साइकिल मिली है, क्या सत्ता भी मिलेगी

Edited By ,Updated: 19 Jan, 2017 12:23 AM

has bicycles  what power will also

तो अब तय हुआ है कि मुलायम सिंह यादव अलग से उम्मीदवार नहीं उतारेंगे और न खुद अखिलेश यादव को ललकारेंगे। तय हुआ है कि पिता के उम्मीदवारों की...

तो अब तय हुआ है कि मुलायम सिंह यादव अलग से उम्मीदवार नहीं उतारेंगे और न खुद अखिलेश यादव को ललकारेंगे। तय हुआ है कि पिता के उम्मीदवारों की सूची का आदर बेटा करेगा यानी सूची में शामिल सभी नेताओं को टिकट दे दिया जाएगा। यह भी सुनने में आ रहा है कि उन चार बर्खास्त मंत्रियों को भी टिकट दिया जाएगा जिन पर अखिलेश यादव की गाज गिरी थी।

अब जब ये सब होना ही था तो फिर ये सारी माथाफोड़ी क्यों की गई। सारा नाटक क्यों किया गया। कुछ कह रहे हैं कि सारा नाटक रचा गया। नुक्कड़ों पर चर्चा है कि पिता ने बेटे को वारिस बनाने के लिए तमाम दुश्मनों को एक ही वार से खेत कर दिया। चाचा शिवपाल से लेकर अंकल अमर सिंह तक को ठिकाने लगा दिया। अखिलेश की छवि अचानक पाक साफ  हो गई।

भ्रष्टाचार के तमाम आरोप शिवपाल के सर मढ़ दिए गए। दलाली के आरोप अमर सिंह की पीठ पर लाद दिए गए। साढ़े चार मुख्यमंत्री वाले राज्य में चारों ही चारों खाने चित्त हुए और आधा नेता टीपू सुल्तान बन गया।

अब अखिलेश की छवि एक ऐसे ट्रेनी मुख्यमंत्री की है जो चाचा और पिता से जूझता रहा लेकिन विकास के काम करवाता रहा। एक ऐसा मुख्यमंत्री जो युवा और महिलाओं में लोकप्रिय है। एक ऐसा मुख्यमंत्री जो कुछ करना चाहता है और कुछ करने का माद्दा भी रखता है लेकिन बड़ा सवाल यही कि इतना सब होने के बावजूद क्या अखिलेश यादव एक बार फिर से मुख्यमंत्री बन पाएंगे ....क्या कांग्रेस और अजित सिंह के दल रालोद के साथ का गठबंधन बिहार जैसे महागठबंधन की शक्ल ले सकेगा ...क्या मुस्लिम मतदाता अब आंख मूंद कर इस गठबंधन में यकीन करने लगेगा।

इन सभी सवालों के जवाब बता पाना बहुत मुश्किल है। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि 3 महीने पहले अखिलेश कहीं रेस में भी नहीं दिखाई दे रहे थे तब मायावती आगे चल रही थीं लेकिन अब दो ही दलों के दो ही नेताओं की बात हो रही है। अखिलेश यादव बनाम नरेन्द्र मोदी होने लगा है सारा चुनाव। हालांकि यहां एक वर्ग का यह भी मानना है कि मायावती का वोटर आमतौर पर शांत रहता है और उसकी खामोशी दोनों खेमों को उखाड़ सकने की ताकत रखती है।

चलो एक बार मान लिया जाए कि मुकाबला अखिलेश और मोदी के बीच होगा तो क्या यह भी मान लिया जाए कि दोनों की तरफ  से किए गए काम वोट का आधार बनेंगे। पिछले दिनों पश्चिमी यू.पी. के दौरे से तो ऐसा लगता नहीं। पूरा चुनाव जाति पर लड़ा जाएगा, ऐसा आभास साफ-साफ हो रहा है। आप नाम मत पूछिए। आप जाति पूछिए तो आप को अंदाजा हो जाएगा कि जाति के हिसाब से वोट देने की परम्परा इस बार भी निभाई जाएगी।

राजनीति में दो और दो चार भी होते हैं और पांच भी होते हैं। कभी-कभी छह भी होते हैं। बिहार में महागठबंधन बना तो उसने दो और दो को छह कर दिया था। यू.पी. में क्या हो सकेगा। क्या हमें प्रियंका गांधी और डिम्पल यादव एक मंच पर एक-दूसरे दल को वोट देने की अपील करती दिखाई देंगी। क्या हमें एक ही मंच पर अखिलेश यादव, राहुल गांधी और जयंत भाषण देते दिखाई देंगे। इससे भी बड़ी बात कि क्या हमें मुलायम सिंह और अखिलेश यादव एक ही मंच पर नजर आएंगे या मुलायम सिंह अलग से भी अखिलेश को वोट देने की अपील करते नजर आएंगे।

अगर ऐसा होता है तो भाजपा और बसपा की नींद उडऩी तय है लेकिन अगर गठबंधन सिर्फ कागजी होता है  ...अगर पिछली बार के चुनाव के हिसाब से सपा 30 फीसदी, कांग्रेस 12 फीसदी और रालोद 2 फीसदी का जोड़ सामने रख दिया जाता है तो दो और दो चार हो जाएं, ऐसा होना जरूरी नहीं होगा।

गठबंधन का अर्थमैटिक होता है लेकिन उससे ज्यादा बड़ी कैमिस्ट्री होती है।  जब यह कैमिस्ट्री गठबंधनों के धड़ों के साथ-साथ जनता से भी जुड़ जाती है तो हमें बिहार जैसे नतीजे दिखते हैं जहां महागठबंधन लगभग तीन-चौथाई बहुमत हथियाने में कामयाब हुआ था।

यू.पी. में 30 फीसदी वोट पर लोग सत्ता पाते रहे हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो भाजपा कागजों में सबसे अच्छी स्थिति में है। उसके पास पिछले लोकसभा चुनावों में 43 फीसदी वोट थे। अब अगर इसमें से 10 फीसदी भी साथ छोड़ गए तो भी उसे आराम से चुनाव निकाल लेना चाहिए। लेकिन भाजपा को भी पता है कि राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते।

अभी तक के सर्वे यू.पी. में त्रिशंकु विधानसभा के गठन की बात कर रहे हैं जहां भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभर सकती है। ये सर्वे तब किए गए थे जब मुलायम खेमे में झगड़ा उबाल पर था। सवाल उठता है कि अब जब सब करीब-करीब साफ हो गया है तो इससे भाजपा का नफा-नुक्सान क्या रहने वाला है।

‘ए.बी.पी.’ न्यूज-सी.एस.डी.एस. का सर्वे बताता है कि मुलायम के दल में फूट पडऩे की सूरत में भाजपा को फायदा होगा लेकिन यहां फूट तो पड़ी है लेकिन दोनों अलग-अलग चुनाव मैदान में उतर नहीं रहे हैं लिहाजा भाजपा को संभावित लाभ मिलने में दिक्कत भी आ सकती है। भाजपा ने अपनी पहली सूची में गैर-यादव ओ.बी.सी. और गैर-जाट व दलित वोटों का ज्यादा ध्यान रखा है। एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देकर भाजपा ने भी अपने इरादे साफ कर दिए हैं।

उसे यकीन है कि मायावती के 100 मुस्लिम उम्मीदवार उसका काम आसान करेंगे। लेकिन उसे डर है कि अगर संभावित गठबंधन पर मुस्लिम यकीन करने लगा तो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग तो पूरी तरह से पिटेगी ही, साथ ही भाजपा का कमल भी मुरझा जाएगा। हां, अगर मोदी का जादू चला, नोटबंदी का सकारात्मक असर हुआ, मुस्लिम वोट बंटा, गैर-यादव, ओ.बी.सी. और गैर-जाट व दलितों को तोडऩे में भाजपा कामयाब हुई तो यू.पी. में कमल खिल सकता है। बड़ा सवाल यही है कि क्या इतने सारे अगर-मगर के साथ चुनाव जीता जा सकता है। अन्य जगह का तो पता नहीं लेकिन यू.पी. में शायद जीता भी जा सकता है। 

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