क्या संसद ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2021 04:15 AM

has parliament lost its relevance

क्या भारतीय संसद ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है? क्या विपक्ष सरकार को जवाबदेह बनाने के अपने कत्र्तव्य का निर्वहन करने में असफल रहा है? क्या सरकार विपक्ष तक पहुंच नहीं बनाने की अपनी जिद पर अड़ी हुई है? जो स्थिति है उसके लिहाज से इन सभी प्रश्रों का...

क्या भारतीय संसद ने अपनी प्रासंगिकता खो दी है? क्या विपक्ष सरकार को जवाबदेह बनाने के अपने कत्र्तव्य का निर्वहन करने में असफल रहा है? क्या सरकार विपक्ष तक पहुंच नहीं बनाने की अपनी जिद पर अड़ी हुई है? जो स्थिति है उसके लिहाज से इन सभी प्रश्रों का उत्तर एक बड़ा ‘हां’ है। यहां हर पक्ष की ओर से सिर्फ टकराव है और कोई भी समझौता नहीं जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान गतिरोध का कोई समाधान नहीं निकल रहा। 

भारत को एक लोकतांत्रिक देश के तौर पर संरक्षित रखने के लिए संसद को विधेयक बनाने, उनकी जांच करने तथा सत्र आयोजित करने के  लिए अधिक सक्रियतापूर्वक काम करने की जरूरत है मगर दुख की बात है कि जन महत्व के मुद्दों पर चर्चा तथा बहस की बजाय व्यवधान अधिक होता है। संसद के छोटे सत्रों तथा विधेयकों की जांच में उदारता के कारण निश्चित तौर पर संसद की कार्यकुशलता में कमी आई है। 

संसद का वर्तमान मानसून सत्र लगभग बिना किसी कामकाज के समाप्त हो गया है क्योंकि न तो कोई बहस हुई और न ही विधेयकों पर चर्चा करके उन्हें पारित किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 सप्ताह संसद को न चलने देने के कारण विपक्ष की आलोचना की। भाजपा संसदीय दल की बैठक के दौरान मोदी ने विपक्ष के व्यवहार को संसद, संविधान, लोकतंत्र तथा जनता का ‘अपमान’ बताया। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार कोई काम नहीं कर सकी। विपक्ष पेगासस जासूसी, किसानों के मुद्दे तथा महंगाई पर चर्चा की मांग कर रहा था। हालांकि सरकार का दावा है कि वह किसी भी मामले पर चर्चा के लिए तैयार थी, वह समय तथा दिन पर सहमत नहीं हो सकी। बिना किसी समझौते के संकेत के गतिरोध जारी रहा। 

ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि ह तों तक कोई कार्य नहीं किया गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि ऐसा लगा जैसे पूरा सत्र यूं ही समाप्त हो गया। भाजपा, जिसने किसी भी अन्य राष्ट्रीय पार्टी के मुकाबले कहीं अधिक ल बे समय तक विपक्ष की भूमिका निभाई, बेहतर जानती है कि जब वह विपक्ष में थी तो उसने यही सब किया था। 

लोकतंत्र की मांग है कि कार्यपालिका के निर्णयों को संसदीय जांच के लिए भेजा जाए। हालांकि अब यह प्रक्रिया लापता है क्योंकि संसद दिन में कई बार स्थगित होती है। राजनीति के कारण कानून निर्माता विधेयकों पर चर्चा तथा बहस के अपने कत्र्तव्य को निभाने में असफल हो जाते हैं। वे कानून निर्माता कहलाते हैं लेकिन कानूनों में खामियां ढूंढने के प्रति गंभीर नहीं हैं। शोर-शराबा, एक-दूसरे पर घूंसे तानना तथा विपक्ष द्वारा कागज फाडऩा  दोनों सदनों में सामान्य बात हो गई है। सरकार भी शोर-शराबे के बीच विधेयकों को पारित करवाना चाहती है। 

दरअसल गत दो दशकों से हम प्रत्येक संसदीय सत्र की समाप्ति पर लगभग एक जैसी हैडलाइंस देखते हैं। उनकी अकर्मण्यता को देखते हुए लोग सांसदों से दूरी बनाने लगे हैं। हालांकि कुछ नए सदस्य जो एक अच्छा सांसद बनने की बड़ी आशा के साथ संसद में आए हैं, लगातार होने वाले स्थगनों तथा सदनों में काम न होने से निराश हैं। यहां तक कि उनमें से कुछ अपना पहला भाषण भी नहीं दे पाए।
एक चुने हुए सदस्य के कार्य तथा कत्र्तव्य क्या हैं? मु य रूप से 4 कार्य हैं : 

1बजट की समीक्षा करना।
1संघटकों के हितों की रक्षा करना।
1सरकार पर एक निगरान के तौर पर कार्य करना तथा सबसे बढ़ कर...
1कानून बनाना।

क्या संसद को और अधिक समय की जरूरत है? दोनों सदन वर्ष में औसत रूप से 67 दिनों के लिए बैठते हैं। इसकी पहली, दूसरी तथा तीसरी लोकसभा (1952-1967) के साथ तुलना करें, जब ये वर्ष में औसत 120 दिनों के लिए बैठती थीं। अब कार्य का समय आधा रह गया है। संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग ने सुझाव दिया था कि लोकसभा की एक वर्ष में कम से कम 120 बैठकें होनी चाहिएं। इसकी तुलना में राज्यसभा की 100 बैठकें होनी चाहिएं। गत वर्ष मार्च में देश में महामारी फैलने के बाद संसद केवल 34 दिनों के लिए कार्य कर सकी। शीतकालीन सत्र रद्द करना पड़ा जबकि 3 अन्य का समय छोटा कर दिया गया। 

पारंपरिक रूप से संसदीय समितियां गैर-दलीय आधार पर कार्य करती हैं, अब इनके सदस्यों ने राजनीतिक रवैया अपनाना शुरू कर दिया है। समिति के सदस्य लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों  से होते हैं। वे नीतियों तथा विधेयकों की समीक्षा करते हैं और विशेषज्ञों से सलाह लेते हैं। यहां तक कि उनकी भूमिका भी धीरे-धीरे कम हो रही है। हाल ही में स्थायी समितियों के भीतर टकराव की कुछ घटनाएं सामने आई हैं। 

1952 से नियम मांग करते हैं कि सांसद दूसरों के भाषण में व्यवधान न डालें, चुप्पी बनाए रखें तथा चर्चा के दौरान कार्रवाई में बाधा न डालें। प्रदर्शन की नई किस्मों के परिणामस्वरूप 1989 में इन नियमों को अपडेट किया गया। इसी के अनुरूप अब सदस्यों को नारेबाजी नहीं करनी चाहिए, तख्तियां नहीं दिखानी चाहिएं, रोष स्वरूप दस्तावेज नहीं फाडऩे चाहिएं तथा सदन में कैसेट्स अथवा टेप रिकार्डर नहीं बजाने चाहिएं। व्यवहार में वे इन सभी नियमों की अवहेलना करते हैं। मुख्य बिंदु यह है कि दोनों पक्षों के सदस्यों को अच्छे सांसदों के तौर पर कार्य करने का उद्देश्य रखना चाहिए। व्यवधान उद्देश्य नहीं हो सकते। चुने हुए सांसदों को लोगों के चुने हुए प्रतिनिधियों के तौर पर उनकी समस्याओं पर चर्चा करनी चाहिए। 

इसे लेकर बहुत से सुझाव हैं कि सदस्यों के लिए ‘काम नहीं तो वेतन नहीं’ का कॉन्सैप्ट अपनाया जाना चाहिए मगर इससे उन सदस्यों पर असर पड़ेगा जो अपने वेतन पर निर्भर होते हैं। एक अन्य सुझाव यह भी है  कि अमरीका में प्रचलित शैडो कैबिनेट मॉडल को अपनाया जाए मगर यह राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे अपने सदस्यों का जि मेदार व्यवहार सुनिश्चित करें, चाहे ये विपक्ष में हों अथवा सत्तापक्ष में। जैसा कि साबित हो चुका है कि किसी भी मुद्दे के समाधान का एकमात्र रास्ता बातचीत है। करदाताओं के धन को बर्बाद करना कोई उत्तर नहीं।-कल्याणी शंकर
 

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