Edited By ,Updated: 06 Jun, 2019 04:53 AM
अगर दो बंगलाभाषी उच्च पदासीन लोग आपस में मिलें, तो वे धाराप्रवाह बंगाली में बात करते हैं। यही हाल तमिल, तेलुगु, उडिय़ा, मलयालम, मराठी भाषी लोगों का है। वे अपनी मातृभाषा का बहुत आदर करते हैं। उसे हेय दृष्टि से नहीं देखते। न ही यह भावना काम करती है कि...
अगर दो बंगलाभाषी उच्च पदासीन लोग आपस में मिलें, तो वे धाराप्रवाह बंगाली में बात करते हैं। यही हाल तमिल, तेलुगु, उडिय़ा, मलयालम, मराठी भाषी लोगों का है। वे अपनी मातृभाषा का बहुत आदर करते हैं। उसे हेय दृष्टि से नहीं देखते। न ही यह भावना काम करती है कि मातृभाषा में बोलने के कारण कहीं अनपढ़ न कहलाने लगें। वे इस बात की परवाह भी नहीं करते कि उनके बीच में अगर कोई ऐसा खड़ा है जिसे उनकी भाषा नहीं आती, तो वे कहते हैं कि यह उसकी समस्या है कि उसे क्यों नहीं आती। इसके अलावा यह बात भी नहीं है कि चूंकि उनका नौकर भी वही भाषा बोलता है तो उन्हें उस भाषा से बचना चाहिए।
fहंदी वाले लोगों में यह भावना प्रबलता से पाई जाती है कि कामगार जो भाषा बोलें, उस भाषा से दूरी बनाकर रखनी चाहिए। मशहूर फिल्मकार महेश भट्ट ने एक बार कहा था कि उनके बच्चे अपने नौकरों से हिंदी में ही बात करते हैं। यह वही महेश भट्ट हैं जिनकी किस्मत ङ्क्षहदी फिल्मों ने ही चमकाई है और सिर्फ वही क्यों, सारे बड़े अभिनेता-अभिनेत्रियां हिंदी फिल्मों से ही रोकड़ा बटोरते हैं लेकिन गीत अंग्रेजी के गाते हैं।
हिंदी जानते, मगर बोलते नहीं
कुछ साल पहले यह लेखिका यूनिसेफ और डब्ल्यू.एच.ओ. द्वारा आयोजित एक कांफ्रैंस में पुड्डुचेरी गई थी। वहां मंच पर बड़े-बड़े डाक्टर, सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग और पत्रकार उपस्थित थे। कांफ्रैंस अंग्रेजी में शुरू हुई लेकिन थोड़ी ही देर में सारी बातचीत तमिल में होने लगी। हालांकि दिक्कत हुई क्योंकि समझ में कुछ नहीं आ रहा था लेकिन अपनी भाषा के प्रति उन लोगों का ऐसा लगाव देखकर अच्छा भी लगा और हिंदी की दोयम दर्जे की नागरिकता भी याद आई क्योंकि दिल्ली में मंच पर बैठे लोग अक्सर हिंदी में नहीं बोलते। हिंदी जानते हैं, लेकिन उसे बोलना, उसमें बातचीत करना, बहस में भाग लेना अपनी तौहीन समझते हैं। बल्कि कई बार बहुत गर्वपूर्वक यह कहते सुने जाते हैं -यू नो, माई हिंदी इज नाट दैट गुड।
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि किसी भाषा को न जानने पर गर्व महसूस किया जाए। इस पर तो शर्म आनी चाहिए। क्या किसी अन्य भाषा-भाषी को इस बात पर गर्व करते देखा-सुना है कि उसे अपनी भाषा नहीं आती? हिंदी क्षेत्रों में यह बात कहीं गहरे बैठा दी गई है कि जिंदगी में कुछ करना है, तो अंग्रेजी ही जानो। हिंदी का क्या है, वह तो गरीब-गुरबे, मजदूर, कामवालों, रिक्शा वालों और घर की भाषा है और घर की मुर्गी दाल बराबर ही होती है। अंग्रेजी जानना आज के वक्त में जरूरी है, मगर अंग्रेजी जानते हुए भी ङ्क्षहदी बोली -बरती जा सकती है। जीवन में एक के मुकाबले दो भाषाएं हमेशा कारगर होती हैं। सरकार ने त्रिभाषा फार्मूला यही सोचकर बनाया होगा।
हिंदी भाषी राज्यों में भी दुर्दशा
यह हिन्दी की दुर्दशा ही तो है कि उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्य में 10वीं की परीक्षा में 10 लाख बच्चे हिंदी में फेल हो गए। बेचारी हिंदी जो पचपन करोड़ लोगों की भाषा है, वह अन्य भाषा-भाषियों से तो बिना कारण पिटती ही है, अपने लोगों के हाथों से भी मार खाती है। सब लोग अपनी भाषा के प्राइड या उस पर गर्व की बातें करते सुने जाते हैं लेकिन शायद ही कोई हिंदी वाला यह कहता नजर आता है कि उसे ङ्क्षहदी पर गर्व है। इतने बड़े भूभाग की भाषा होने पर भी हिंदी पर गर्व न होकर शर्म क्यों आती है?
एक तरफ बातें कही जाती हैं कि हिंदी लगातार बढ़ रही है लेकिन वह मामूली बातों पर पिट भी रही है। जल्लीकट्टू का मसला हो, जिसका हिंदी से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था लेकिन पिटाई हिंदी की हुई। कर्नाटक में इलैक्शन के दौरान मैट्रो में हिंदी लिखने पर हिंदी के खिलाफ पूरी मुहिम चला दी गई। क्या आपने आज तक हिंदी क्षेत्रों में भाषा के नाम पर किसी की पिटाई होते, कोई दंगा होते सुना है? यह एक अच्छी बात भी है। यदि हम एक देश की बात करते हैं, तो उसमें रहने वालों को कोई भी भाषा बोलने और कहीं भी रहने का अधिकार है मगर हिंदी वालों की उदारता उनके कुछ काम नहीं आती। वे लगातार आलोचना झेलते हैं। जगह-जगह से मारपीट कर भगाए जाते हैं और अफसोस कि स्वयं हिंदी वाले इन घटनाओं पर मौन धारण कर लेते हैं।
सच यही है कि हिंदी की दुर्दशा खुद उसके लोगों ने की है। पहले अपने अंदर झांकना चाहिए कि अपनी भाषा का हम खुद कितना सम्मान करते हैं, उसकी बढ़ौत्तरी के लिए क्या करते हैं। हिंदी बोलने में हम शरमाएं और दूसरे से उम्मीद करें तो ऐसी उम्मीदें कभी पूरी नहीं होतीं। पहले खुद तो अपनी भाषा पर गर्व कीजिए, तभी उसकी रक्षा कर सकते हैं।-क्षमा शर्मा