‘लोकसभा-विधानसभा चुनाव’ एक-साथ करवाने के पीछे सरकार की नीयत क्या है

Edited By ,Updated: 20 Jun, 2019 04:07 AM

government s policy behind the  lok sabha assembly elections

‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ सुनने में बड़ा सुंदर लगता है लेकिन क्या इसके पीछे का प्रस्ताव भी उतना ही सुंदर है? क्या देशभर में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ करवाने का प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा कदम है?पहली नजर में बड़ा...

‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ सुनने में बड़ा सुंदर लगता है लेकिन क्या इसके पीछे का प्रस्ताव भी उतना ही सुंदर है? क्या देशभर में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ करवाने का प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा कदम है? पहली नजर में बड़ा सीधा सा प्रस्ताव है। 

देश भर में हर 5 साल बाद लोकसभा चुनाव होना तय है लेकिन विधानसभा के चुनाव का कैलेंडर लोकसभा से जुड़ा हुआ नहीं है। इसलिए केन्द्र सरकार के 5 साल के कार्यकाल में हर साल में एक या दो बार कई राज्यों की विधानसभा के चुनाव होते हैं। चुनाव संहिता लागू होते ही उन राज्यों की ही नहीं, केन्द्र सरकार की फाइलें भी रुक जाती हैं। केन्द्र सरकार के कामकाज में व्यवधान पड़ता है। सरकार चुनाव के दबाव में काम करती है इसलिए कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बना पाती। यूं भी राज्य और केन्द्र के चुनाव अलग-अलग करवाने से खर्चा भी दोहरा हो जाता है। 

इसलिए प्रस्ताव यह है कि 5 साल में एक बार एक साथ सभी राज्यों के विधानसभा और लोकसभा के चुनाव करवाए जाएं ताकि अगले 5 साल तक बिना किसी विघ्न के सब सरकारें अपना काम करें। 5 साल बाद एक साथ सब के काम का मूल्यांकन हो और नई लोकसभा तथा सभी विधानसभाओं को दोबारा चुना जाए। पहली बार सुनने में बात सीधी और सरल लगती है। ऐसा लगता है कि कई झंझटों से एक बार ही छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन दरअसल न तो यह प्रस्ताव उतना सरल है, न ही उतना सीधा। 

यह प्रस्ताव सिर्फ  चुनाव की तिथि बदलने का प्रस्ताव नहीं है। इसे केवल प्रशासनिक परिवर्तन से लागू नहीं किया जा सकता। इस प्रस्ताव को मानने का मतलब होगा हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे में परिवर्तन करना। हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारी परिस्थिति को देखते हुए अमरीका की राष्ट्रपति पद्धति को नामंजूर कर ब्रिटेन का संसदीय लोकतंत्र का ढांचा अपनाया। हमारे संसदीय ढांचे में यह अनिवार्य है कि देश के प्रधानमंत्री को संसद में बहुमत प्राप्त हो। ज्यों ही कोई प्रधानमंत्री या सरकार लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव में हार जाती है उस सरकार को तुरंत इस्तीफा देना होता है। 

लोकतंत्र की समस्याएं
अब सोचिए कि अगर ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है और अगर किसी राज्य में या केन्द्र में कोई सरकार 2 साल बाद या 4 साल बाद सदन में बहुमत खो देती है तो ऐसे में क्या होगा? क्या उस सरकार को 5 साल तक चलने दिया जाएगा, चाहे उसे बहुमत प्राप्त हो या न हो? अगर ऐसा नियम बन भी जाता है तो कोई सरकार कैसे राज करेगी अगर वह सदन में अपना बजट ही पास नहीं करवा सकती? या कि दोबारा चुनाव करवाए जाएंगे लेकिन सिर्फ बची हुई अवधि के लिए? यानी कि अगर कोई सरकार 4 साल के बाद गिर जाती है तो राज्य में या देश में नए चुनाव होंगे सिर्फ 1 साल की सरकार चुनने के लिए। सवाल यह है कि ऐसे में यह प्रस्ताव हमारे लोकतंत्र की समस्याओं को घटाएगा या कि उन्हें और बढ़ाएगा? 

यहां एक और गहरी समस्या के बारे में गौर करने की जरूरत है। अगर हर स्तर पर चुनाव अलग-अलग होते हैं तो वोटर हर स्तर के लिए अपनी अलग सोच बनाकर वोट दे सकते हैं। लेकिन जब अलग-अलग स्तरों के चुनाव एक साथ होते हैं तो कहीं न कहीं दोनों मत एक-दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं। बेशक आज वोटर पहले से ज्यादा जागरूक हो रहा है। ओडिशा का चुनाव यह दिखाता है कि एक साथ वोट करने के बावजूद भी वोटर लोकसभा के लिए भाजपा को ज्यादा वोट देता है तो विधानसभा के लिए बीजद को पसंद कर सकता है। लेकिन फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जब 2 अलग-अलग स्तरों का चुनाव प्रचार और मतदान एक साथ होता है तो दोनों में घालमेल की स्थिति बनती है। एक साथ चुनाव करवाने के प्रस्ताव से हमारी राजनीति के स्थानीय और आंचलिक चरित्र को धक्का लगेगा। 

चुनावी कैलेंडर में सुधार
सवाल यह भी है कि क्या चुनावी कैलेंडर की समस्याओं को सुलझाने के लिए हमें देश की संवैधानिक व्यवस्था में इतना बड़ा बदलाव करने की जरूरत है? मुझे लगता है कि अगर चुनावी कैलेंडर में तीन सुधार कर दिए जाएं तो हमें ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ जैसे बड़े संवैधानिक बदलाव की कोई जरूरत नहीं रहेगी। पहला, चुनाव की आचार संहिता में बदलाव किया जाना चाहिए ताकि किन्हीं राज्यों में विधानसभा चुनाव के समय केन्द्र सरकार का सामान्य कामकाज न रुके। दूसरा, चुनाव आयोग मतदान की अवधि को कम कर सकता है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के विधानसभा चुनाव को महीना भर तक 7 फेज में चलाने का कोई औचित्य नहीं है। अगर चुनाव मतदान की प्रक्रिया एक सप्ताह में पूरी कर ली जाए तो सरकार के कामकाज में व्यवधान कम पड़ेगा। 

तीसरा, अगर चुनाव आयोग चाहे तो अपने आप ही कई राज्यों के चुनाव को एक-दूसरे के साथ जोड़ सकता है। संविधान के तहत चुनाव आयोग को यह अधिकार है कि किसी लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के 6 महीने पहले तक कभी भी चुनाव करवा सकता है। इस प्रावधान का इस्तेमाल कर चुनाव आयोग कुछ राज्यों के चुनाव थोड़ा जल्दी करवा सकता है ताकि उसे बाकी राज्यों के साथ नत्थी कर दिया जाए और केन्द्र सरकार के 5 साल के कार्यकाल में 8 से 10 बड़े राज्यों के चुनाव होने की बजाय केवल 4 या 5 बड़े राज्यों के चुनाव हुआ करेंगे। 

चुनावी खर्च
रही बात चुनाव में खर्चे को कम करने की तो इसके लिए चुनाव के कैलेंडर को बदलने की जरूरत नहीं है। चुनाव में बेतहाशा खर्च का असली कारण है चुनाव की कानूनी सीमा से अधिक होने वाला खर्च। इसलिए चुनाव आयोग को चुनावी खर्च की सीमा को सख्ती से लागू करना चाहिए। 
निष्कर्ष साफ है: असली मंशा चुनावी कैलेंडर के कारण होने वाली असुविधा और राजकाज की दिक्कतों को खत्म करना है तो यह काम बिना ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के भी किया जा सकता है। सवाल यह है कि इसके बावजूद भी सरकार इस प्रस्ताव को क्यों ला रही है और वह भी अपने नए कार्यकाल में सबसे पहले? आखिर सरकार की नीयत क्या है?-योगेन्द्र यादव
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!