‘सरकारें बड़ी भूलें और गलतियां कर जाती हैं’

Edited By ,Updated: 03 Feb, 2021 03:13 AM

governments make big mistakes and make mistakes

संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों की खूबियों और अवगुणों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इस लेख में मैं इन कानूनों को पारित करने की सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर चर्चा करने का इरादा रखता हूं। हालांकि हाल ही में इस बात की घोषणा की गई है कि...

संसद द्वारा पारित तीन कृषि कानूनों की खूबियों और अवगुणों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इस लेख में मैं इन कानूनों को पारित करने की सरकार द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर चर्चा करने का इरादा रखता हूं। हालांकि हाल ही में इस बात की घोषणा की गई है कि कानून लागू हो सकते हैं और उनके कार्यान्वयन में 18 महीने की देरी हो सकती है। कृषि क्षेत्र की समस्याएं उतनी ही पुरानी हैं जितनी कि कृषि। कुछ क्षेत्रों में सुधार की सख्त जरूरत है मगर शायद उस तरह  से नहीं जिस तरह से सरकार ने तीन कृषि कानूनों को लागू करने का प्रयास किया है। ये कानून कृषि उपज में व्यापार और वाणिज्य से संबंधित, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसानों के समझौते तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन से संबंधित हैं। 

संविधान राष्ट्रपति को अध्यादेशों के माध्यम से कानून बनाने की शक्ति देता है लेकिन यह प्रक्रिया जो पिछले 70 वर्षों से विकसित हुई है उन परिस्थितियों को समाप्त करती है जिनके तहत इस शक्ति का प्रयोग किया जाना है। एम.एन. कौल तथा एस.एल. शकधर की प्रक्रिया तथा संसद की प्रक्रिया पर एक संक्षिप्त नजर यह दिखाएगी कि यह मुद्दा पहले लोकसभा अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बीच सजीव चर्चा का विषय था। 25 नवम्बर 1950 को संसदीय मामलों के मंत्री को लिखे गए एक पत्र में मावलंकर ने कहा, ‘‘अध्यादेशों के प्रचार की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से अलोकतांत्रिक है।’’ इस पत्र का जवाब खुद पंडित नेहरू ने भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा, ‘‘मुझे लगता है कि मेरे सभी सहयोगी इस बात से सहमत होंगे कि अध्यादेशों का मुद्दा आमतौर पर वांछनीय नहीं है और विशेष तथा जरूरी अवसरों को छोड़ कर इसे टाला जाना चाहिए।’’ 

17 जुलाई 1954 को मावलंकर ने दोहराया कि, ‘‘अध्यादेश का मुद्दा अलोकतांत्रिक है और अत्यावश्यकता या आपातकाल के मामलों को छोड़ कर उचित नहीं ठहराया जा सकता।’’ उन्होंने आगे सरकार को चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘यह सरकार में मौजूद कर्मियों का सवाल नहीं है बल्कि मिसाल का सवाल है और यदि यह अध्यादेश जारी करना केवल चरम और बहुत जरूरी मामलों के लिए अधिवेशन तक सीमित नहीं है तो इसका परिणाम यह हो सकता है कि भविष्य में सरकार अध्यादेश जारी करके लोकसभा को कोई विकल्प नहीं दे सकती है बल्कि अध्यादेशों को रबड़ स्टैंप कर दिया जाए।’’ हमें अब समझ में आया कि उनकी दूरदॢशता कितनी पूर्ण थी। ऐसा लगता है कि सरकार में कोई भी कौल और शकधर को पढऩा ही नहीं चाहता। न ही किसी को परवाह थी। यहां तक कि शायद नौकरशाहों को भी इन दोनों को पढऩे की चाह थी जो सरकार को परामर्श दे रहे हैं या वे बोलने से भी डरते हैं। 

वर्षों से संसद के दोनों सदनों में विधेयकों के पारित करने की प्रक्रिया को शुद्ध किया गया है। ज्यादातर मामलों में बिलों को परिचय के बाद इसकी जांच तथा रिपोर्ट के लिए संबंधित स्थायी समिति को भेजा जाता है। केवल दुर्लभ मामलों में वे सीधे दोनों सदनों द्वारा पारित हो जाते हैं। यू.पी.ए. शासन के दौरान भी यह प्रक्रिया पहले और लगभग सावधानीपूर्वक चली थी। 2009 और 2014 के बीच वित्त पर स्थायी समिति के बतौर चेयरमैन होने के नाते मैं इस तथ्य की जमानत दे सकता हूं कि हम कानून के हिस्सों को जांचने तथा उन पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए बेहद व्यस्त रहते थे। वास्तव में कमेटी द्वारा जांचे गए कम्पनीज अमैंडमैंट बिल को तत्कालीन कार्पोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली के विरोध के कारण तथा प्रणब मुखर्जी से मेरे समर्थन हासिल करने के कारण एक बार नहीं बल्कि दो बार जांच की गई थी।

यू.पी.ए. शासन के दौरान 70 प्रतिशत से अधिक पेश किए गए बिल स्थायी समितियों को भेजे गए थे। एन.डी.ए.-1 के दौरान यह आंकड़ा गिर कर 25 प्रतिशत हो गया तथा मैं समझता हूं कि एन.डी.ए.-2 के दौरान एक भी बिल को स्थायी समिति को अभी तक भेजा नहीं गया है। स्वाभाविक रूप से इस सूची में 3 कृषि बिल भी शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विधेयकों के पारित होने को भारतीय कृषि के इतिहास में एक अभूतपूर्व क्षण के रूप में वर्णित किया है। किसान भी उतने आश्वस्त नहीं हैं। मगर प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में बतौर प्रधानमंत्री होने के नाते, जब उन्होंने संसद भवन में पहली बार प्रवेश किया तो वहां की सीढिय़ों पर वह नतमस्तक हुए। 2019 में दोबारा चुने जाने के बाद संविधान के समक्ष उन्होंने अपना सिर झुकाया। संसद और संविधान को संक्षिप्त स्थान देने में से कौन-सा कार्य असली है। मैं इसे आपके फैसले पर छोड़ता हूं। 

सरकारें गलतियां करती हैं और कहीं-कहीं वे बड़ी भूलें कर जाती हैं। सरकार ने यहां गलती की है। मेरा सुझाव यह है कि इन कानूनों को पूरी तरह से वापस ले लेना चाहिए और यदि जरूरत हो तो उन्हें फिर से तैयार किया जाए और कृषि पर स्थायी समिति को भेज दिया जाए। कानूनों को पास करना संसद को जीवित रखना है। इसकी गरिमा बनाकर रखनी चाहिए। एक अडिय़ल रवैया कुछ अवांछित चीजों विशेषकर न्यायपालिका की तरफ से दखलअंदाजी के लिए आमंत्रण देगा।      (साभार ‘प्रिंट’)-यशवंत सिन्हा पूर्व केन्द्रीय मंत्री

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