को मीडिया के एक वर्ग द्वारा आलोचना के प्रति इतना संवेदनशील होना जंचता नहीं।-विपिन पब्बी