चुनाव आते ही ‘गिरगिट’ की तरह रंग बदलते हैं हमारे नेता

Edited By ,Updated: 17 Jun, 2020 10:21 AM

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एक सज्जन को एक सुंदरी मिली और उसने उसे हमबिस्तर होने के लिए आमंत्रित किया। उस सुंदरी ने उसके मुंह पर एक जोरदार तमाचा मारा और गुस्से में पूछा ‘‘तुमने मुझे वेश्या कैसे समझ लिया’’? इससे उस सज्जन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने कहा यदि तुम मेरे साथ...

एक सज्जन को एक सुंदरी मिली और उसने उसे हमबिस्तर होने के लिए आमंत्रित किया। उस सुंदरी ने उसके मुंह पर एक जोरदार तमाचा मारा और गुस्से में पूछा ‘‘तुमने मुझे वेश्या कैसे समझ लिया’’? इससे उस सज्जन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और उसने कहा यदि तुम मेरे साथ हमबिस्तर होने के लिए तैयार हो जाआे तो मैं तुम्हें 10 लाख डॉलर दूंगा। इस पर वह सुंदरी बोली अब तुम काम की बात कर रहे हो। तो उस व्यक्ति ने कहा अब यह पक्का हो गया है कि तुम क्या हो। अब केवल पैसों की बात बाकी रह गई है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह शुक्रवार को होने वाले राज्यसभा के द्विवाॢषक चुनावों से पहले की स्थिति को दर्शाता है जहां पर आया राम और गया राम दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बन गए हैं क्योंकि पैसा सब कुछ है। राज्यसभा की 55 सीटों के लिए द्विवाॢषक चुनाव होने हैं और 37 सीटों का परिणाम पूर्व निर्धारित है और 18 सीटों पर चुनाव होने हैं जिनमें से गुजरात से 4, राजस्थान से 3 और मध्य प्रदेश से 3 प्रमुख हैं और ये सीटें राजनीतिक खेल का मंच बन गई हैं। 

गुजरात को ही लें। वहां पर वर्ष 2017 की पुनरावृत्ति हो रही है जब तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की हार सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए थे जिसके चलते 6 कांग्रेसी विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था और 9 अन्य विधायकों ने मतदान ही नहीं किया। यह अलग बात है कि भाजपा के एक विधायक की चूक के कारण अहमद पटेल चुनाव जीत गए थे। वर्तमान में दोनों पाॢटयां राज्य में दो-दो सीटें जीतने की उम्मीद कर रही हैं। किंतु कांगे्रस के 8 विधायकों द्वारा त्यागपत्र देने से विधानसभा में पार्टी की सदस्य संख्या 73 से कम होकर 65 हो गई है किंतु उसे दो उम्मीदवार जिताने के लिए पहली प्राथमिकता के 68 मत चाहिएं। जबकि भाजपा के 103 विधायक हैं और उसने तीन उम्मीदवार खडे़ किए हैं और इस बार भी उसने 2017 की पुनरावृत्ति की है जिससे कांग्रेस के 2 में से 1 उम्मीदवार के चुनाव पर प्रश्रचिन्ह लग गया है। 

मुझे यह समझ में नहीं आता है कि चुनाव आते ही हमारे नेता गिरगिट की तरह अपना रंग क्यों बदल देते हैं और सारी शालीनता को त्याग क्यों देते हैं। आज चुनाव बदला बन गया है और यह अपनी और पार्टी की इज्जत बचाने का प्रश्न बन गया है और यदि आप अपने नेतागणों के मुखौटे उतारने शुरू करो तो आपको नग्न सच्चाई देखने को मिलेगी जहां पर प्रत्येक पार्टी और उसके नेता दोस्त और दुश्मन सबको साथ लाने का प्रयास करते हैं और इस तमाशे पर खूब पैसा खर्च किया जाता है। जिसके चलते स्थिति एेसी बन गई है कि कोई नेता राजनीतिक विरोधी है या जानी दुश्मन। इससे प्रश्न उठता है कि क्या यह मतदाताआें के साथ धोखाखड़ी नहीं है। शर्म या बदनामी तो दूर की बात है किंतु हमारे राजनेता इस बारे में थोड़ा-सा भी नहीं सोचते हैं। सत्ता भ्रष्ट बनाती है और परम सत्ता व्यक्ति को पूर्ण भ्रष्ट बना देती है। इस संबंध में पूर्व निर्वाचन आयुक्त रावत ने दुख व्यक्त करते हुए कहा है कि विधायकों में सेंधमारी को स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है, प्रलोभन के लिए पैसे का रणनीतिक उपयोग और धमकाने के लिए राज्य तंत्र का प्रयोग किया जाता है और जो यह सब कुछ कर सकता है उसको संसाधन सम्पन्न माना जाता है। विजेता कोई गलती नहीं कर सकता है। दल-बदल कर सत्तारूढ़ दल में शामिल होने वाले विधायक के सभी दोष समाप्त हो जाते हैं और उसका कोई अपराध भी नहीं रह जाता है। इसका उदाहरण महाराष्ट्र है। क्या आपने कभी सोचा था कि हिन्दुत्ववादी भाजपा और शिवसेना जिन्होंने मिलकर विधानसभा चुनाव लड़े थे अलग-अलग हो जाएंगे और शिवसेना अपने प्रबल प्रतिद्वंद्वियों कांग्रेस और राकांपा के साथ सरकार बनाएगी। 

गत वर्षों में राज्यसभा के सदस्यों की गुणवत्ता में गिरावट आई है। राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए क्षमता और अनुभव के स्थान पर नेता के प्रति निष्ठा, पैसा और राजनीतिक संपर्क को महत्व दिया जाता है। जिसके चलते यह सदन अपने लिए राज्यों की ङ्क्षचता को प्रदॢशत करने की अलग भूमिका विकसित करने में विफल रहा है और यह राजनीतिक सदन लोकसभा के समानान्तर या उसके प्रतिस्पर्धी के रूप में कार्य कर रहा है। राज्यसभा में भी गंभीर चर्चाआें का स्थान शोर-शराबे ने ले लिया है। राज्यसभा अभी भी उपयोगी भूमिका निभा सकती है। जयप्रकाश नारायण दलविहीन राज्यसभा के पक्ष में थे। उनके अनुसार केवल उन लोगों को राज्यसभा में भेजा जाना चाहिए जिन्होंने विधानसभा या लोकसभा में कम से कम एक कार्यकाल पूरा किया हो और किसी भी व्यक्ति को दो बार से अधिक राज्यसभा का सदस्य नहीं बनाया जाना चाहिए। किंतु एेसा नहीं हुआ और राज्यसभा की सदस्यता आज एक ट्रॉफी बन गई है। हमारे राजनेताआें को वर्तमान में जारी राजनीतिक नौटंकी को छोडऩा होगा और सार्वजनिक हित के नाम पर व्यक्तिगत नीचता के प्रयोग से बचना होगा। उन्हें अपनी प्राथमिकताआें पर पुनॢवचार करना होगा और अपने अविवेक पर अंकुश लगाना होगा। हमारे लोकतंत्र में सुधार की आवश्यकता है और इस संबंध में राज्य सभा चुनाव प्रकरण एक चेतावनी है। राजनीति बदमाशों की शरणस्थली नहीं बननी चाहिए। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि देश को सबसे बड़ी कीमत सस्ते राजनेताआें के कारण चुकानी पड़ती है। pk@infapublications.com 

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