‘की फरक पैंदा ए’ वाला दृष्टिकोण न अपनाए सरकार

Edited By ,Updated: 07 Jan, 2020 03:23 AM

government should not adopt the  ki pankda a  approach

अब आने का क्या मतलब है? वह पहले ही मर चुका है। सब मर चुके हैं, प्रशासन बेकार है। ये शब्द एक दुखी पिता के हैं किंतु क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि ये आम आदमी के शब्द हैं। हर दिन और हर माह भारत में ऐसे शब्द सुनने को मिलते हैं और हमारे नेतागण एक-दूसरे पर...

अब आने का क्या मतलब है? वह पहले ही मर चुका है। सब मर चुके हैं, प्रशासन बेकार है। ये शब्द एक दुखी पिता के हैं किंतु क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि ये आम आदमी के शब्द हैं। हर दिन और हर माह भारत में ऐसे शब्द सुनने को मिलते हैं और हमारे नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। यह बताता है कि देश में आम आदमी केवल एक संख्या मात्र है। राजस्थान के कोटा में जे.के. लोन अस्पताल में 107 बच्चों की मौत और मौत का सिलसिला जारी रहना वास्तव में हृदय विदारक है किंतु यह त्रासदी होनी ही थी क्योंकि अस्पताल के 70 प्रतिशत वार्मर काम नहीं कर रहे थे। 553 में से 320 उपकरणों की मुरम्मत की आवश्यकता है।

अस्पताल में प्रत्येक 13.1 बिस्तर पर एक नर्स है जबकि 4.1 बिस्तर पर एक नर्स होनी चाहिए। नवजात देखभाल इकाई में ऑक्सीजन पाइपलाइन नहीं है और इससे भी दुखद बात यह है कि इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच तू-तू, मैं-मैं चल रही है। भाजपा मुख्यमंत्री गहलोत के त्याग पत्र की मांग कर रही है तो कांग्रेस का कहना है कि भाजपा ने 2014 से 2019 के बीच अस्पताल की चिकित्सा सुविधाओं को बर्बाद किया है और कहीं कोई लापरवाही नहीं हुई है। पिछले 5 वर्षों में 2019 में सबसे कम मौतें हुई हैं। 

हमारे नेताओं के शार्टकट और तुरत-फुरत उपायों को ध्यान में रखते हुए उनसे इस घिसी-पिटी प्रतिक्रिया के अलावा कोई अपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। उन्होंने 2017 में गोरखपुर की त्रासदी से भी सबक नहीं लिया जहां पर ऑक्सीजन की कमी और खराब प्रबंधन के कारण 300 शिशुओं की मौत हुई थी। यह बताता है कि हमारे नेता किसी भी त्रासदी के प्रति कितना उदासीन रवैया अपनाते हैं। वे मानते हैं कि कुछ दिनों बाद यह मुद्दा ठंडा पड़ जाएगा। वे नुक्सान कम करने के उपाय भी नहीं करते हैं और न ही आहत माता-पिता के प्रति सहानुभूति रखते हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार और उत्तरदायी होगा? क्या कोई इसकी परवाह करता है? एक जमाना था जब 1956 में शास्त्री जी ने रेल दुर्घटना के बाद त्याग पत्र दे दिया था। आज हम दोगलेपन के शिकार हैं जहां पर त्याग पत्र की मांग को हमारे नेताओं द्वारा राजनीति कहा जाता है। 

किंतु कोटा की यह त्रासदी हमारे देश में स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली की दयनीय स्थिति को उजागर करती है। भारत में स्वास्थ्य देखभाल पर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.4 प्रतिशत खर्च होता है। इसका मतलब है कि हम स्वास्थ्य प्रणाली पर पर्याप्त खर्च नहीं करते हैं और गरीब लोगों को निजी अस्पतालों की दया पर छोड़ देते हैं। न केवल कोटा में, बल्कि सम्पूर्ण देश में अस्पतालों में सुविधाओं की स्थिति यही है। सरकारी अस्पतालों में रोगियों की संख्या को देखते हुए चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। एक आई.सी.यू. बिस्तर पर 2-3 मरीज होते हैं। स्वच्छता का अभाव है। शिशु वार्डों में चूहे और स्त्री रोग वार्डों में कुत्ते घूमते दिखाई देते हैं। 

स्वास्थ्य के बारे में बुनियादी जानकारी सीखने को कोई तैयार नहीं
यही नहीं, स्वास्थ्य के बारे में बुनियादी जानकारी सीखने और आपदा प्रबंधन के लिए कोई तैयार नहीं है। भारत में लगभग 6 लाख डाक्टरों और 20 लाख नर्सों की कमी है। शहरों में जो लोग स्वयं को डाक्टर कहते हैं उनमें भी केवल 58 प्रतिशत के पास मैडीकल डिग्री है और ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 19 प्रतिशत है। लगभग एक-तिहाई डाक्टर केवल 10वीं पास हैं। देश में 10,189 लोगों पर एक एलोपैथिक डाक्टर और 2046 लोगों पर एक बिस्तर है तथा 90,343 लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है। देश में 130 करोड़ लोगों पर केवल 10 लाख एलोपैथिक डाक्टर हैं जिनमें से केवल 10 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में कार्य करते हैं। देश में कुपोषण के कारण प्रतिदिन 3000 बच्चों की मौत होती है और हमारी जनसंख्या का लगभग 14.9 प्रतिशत कुपोषण का शिकार है। 

चिकित्सकीय उदासीनता के अलावा संसाधनों की कमी, चिकित्सा कर्मियों की कमी और डाक्टरों की कमी है। साथ ही चिकित्सा उपकरणों की कमी है, 70 प्रतिशत मशीनें अक्सर खराब रहती हैं जिनमें ऑक्सीजन आपूर्ति मशीनें भी शामिल हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की दशा दयनीय है। 51 हजार लोगों पर केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और एक डाक्टर है। 1000 व्यक्तियों पर केवल 1.1 बिस्तर है। डाक्टर और रोगी का अनुपात विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानक प्रति हजार व्यक्ति पर एक डाक्टर से कहीं कम है। 

ग्लोबल एंटीबायटिक रिसिस्टैंस पार्टनरशिप इंडिया वर्किंग ग्रुप और सैंटर फॉर डिजीज डायनामिक इकोनॉमिक्स एंड पॉलिसी द्वारा करवाए गए अध्ययन के अनुसार भारत में अस्पतालों के वार्डों और सघन चिकित्सा इकाइयों में संक्रमण दर शेष विश्व से 5 गुना अधिक है जिसके चलते कई बार रोगों का उपचार असम्भव हो जाता है। यह बताता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की दयनीय दशा का मुख्य कारण प्रशासनिक और राजनीतिक है। खराब देखभाल के कारण रोगियों की अधिक मौत होती है। वर्ष 2016 में खराब देखभाल के कारण 16 लाख भारतीय रोगियों की मौत हुई जबकि स्वास्थ्य सेवाओं का उपयोग न करने के कारण 8,38,000 रोगियों की मौत हुई। 

136 देशों में सबसे खराब स्थिति भारत की
गुणवत्ता के बिना स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं उपलब्ध करवाना क्या प्रभावी है? भारत में 24 लाख लोग प्रतिवर्ष ऐसे रोगों के कारण मरते हैं जिनका उपचार किया जा सकता है। यह 136 देशों में सबसे खराब स्थिति है। देश में 1000 बच्चों में से 34 बच्चे मां के पेट में ही मर जाते हैं। 9 लाख बच्चे 5 वर्ष की आयु से पहले और 3 हजार बच्चे प्रतिदिन कुपोषण के कारण मर जाते हैं जबकि 19 करोड़ लोग खाली पेट सोने के लिए बाध्य होते हैं। 

ग्रामीण लोगों को विशेषज्ञ चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध नहीं 
नियंत्रक महालेखा परीक्षक की पिछले साल की रिपोर्ट के अनुसार 28 राज्यों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्सा कर्मियों की 24 से 38 प्रतिशत तक कमी थी जबकि 24 राज्यों में आवश्यक दवाएं उपलब्ध नहीं थीं। 70 करोड़ ग्रामीण लोगों को विशेषज्ञ चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि 80 प्रतिशत चिकित्सा विशेषज्ञ शहरों में रहते हैं। भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली आपात स्थिति में है और सरकार को इसे तत्काल ऑक्सीजन उपलब्ध करवानी होगी और इन कमियों को दूर करने के लिए सरकारी व प्राइवेट अस्पतालों तथा चिकित्सा कर्मियों को प्रयास करने होंगे। हमारे राजनेताओं को मानव जीवन का सम्मान करना होगा और स्वस्थ भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को सुदृढ़ करना होगा। 

देश में स्वस्थ दशाएं उपलब्ध करवाने के लिए प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र को चुस्त करना होगा। भारत को अपनी लोक स्वास्थ्य सुविधाओं के संरक्षण, लोक स्वास्थ्य नीति बनाने, प्राथमिकताएं पुन: निर्धारित करने और सरकारी अस्पतालों में सेवा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए रणनीति और दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। सरकार अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकती है। इस संबंध में मंत्रियों के सम्मेलन और केन्द्र से निर्देशों से काम नहीं चलेगा। लोग अब इन घिसी-पिटी बातों से ऊब गए हैं कि घबराने की जरूरत नहीं, सरकार हरसम्भव प्रयास कर रही है और स्थिति में सुधार हो रहा है। हर संकट का समाधान किया जा सकता है किंतु उदासीनता का समाधान असम्भव है और हमारे राष्ट्र की यही त्रासदी है। अब वह समय नहीं रह गया कि सरकार यह दृष्टिकोण अपनाए कि ‘‘की फरक पैंदा है’’। क्या हमारे उदासीन नेता हमारी भावी पीढिय़ों का ध्यान रखेंगे क्योंकि हमारे नेता अक्सर कहते हैं कि अरे एक जान ही  तो है यह बेवकूफ।-पूनम आई. कौशिश
 

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