Edited By ,Updated: 24 Nov, 2016 01:46 AM
8 नवम्बर को उच्च कीमत के नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा होने के समय से ही स्थिति बदतर होती जा रही है और ...
(विपिन पब्बी): 8 नवम्बर को उच्च कीमत के नोटों के विमुद्रीकरण की घोषणा होने के समय से ही स्थिति बदतर होती जा रही है और लोगों का गुस्सा स्पष्टत: इसलिए बढ़ता जा रहा है कि आर्थिक सुधार का इतना बड़ा कदम उठाने से पहले पर्याप्त तैयारी नहीं की गई थी। नोटबंदी की नाटकीय घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्थिति को ठीक करने के लिए 50 दिन का समय मांगा है।
हालांकि इस बात की भी बहुत कम सम्भावना है कि इस अवधि दौरान हालात सामान्य हो जाएंगे, फिर भी यह अध्ययन करने का समय आ गया है कि विमुद्रीकरण का आदेश देने वाले अन्य देशों का अनुभव कैसा रहा है। चूंकि भारत को भी अतीत में विमुद्रीकरण करने का अनुभव है, इसलिए अपने ही अनुभव से शुरूआत करना बेहतर होगा।
1978 में जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे तो केवल 1000 रुपए के करंसी नोटों का विमुद्रीकरण किया गया था। इसने 2 प्रतिशत से भी कम आबादी को प्रभावित किया था क्योंकि उन दिनों 1000 रुपए का नोट ज्यादा प्रचलित नहीं था। यदि उस समय के इस नोट का वास्तविक कीमत की दृष्टि से आज के 1000 रुपए के नोट से मुकाबला किया जाए तो उसकी कीमत 12000 रुपए बनती है। इन नोटों की संख्या कम होने का नतीजा था कि इनको बंद करने का आम आदमी पर मुश्किल से ही कोई प्रभाव पड़ा था। स्पष्ट बात तो यह है कि उन दिनों मुश्किल से ही कोई ऐसा आदमी मिलता था जिसने 1000 रुपए का करंसी नोट देखा हो। इसलिए इनको बंद करने के फैसले से आम आदमी के जीवन में कोई अंतर नहीं आया था। क्या उस समय के विमुद्रीकरण ने काले धन के प्रवाह पर कोई विपरीत प्रभाव डाला था? वास्तविकता सबके सामने है।
अब की बार 500 व 1000 के जिन करंसी नोटों का विमुद्रीकरण किया गया है वे कुल परिचालित करंसी का 86 प्रतिशत बनते हैं। यही कारण है कि विमुद्रीकरण ने दिहाड़ीदार मजदूरों व ठेलेवालों सहित वस्तुत: हर किसी को बुरी तरह प्रभावित किया है।
जहां तक विमुद्रीकरण का रास्ता अपनाने वाले अन्य देशों के अनुभव का संबंध है, एक बात प्रमुखता से सामने आती है कि इन सभी देशों के शासक तानाशाह थे और इनमें से प्रत्येक देश व्यापक उथल-पुथल में से गुजर रहा था। मिखाइल गोर्बाचेव के अन्तर्गत पूर्व सोवियत यूनियन ने जनवरी 1991 में काले धन की अर्थव्यवस्था पर अंकुश लगाने के लिए उच्च कीमत के रूबल करंसी नोटों को बंद कर दिया था। ये नोट 100 और 50 रूबल के थे जोकि कुल परिचालित करंसी का केवल एक-तिहाई बनते थे। फिर भी इन सुधारों से मुद्रास्फीति पर अंकुश नहीं लग पाया था और सोवियत यूनियन की पूर्ण अर्थव्यवस्था ही चौपट हो गई थी। उसी वर्ष गोर्बाचेव को इस नोटबंदी से पैदा हुई स्थिति के कारण ही राजपलटे का सामना करना पड़ा था और अंततोगत्वा सोवियत यूनियन के टुकड़े-टुकड़े हो गए।
उत्तर कोरिया के पूर्व तानाशाह किम जोंग इल ने 2010 में ‘सुधारों’ की शुरूआत की थी जिसके अन्तर्गत उसने पुरानी करंसी के दो जीरो उड़ा दिए थे। इसकदम ने गम्भीर समस्याओं को जन्म दिया जैसे कि खाद्य पदार्थों की भारी कमी तथा कीमतों में बेतहाशा वृद्धि।
1993 में अफ्रीकी देश जायरे के तत्कालीन तानाशाह माबुतु सेसे सीको ने विमुद्रीकरण का आदेश जारी किया, जिसने वास्तविक रूप में उच्च मुद्रास्फीति का मार्ग प्रशस्त किया और डालर की तुलना में जायरे की करंसी धराशायी हो गई। गृहयुद्ध छिड़ गया जिसके फलस्वरूप 1997 में माबुतु को सत्ता से खदेड़ दिया गया।
1987 में म्यांमार ने भी ऐसा ही पंगा लिया था जब सत्तारूढ़ सैन्य शासकों की टोली ने इसकी 80 प्रतिशत करंसी को निष्प्रभावी कर दिया था। इस कदम से आॢथक अफरा-तफरी फैल गई और व्यापक जनाक्रोश फैल गया, जिसके विरुद्ध चले दमनचक्र में सैंकड़ों लोग मारे गए।
दो अन्य देशों घाना और नाइजीरिया ने भी नोटबंदी का पंगा लिया था लेकिन दोनों ही काले धन और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में बुरी तरह विफल रहे थे। इन सभी देशों में से कोई भी भारत की तरह स्थिर नहीं था और न ही हमारी तरह उनकी अर्थव्यवस्थाएं तेजी से विकास कर रही और गुंजायमान थीं।
दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इन दावों पर गम्भीर आशंकाएं व्यक्त की हैं कि मोदी सरकार का विमुद्रीकरण का कदम काले धन पर काफी हद तक अंकुश लगाएगा। उन्होंने इस तथ्य की ओर इंगित किया है कि नकदी के रूप में तो काले धन का एक बहुत छोटा-सा अंश ही उपलब्ध है क्योंकि आम तौर पर काले धन को रियल एस्टेट एवं सोने जैसी अन्य सम्पत्तियों में बदल दिया जाता है। यहां तक कि जिन लोगों ने करंसी नोट अपने सूटकेसों या बोरों में भर कर रखे हुए थे उन्होंने भी अब तक इसको सफेद धन में बदलने का जुगाड़ कर लिया होगा।
सरकार के इन दावों की सत्यता तो केवल आने वाला समय ही सिद्ध कर सकेगा कि विमुद्रीकरण से जाली करंसी का अंत हो जाएगा या इससे देश भर में चल रही आतंकी लहरों का वित्त पोषण समाप्त हो जाएगा।
देश की वर्तमान आॢथक स्थिति तथा दुनिया भर में सबसे उच्च वृद्धि दरों में से एक के चलते व्यवस्था में अड़ंगा लगने से कई अनिश्चितताएं पैदा हुई हैं और अर्थव्यवस्था की रफ्तार घटने की संभावना है, जैसा कि एक जाने-माने अर्थशास्त्री ने इंगित किया है-विमुद्रीकरण की कार्रवाई तेज गति से भागती जा रही कार के टायर पर गोली दागने के तुल्य है।