सरकार ‘शुतुरमुर्ग नीतियों’ को छोड़ अर्थव्यवस्था को संभाले

Edited By ,Updated: 22 Dec, 2019 03:02 AM

government should leave the ostrich policies and take over the economy

पुलवामा, बालाकोट, ट्रिपल तलाक, 370 और अब नागरिकता बिल पर पिछले 8 महीने से सरकार का ध्यान लगा हुआ है। ये भावनात्मक मुद्दे हैं। इनकी चर्चा आम आदमी को प्रभावित करने वाली वे बातें विमर्श के केन्द्र में नहीं आतीं जिनके बहुत ही दूरगामी परिणाम होने वाले...

पुलवामा, बालाकोट, ट्रिपल तलाक, 370 और अब नागरिकता बिल पर पिछले 8 महीने से सरकार का ध्यान लगा हुआ है। ये भावनात्मक मुद्दे हैं। इनकी चर्चा आम आदमी को प्रभावित करने वाली वे बातें विमर्श के केन्द्र में नहीं आतीं जिनके बहुत ही दूरगामी परिणाम होने वाले हैं।

मीडिया और देश इन मुद्दों पर लगातार चर्चा कर रहा है। इन जरूरी मुद्दों के बीच हर चीज पर जो महंगाई का हमला लगभग रोज ही हो रहा है वह सार्वजनिक विमर्श के बाहर रह रहा है। पिछले 2 वर्षों में महंगाई ने जिस तरह से आम जनजीवन को तबाही की तरफ डाल दिया है उस पर भी मीडिया और जनता के बीच चर्चा होना बहुत जरूरी है। चूंकि ऐसा नहीं हो रहा है इसलिए लगभग हर हफ्ते पैट्रोल की बढ़ रही कीमतें  दबे पांव आ जाती हैं और जनता को गरीब और मजबूर बनाती रहती  हैं। देश का प्रभावशाली मीडिया सरकारी एजैंडे के अनुसार  आचरण करता है। जरूरत इस बात की है कि आम आदमी की तकलीफों को बहस की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जाए। 

पैट्रोल की बढ़ती कीमतों से बढ़ती है महंगाई
पिछली छ: तिमाहियों में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर में लगातार कमी आ रही है। विश्वविख्यात रेटिंग एजैंसी मूडीज ने अगली तिमाही और पूरे साल के भारत संबंधी अपने आकलन को फिर से संशोधित कर दिया है और आगाह किया है कि लगातार घट रही विकास दर और भी घटेगी। इस बीच केन्द्र सरकार ने महंगाई की खेप दर खेप आम आदमी के सिर पर लादने का सिलसिला जारी रखा हुआ है। प्याज सहित खाने की हर चीज महंगाई की जद में है। पैट्रोल की कीमतें भी देश की बड़ी आबादी को कहीं का नहीं छोड़ रही हैं। हर हफ्ते पैट्रोल की कीमत बढ़ती रहती है। जब कभी एकाध-बार दो-तीन पैसे प्रति लीटर की कमी की घोषणा हो जाती है तो भाजपा और सरकार के प्रवक्ता उसका प्रचार शुरू कर देते हैं। 

सच्चाई यह है कि पैट्रोल की बार-बार बढ़ रही कीमतों का महंगाई बढऩे में बहुत बड़ा योगदान होता है। फौरी तौर पर गरीब तो सोच सकता है कि बढ़़ी हुई पैट्रोल की कीमतों से उसका क्या लेना-देना लेकिन सही बात यह है कि पैट्रोल, डीजल और बिजली की कीमत बढऩे से सबसे ज्यादा तकलीफ गरीब आदमी ही झेलता है। आज की यह महंगाई निश्चित रूप से कमरतोड़ है और उसमें ढुलाई की कीमतों का बड़ा योगदान है। 

कांग्रेस अपने आपको सत्ताधारी पार्टी समझती है
आज के हालात अलग हैं। आज की महंगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही गलतियों का नतीजा है। विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस है लेकिन वह अभी भी अपने आपको सत्ताधारी पार्टी जैसा ही मानती है और जनता की तकलीफ के सबसे जरूरी मुद्दे महंगाई पर किसी आन्दोलन की बात नहीं करती, सड़क पर जाने की बात सोचती ही नहीं जबकि डा. मनमोहन सिंह के समय मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा-आर.एस.एस. हुआ करती थी और वह महंगाई के हर मुद्दे पर सड़क पर उतरती थी। समझ में नहीं आता कि मौजूदा विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आएगी कि संकट के हालात की शुरूआत में ही सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है। पैट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है। 

जिम्मेदार किसको ठहराएं
कांग्रेस सरकारों के दौर में भी ये हालात बार-बार पैदा हुए थे लेकिन वह पुरानी बात है और उसके लिए जिम्मेदार किसी को भी ठहरा लिया जाए लेकिन इतिहास बदला नहीं जा सकता, उससे केवल सबक लिया जा सकता है। केन्द्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अजीब है क्योंकि वह पैट्रोल और डीजल की कीमतों के बढऩे से होने वाली महंगाई को रोकने की दिशा में कोई पहल करने की बात तो दूर, उसको स्वीकार तक नहीं कर रही है। बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सैक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण की आर्थिक नीतियों  के दौर में डा. मनमोहन सिंह की सरकार ने ही आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कम्पनियों को पूंजीपतियों को सौंपने का सिलसिला शुरू कर दिया था, वह प्रक्रिया आज भी जारी है। 

कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बना दिया गया
इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की जरूरत है। ये हालात यू.पी.ए.-2 सरकार के समय में 2009 से ही शुरू हो गए थे  और 2011 आते-आते त्राहि-त्राहि मच गई थी। 2012 में तत्कालीन विपक्ष, खासकर भाजपा-आर.एस.एस. का महंगाई के खिलाफ आन्दोलन बहुत जोर पकड़ गया। उसी साल अन्ना हजारे वाला आन्दोलन भी चल पड़ा। कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बना दिया गया। तत्कालीन सी.ए.जी. विनोद राय ने टू-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के पौने दो लाख करोड़ रुपए के घोटाले का हथियार भी पब्लिक डोमेन में डाल दिया, कॉमनवैल्थ खेलों के घोटाले को भी उजागर कर दिया गया।

यह अलग बात है कि अभी तक कॉमनवैल्थ खेलों के घोटालों के कथित अभियुक्तों को कोई सजा नहीं हुई है। सी.ए.जी. विनोद राय के पौने दो लाख करोड़ रुपए के टू-जी स्पैक्ट्रम के घोटाले के आंकड़े भी मौजूदा सरकार के अधिकारियों की नजर में फर्जी पाए गए हैं लेकिन राजनीतिक मोबिलाइजेशन में उनका इतना बेहतरीन उपयोग  हुआ कि उस वक्त के विपक्ष को जनता ने देश की सरकार सौंप दी। आज देश में उसी पार्टी की सरकार है जो विपक्ष के उस वक्त आन्दोलन की अगुवा थी। आज भी  जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं। उदारीकरण के बाद आम आदमी ने स्वीकार कर लिया था कि अब उसकी मेहनत को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल माना जाएगा और उसको जो भी अपनी मेहनतकी कीमत मिलेगी, वह कारखानों से निकले हुए माल के बाजार में खरीदारी के काम आएगी। नोटबंदी के बाद जो बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी आई है उसकी चलते गरीब की मेहनत के लिए कोई बाजार नहीं रह गया है। 

जाहिर है उपभोक्ता वस्तुओं के खरीदार भी कम हुए हैं। दुनिया भर के इतिहास से सबक लेने की जरूरत है। देखा गया है कि जब महंगाई कमरतोड़ होती है तो शहरी आबादी के पास खाने-पीने की भारी कमी हो जाती है। सरकार भरमाए रखने वाली शुतुरमुर्ग नीतियों को छोड़ दे और तबाह हो रही अर्थव्यवस्था को संभालने की कोशिश करे।-शेष नारायण सिंह 
 

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