सरकार जानकारी जुटाए, जनता जानकारी दे, इसमें ‘हर्ज’ ही क्या है

Edited By ,Updated: 28 Dec, 2019 01:14 AM

govt should gather information give public information what is  harm  in it

यह बात किसी से छिपी नहीं है, चाहे नेता हो, राजनीतिक दल हो या सरकार और उसे चुनने वाले हों, कि  राज्यों से लेकर केंद्रीय सरकार के लिए वोट देने वाले मतदाताओं की सूचियों में भारी चूक होती है, मतलब यह कि किसी का नाम अगर स्थानीय चुनावों की सूची में तो है...

यह बात किसी से छिपी नहीं है, चाहे नेता हो, राजनीतिक दल हो या सरकार और उसे चुनने वाले हों, कि  राज्यों से लेकर केंद्रीय सरकार के लिए वोट देने वाले मतदाताओं की सूचियों में भारी चूक होती है, मतलब यह कि किसी का नाम अगर स्थानीय चुनावों की सूची में तो है लेकिन लोकसभा की मतदाता सूची में नहीं है अर्थात एक लिस्ट में है, दूसरी में नहीं। अब होता यह है कि वोटर इसे मामूली बात समझकर नजरअंदाज कर देता है और सोचता है कि उसने अगर किसी चुनाव में वोट नहीं दिया तो कौन से पहाड़ टूट जाएंगे। इस तरह वोट के जरिए सरकार चुनने के अपने मौलिक, संवैधानिक और एकमात्र अधिकार से वह किसी की गलती से या फिर जानबूझकर वंचित कर दिया गया और कहीं भी कोई आवाज उठना तो दूर, किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। यह सब इसलिए हो पाता है क्योंकि हम अपने अधिकार हों या कत्र्तव्य, उनके प्रति न तो जागरूक हैं और न ही उसके नतीजों के बारे में जानने की रुचि होती है। 

हंगामा क्यों करते हैं?
जब हम अपने लिए कोई रोजगार या नौकरी करने के बारे में कदम उठाते हैं तो सबसे पहला काम अपने योग्य होने के प्रमाण पत्र, शिक्षा और अनुभव के विवरण जुटाते हैं और उन सब जानकारियों को हर सम्भव तरीके से उस संस्थान या व्यक्ति तक पहुंचाते हैं जो हमें व्यवसाय स्थापित करने या नौकरी देने में मदद कर सकता हो। उदाहरण के लिए जब बैंक वाले हमें ऋण देने या सरकार का कोई विभाग अपनी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए हमारी पात्रता का आकलन करने के लिए व्यक्तिगत हो या पारिवारिक, शैक्षिक हो या आर्थिक, यहां तक कि जातिगत हो या धार्मिक, कोई भी जानकारी मांगता है तो हम देने के लिए सहर्ष तैयार हो जाते हैं और बिना कोई सवाल पूछे तुरंत दे देते हैं, यह तक नहीं पूछते कि बहुत सी बेमतलब की जानकारी भी क्यों ली जा रही है जिसका कर्ज देने या लाभ देने से दूर का भी संबंध नहीं होता। 

इसी तरह बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाते समय भी कोई पूछताछ नहीं करते और यहां तक कि अधिकारियों के सामने माता-पिता होने का प्रमाण पत्र भी देते हैं, यदि स्वयं इंटरव्यू देना पड़े तो वह भी देते हैं जिससे प्रमाणित हो जाए कि उनकी संतान उस संस्था में पढऩे के योग्य है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चे की जन्मतिथि तक गलत बताने से परहेज नहीं करते, अगर इससे आगे चलकर परीक्षा या नौकरी या कोई सहायता मिलने की उम्मीद हो। आजादी के आसपास जन्मी पीढ़ी की तो अक्सर पैदा होने की दो तारीखें जीवन भर इनके साथ चलती हैं। एक जो स्कूल में दाखिले के समय लिखाई गई तथा जो बाद में सरकारी दस्तावेजों में अंतिम समय तक लिखी रहती है और दूसरी जो असली होती है व जन्मपत्री के अनुसार होती है। मेरी स्वयं की दो तिथियां हैं, एक 3 मई जो सरकारी रिकार्ड में है और दूसरी 18 जुलाई जो जन्मपत्री में है और असली है। मेरे पिता का कहना था कि स्कूल में 3 मई इसलिए लिखवाई क्योंकि मास्टर जी ने कहा था कि इसका फायदा परीक्षा में मिलेगा। इस मामले में अकेला नहीं हूं जो जीवन भर दो जन्म तिथियों को ढोता रहा है, बल्कि मेरे जैसे काफी अधिक संख्या में होंगे। जानकारी लेने और देने का सिलसिला इतना व्यापक हो गया है कि अब तो कोई वस्तु खरीदने पर दुकानदार हमारी व्यक्तिगत जानकारी मांगता है तो वह भी बिना एक भी प्रश्न पूछे दे देते हैं, चाहे बाद में इसका गलत इस्तेमाल होने का अंदेशा ही क्यों न हो? मजेदार बात यह है कि कोई हंगामा नहीं होता ! 

जनसंख्या और जनगणना 
यह किसी भी समझदार व्यक्ति की समझ से परे होने की बात है कि अगर सरकार जनसंख्या के आंकड़े जुटाना चाहती है तो इसमें गलत क्या है? अब अगर हम सरकार को भी वह सब जानकारी दे देते हैं जो कोई काम-धंधा, रोजगार या नौकरी पाने के लिए दूसरों को बिना किसी हिचकिचाहट के देते हैं, बहुत ही कम मात्रा में सरकार के मांगने पर देने से न केवल मना कर देते हैं बल्कि इसे लेकर हिंसात्मक आंदोलन तक करने पर उतारू हो जाते हैं। यही नहीं, इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और यहां तक कि राजनीतिक दलों के निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए उनकी कठपुतली बनने के लिए भी तत्पर हो जाते हैं। जनकल्याण के लिए समर्पित किसी भी सरकार का यह दायित्व और कत्र्तव्य होता है कि वह देशवासियों के लिए इस तरह की योजनाएं बनाए जो उन्हें सुख और शांति से जीवन जीने के साधन दे सकने की व्यवस्था कर सकें। यह तब ही सम्भव हो सकता है जब किसी भी सरकार या प्रशासनिक इकाई को यह पता होगा कि उसे कहां-कितने लोगों के लिए कौन सी व्यवस्था करनी है? भारत जैसे विशाल देश के लिए सही, सटीक और उपयोगी योजनाएं बनाने का काम कोई भी सरकार केवल तब ही कर सकती है जब उसे यह पता होगा कि हमारी आबादी कितनी है, उसका घनत्व क्या है, कौन सी सुविधाएं उस तक तुरंत पहुंचनी चाहिएं और किन के लिए उसे पंच वर्षीय योजनाओं से जोड़ा जाना है। 

जनसंख्या के आंकड़े एकत्रित करने का सरकार के पास कोई और कारण या एजैंडा भी हो सकता है तो आंदोलन करने वालों को इसका खुलासा करना चाहिए ताकि असलियत तो सामने आए, कुछ लोगों के बहकाने से जानकारी न देना या अपना नाम और पता गलत बताने से नुक्सान केवल सामान्य नागरिक का ही होता है। यहीं से गरीबी बढऩे और पिछड़ेपन की शुरूआत होती है। भारत में हर 10 वर्ष बाद जनगणना करने का मतलब ही यही है कि यह अनुमान लगाया जा सके कि देश में कितनी सड़कों, स्कूलों, अस्पतालों और दूसरे संसाधनों की जरूरत है और अगर इस कवायद के साथ-साथ इस बात का हिसाब भी रख लिया जाए कि आबादी कितनी है, हालांकि यह डुप्लीकेट एक्सरसाइज है, फिर भी बिना किसी अतिरिक्त आर्थिक बोझ के इसे किए जाने की जरूरत सरकार समझती है तो उसे करने देने में हर्ज ही क्या है? 

भारतीय नागरिकता 
यह तो तय होना ही चाहिए कि भारत में कितने नागरिक भारतीय हैं और कितने विदेशी। वसुधैव कुटुम्बकम का अर्थ यह नहीं कि कोई भी विदेशी अनधिकृत रूप से यहां रहता रहे और उस पर निष्कासन की कोई कार्रवाई न हो। संविधान में नागरिकता को लेकर कोई भी विरोधाभास नहीं है, भारतीय नागरिक होने, उसके बनने और किसी को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में नागरिक बनाने या किसी से उसकी भारतीय नागरिकता रद्द करने के लिए सब कुछ स्पष्ट रूप से वॢणत है तो फिर सभी भारतीय नागरिकों का एक रजिस्टर बनाने में हर्ज ही क्या है? जब कोई विदेशी देश में उत्पात मचाने, देशद्रोही गतिविधियां करने से लेकर आतंक फैलाने के इरादे से प्रवेश करता है और पकड़ा जाता है तो उसके खिलाफ  कानूनी कार्रवाई होने तक उसे डिटैन्शन सैंटर में रखा जाता है तो इसमें हर्ज ही क्या है? जब संविधान बना था, उस समय टैक्नोलॉजी का इतना विकास नहीं था, अब यदि प्रत्येक नागरिक को उसका एक ही पहचान पत्र मिल जाए जिसमें उसका सारा विवरण हो और सभी जगह केवल एक ही कार्ड दिखाने से उसका काम चल जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है?-पूरन चंद सरीन 
 

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