भारत की सांस्कृतिक पहचान के प्रतीक गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर

Edited By ,Updated: 07 May, 2021 05:34 AM

gurudev rabindranath tagore a symbol of india s cultural identity

किसी भी देश की वास्तविक पूंजी उसके नागरिकों में ही छिपी होती है। लोगों की प्रतिभा और मेहनत से देश की शान भी बढ़ती है। कुछ लोग तो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी देश व समाज की पहचान तक बन जाते हैं। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर भी ऐसी ही एक शख्सियत थे,...

किसी भी देश की वास्तविक पूंजी उसके नागरिकों में ही छिपी होती है। लोगों की प्रतिभा और मेहनत से देश की शान भी बढ़ती है। कुछ लोग तो अपनी प्रतिभा के बल पर किसी देश व समाज की पहचान तक बन जाते हैं। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर भी ऐसी ही एक शख्सियत थे, जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक पहचान को चार चांद लगाए। उन्होंने अपनी प्रतिभा, मानवतावादी विचारों, कार्यों व लेखनी के माध्यम से दर्शन, साहित्य, संगीत, चित्रकला, शिक्षा सहित विभिन्न क्षेत्रों को नई देन दी, जिसे सदा याद रखा जाएगा। अंग्रेजी शासन की नृशंस कार्रवाइयों को देखते हुए उन्होंने सर व नाइटहुड आदि उपाधियां लौटा दीं। उनके योगदान को देखते हुए देश की जनता ने उन्हें स मान स्वरूप गुरुदेव की उपाधि दी। 

रबीन्द्रनाथ का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में देवेन्द्रनाथ ठाकुर व शारदा की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। पिता ब्रह्म समाज से जुड़े थे। परिवार समृद्ध व स पन्न था। मां की तबीयत ठीक नहीं रहती थी। बच्चों की देखरेख व खान-पान का जि मा नौकरों के हाथ में था। बालक रबीन्द्रनाथ की पढ़ाई के लिए घर पर ही शिक्षक आते थे। अपने बड़े भाइयों की तरह उनका मन भी स्कूल जाने के लिए मचलता था। बताते हैं कि जब उन्होंने स्कूल जाने की इच्छा व्यक्त की तो अध्यापक ने उनकी पिटाई कर दी। बाद में उन्हें स्कूल में भेजा जाने लगा, लेकिन अध्यापकों की मार-पिटाई से रबीन्द्रनाथ ठाकुर का मन शिक्षा से विचलित रहने लगा। उनके मन में सवाल पैदा हुआ कि जिन स्कूलों को विद्या मंदिर कहा जाता है, उनमें हिंसा आखिर क्यों होती है? 

स्कूली शिक्षा से ऊबे बालक रबीन्द्रनाथ ने अपने पिता के साथ हिमालय की यात्रा की। शांति निकेतन से वह अमृतसर पहुंचे। यहां से सात हजार फीट की ऊंचाई पर डलहौजी पहुंचे। हिमालय के आगोश में उन्होंने चार महीने बिताए, जिसका उनकी सोच व संस्कारों पर गहरा प्रभाव पड़ा। घर लौटने पर वह परिजनों व आसपास के बच्चों को हिमालय के किस्से सुनाते। 

12 साल की उम्र में रबीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘अभिलाषा’ कविता लिखी, जोकि तत्वबोधिनी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। रबीन्द्र की उम्र 13 साल की ही थी कि मां का देहांत हो गया और रबीन्द्र फिर से हिमालय जाने की सोचने लगे। ऐसे में बड़े भाई ज्योतिन्द्रनाथ और उनकी पत्नी कादंबरी देवी ने बड़ा सहारा दिया। सदमे से उबरने पर 14 वर्ष के रबीन्द्र ने 1600 शब्दों की कविता-बनफूल लिखी, जोकि ज्ञानांकुर पत्रिका में प्रकाशित हुई। 

रबीन्द्रनाथ के पिता उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 1878 में रबीन्द्रनाथ को ब्रिटेन भेज दिया। वहां पर उन्हें पश्चिमी संगीत व नृत्य आदि कलाएं सीखने का मौका मिला। बाद में पढ़ाई बीच में छोड़ कर वह भारत आ गए। यहां वापस लौटे तो घर में न भाई-भाभी थे और न पिता जी। अत: अकेलेपन में उन्होंने उदास गीतों की रचना की, जोकि उनके ‘सांध्यगीत’ संग्रह में प्रकाशित हुए।

इस दौरान उन्होंने दो नाटक भी लिखे। उनका विवाह मृणालिनी से कर दिया गया। उसके बाद उनकी पोस्टमास्टर, चित्रा, नदी, चैताली, विदाई अभिशाप, चिरकुमार सभा व काबुलीवाला सहित अनेक रचनाएं आईं। उनकी काबुलीवाला पर तो हेमेन गुप्ता के निर्देशन में फिल्म भी बनी है, जिसमें बलराज साहनी ने मु य भूमिका निभाई। उनका बच्चों के लिए लिखा गया- शारदोत्सव नाटक बंगाल में बहुत प्रसिद्ध है। उनके उपन्यास नष्टनीड़ पर चारूलता फिल्म बनी। उनकी अनेक रचनाओं को आधार बनाकर फिल्मकारों ने फिल्मों का निर्माण किया। 

1905 में बंगाल विभाजन का उन्होंने जोरदार विरोध किया। अनेक सभाओं को संबोधित किया। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने रबीन्द्रनाथ को झकझोर दिया। उन्होंने नाइटहुड की उपाधि लौटाते हुए अंग्रेज वायसराय को पत्र लिखा। हत्याकांड के सबसे बड़े किरदार को अंग्रेजी संसद द्वारा माफ किए जाने पर उन्होंने रोष जताया। 1913 में उनके गीत संग्रह-गीतांजलि के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह केवल भारत का ही नहीं बल्कि साहित्य के क्षेत्र में एशिया महाद्वीप का पहला नोबेल पुरस्कार था। वह दुनिया के पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके लिखे गए गीत दुनिया के दो देशों के राष्ट्रगान के रूप में विभूषित हुए। उनका लिखा गया-‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ भारत का राष्ट्रगान है तो उन्हीं की रचना-‘आमार सोनार बांंग्ला’ बांग्लादेश का राष्ट्रगान है। 

1911 में उन्होंने भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मण’ लिखा और उसी साल उन्होंने ब्रह्मसमाज की पत्रिका ‘तत्वबोध प्रकाशिका’ में इसे ‘भारत विधाता’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। इस पत्रिका का स पादन गुरुदेव ही करते थे। 1911 में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 27 दिस बर को इसे गाया गया। रबिन्द्रनाथ ने यूरोप, रूस, अमरीका के दोनों महाद्वीप, चीन, जापान, मलाया, जावा, ईरान आदि देशों की यात्रा की। उनकी विलियम रोथेन्स्टाइन, कवि यीट्स, एचजी वेल्स, आईंस्टाइन से मुलाकात हुई। प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोस से उनकी गहरी मित्रता थी। 

शिक्षा की दृष्टि से रबीन्द्रनाथ के मन में बड़ी बेचैनी थी। 22 दिसम्बर, 1901 में उन्होंने शांति निकेतन में आश्रम शुरू कर दिया। पांच बच्चों और इतने ही अध्यापकों के साथ स्कूल की स्थापना हुई थी। गुरुदेव प्रकृति को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक मानते थे। यही कारण है कि आश्रम में पेड़ों के नीचे कक्षाएं लगती थीं। रबीन्द्रनाथ ने बच्चों के लिए प्रार्थना लिखी थी। उनका मानना था कि अध्यापक दीपक की तरह होता है, उसके ज्ञान से बच्चे सीखते हैं। आश्रम को चलाने के लिए पत्नी मृणालिनी ने शादी के जेवर व सोने की घड़ी तथा अपने लिए बनवाया गया घर तक बेच दिए। आश्रम का खर्च चलाने के लिए कर्ज भी लेना पड़ा। 

1921 आते-आते विद्यालय का नाम विश्व भारती हो गया। विश्व भारती विश्वविद्यालय देश में शिक्षा का ऐसा केन्द्र है जहां पर दुनिया भर के विभिन्न देशों के विद्यार्थी पढऩे के लिए आते हैं। भारतीय संस्कृति व कला के साथ ही दुनिया की विभिन्न भाषाओं की यहां पर शिक्षा दी जाती है। रबीन्द्रनाथ अपने जीवन के आखिरी वर्षों में चित्रकारी को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाली विरली श िसयत हैं। उन्होंने हजार के करीब पेंटिंग बनाई हैं और भारतीय चित्रकला में अपना अन्यतम योगदान दिया।

संगीत के क्षेत्र में उनके नाम से रबीन्द्र संगीत की एक धारा चल पड़ी है। उनका संगीत जहां एक ओर प्रकृति के साथ जुड़ा है, वहीं उसमें पाश्चात्यत संगीत के तत्व भी देखे जा सकते हैं।7 अगस्त, 1941 को उनका निधन हो गया लेकिन अपने काम व रचनाओं के जरिए वह सदा भारत की शान व पहचान बने रहेंगे।-अरुण कुमार कैहरबा
 

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