मुखर्जी के बलिदान के 66 वर्ष बाद पूरा हुआ उनका ‘संकल्प’

Edited By ,Updated: 10 Aug, 2019 01:16 AM

his  oath  completed 66 years after mukherjee s sacrifice

23 (गतांक से आगे)जून को कश्मीर की जेल में बड़ी संदिग्ध परिस्थिति में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान हो गया। पूरी जेल में सन्नाटा छा गया। लगभग 300 कार्यकत्र्ता इकट्ठे हुए। नारे लगाते रहे, जेल में इधर-उधर जाने की कोशिश की। जेल अधीक्षक के कार्यालय...

23 (गतांक से आगे)जून को कश्मीर की जेल में बड़ी संदिग्ध परिस्थिति में डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान हो गया। पूरी जेल में सन्नाटा छा गया। लगभग 300 कार्यकत्र्ता इकट्ठे हुए। नारे लगाते रहे, जेल में इधर-उधर जाने की कोशिश की। जेल अधीक्षक के कार्यालय के बाहर काफी देर तक नारे लगाते रहे। बाद में सब को इकट्ठे करके प्रमुख नेताओं ने भाषण दिए और कहा कि डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। 

जेल में सत्याग्रहियों की संख्या बढऩे लगी तो जेल अधिकारियों ने यह निर्णय लिया कि 20 वर्ष की आयु से कम के युवकों को बच्चों के लिए बनी विशेष हिसार जेल में भेजा जाए। पूछने पर हम तीनों ने कहा हम तो 24-25 वर्ष के हैं। कोई भी अपने आप को 20 वर्ष से कम बताने को तैयार नहीं था क्योंकि जेल की उस मस्ती के वातावरण को कोई छोडऩा नहीं चाहता था। जेल में डाक्टर को बुलाया गया। सब के दांत देखे गए, कुछ और जानकारी ली और हम 30 सत्याग्रहियों को हिसार जेल भेज दिया गया। रास्ते में हर रेलवे स्टेशन पर नारे लगाते लोग इकट्ठे हो जाते। कई जगह तो हमने भाषण करना शुरू कर दिया, साथ चल रहे पुलिस के सिपाही कभी रोकते, कभी वे भी तमाशा देखते। सफर लम्बा था। एक-दो जगह पार्टी के कार्यकत्र्ताओं की तरफ से भोजन का प्रबंध भी किया गया। 

जेल के कपड़े पहनने से इंकार 
जून का महीना, हिसार की तपती गर्मी और पालमपुर से पहली बार गए हुए हम गर्मी में तपने लगे। कुछ और सत्याग्रही भी आए और सब को अलग-अलग बैरकों में दूर-दूर रखा जाता था। फिर जेल के कपड़े पहनने के आदेश हुए। हम सब ने इंकार कर दिया। मंडी कालेज के एक विद्यार्थी मंत्रिणी प्रसाद हमारे साथ थे। वह हमारे प्रमुख नेता बन गए। उन्होंने कहा हम में से कोई अपराधी नहीं है। हम राजनीतिक कैदी हैं। हम जेल के कपड़े नहीं पहनेंगे। कई दिन तक जेल के कपड़े नहीं पहनने के बाद हमें एक खुली जगह बुला कर विवश किया जाने लगा। 

संघर्ष हुआ, हमारी खूब पिटाई की गई और एक-एक को पकड़ कर जेल की छोटी कोठडिय़ों में अलग-अलग बंद कर दिया गया। हम पकड़ में नहीं आते थे, दौड़ते थे, फिर पकड़े जाते थे। सब थकावट से चूर अपनी चोटों को सहलाते अलग-अलग कोठडिय़ों में बंद थे। खाना नहीं दिया गया था। लगभग आधी रात को प्यास लगी। सब चिल्लाने लगे। हालत बहुत खराब हो गई। जेल की पानी की टंकी को ठीक करने के लिए कोई आया। उसने देवदूत बनकर हमारी बात को सुना और एक-एक को लगभग दो घंटे पानी पिलाता रहा। दूसरे दिन हिसार नगर में पता लगा। हमारे नेता जेल में आए और उनके कहने पर हमें छोड़ दिया गया। हम पूरा समय निक्कर और बनियान में रहे। 

जेल का जीवन बड़ा कठिन था। हमें तो दाल और एक बड़ा फुलका, ठंडा और जला हुआ मिलता था। गुड़ और चने दोपहर को मिलते थे। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं दिया जाता था। घर की याद आती थी। मुझे परिवार, बहन और सब कुछ याद आता था। परंतु सब कार्यकत्र्ताओं में देश सेवा का ज्वलंत उत्साह था। हम सब मस्ती में रहते थे। हमारी सजा के 6 महीने पूरे हुए तो हम तीनों को जेल से रिहाई के लिए लाया गया। रिहाई के समय कैदी को अपने घर तक जाने के लिए किराया और रास्ते का खर्च दिया जाता था। हमें कुछ नहीं दिया गया। पूछने पर कहा कि आपका घर यहीं पर है। अधिकारी ने मजाक में कहा अभी गेट खोलूंगा और आपका घर आ जाएगा। हमें सत्याग्रह करने से पहले यह कहा जाता था कि हम अपने घर का पूरा पता नहीं लिखवाएं। कई बार पुलिस परिवार को परेशान करती थी। हमने पिता का नाम परम पिता परमेश्वर और घर भारत वर्ष बताया था। 

8 महीनों बाद चाय पी
आते हुए यात्रा के लिए पता नहीं किस हिसाब से जेल वालों ने हमें 9-9 आने दिए थे। गेट खुला, अधिकारियों ने कहा लो आपका घर आ गया। हम घबराहट में एक-दूसरे को देखते हुए आगे चल पड़े। अधिकारियों ने जाते हुए कहा था कि नगर में पार्टी के एक अधिकारी गणेशी लाल वकील हैं, हो सकता है कि वह तुम्हारा प्रबंध करवा दें। हम उनके घर का पता पूछते हुए आगे चलने लगे। सामने चाय की दुकान देखी तो मन ललचा गया। 8 महीने से चाय नहीं मिली थी।  हम सब 8 महीने चाय को तरसते रहे थे। मैंने कहा सबसे पहले चाय पीते हैं। हमने कहा हम तीनों को 9-9 आने की चाय पिला दो। दुकानदार हैरान हुआ। उसे सारी बात बताई। बड़ी देर तक हम चाय पीते रहे। उस दिन उस चाय का जो मजा आया था वह न पहले कभी आया और न बाद में कभी आएगा। उसके बाद गणेशी लाल जी के घर पर आए। रात को ठहराया और दूसरी सुबह हमारे जाने के लिए किराया और रास्ते का खर्चा देकर गाड़ी में बिठा दिया। 

अब जेल तो छूट गई थी, सामने घर और परिवार दिखाई दे रहा था और जीवन का अनिश्चित भविष्य। दो दिन की यात्रा के बाद घर पहुंचा। मां गुमसुम बैठी थी। सामने बहन पुष्पा आई और एकदम कहने लगी-‘‘भइया मेरे टमाटर कहां हैं’’ और फिर वह मेरे गले लग गई। आंखें सजल हो गईं। एकदम मां आई, मुझे बड़े प्यार से गले लगा लिया। सारे गिले-शिकवे आंसुओं में बह गए। धीरे-धीरे जीवन सामान्य होने लगा। कुछ दिन के बाद फिर पंडित अमर नाथ जी के पास गया। वह मुझे बहुत प्यार करते थे। गुस्से हुए। वह मुझे सदा कहते थे-देश सेवा सदा करते रहो लेकिन पहले अपनी आजीविका का प्रबंध कर लो। मुझे फिर पालमपुर के सनातन धर्म स्कूल में अध्यापक की नियुक्ति दे दी। जीवन आगे बढऩे लगा। 

मुखर्जी की मृत्यु की जांच की मांग 
डा. मुखर्जी के बलिदान के बाद उनकी माता योग माया मुखर्जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू जी को कुछ पत्र लिखे। अखबारों में छपे। बड़े मार्मिक व तर्क से भरे पत्र थे। उन दिनों उनकी खूब चर्चा हुई। मैं उन पत्रों की कुछ पंक्तियां इस लेख में पाठकों को बताना चाहता था। बहुत प्रयत्न किया पर पुरानी फाइलों में 66 वर्ष पुरानी वह सामग्री नहीं मिली। योग माया मुखर्जी अपने पुत्र की संदिग्ध मृत्यु की जांच की मांग करती रहीं। उस समय सारे देश में यह मांग उठी, पर सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। मुझे याद है कि पत्र में योग माया जी ने लिखा था- ‘‘मेरे बेटे ने गिरफ्तारी के बाद कश्मीर में प्रवेश करते हुए कहा था-यद्यपि मैं एक कैदी के रूप में प्रवेश कर रहा हूं परंतु मैं अब कश्मीर को लेकर ही भारत में प्रवेश करूंगा-मुझे विश्वास है मेरे बेेटे का संकल्प अवश्य पूरा होगा।’’

वह संकल्प तो पूरा हुआ पर मुखर्जी के बलिदान के 66 वर्ष के बाद। इस ऐतिहासिक निर्णय से मैं कितनी अधिक प्रसन्नता अनुभव कर रहा हूं, इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। पूरे देश में मेरी तरह उस सत्याग्रह में जेल गए सभी साथी इसी प्रकार की प्रसन्नता का अनुभव कर रहे होंगे। पता नहीं कहां कितने ऐसे लोग बाकी हैं। हिसार जेल का मेरा एक भी साथी आज जीवित नहीं। काश! मैं उस समय के सभी जीवित साथियों को इकट्ठे कर पाता, कितना आनंद आएगा हम सबको इकट्ठा होकर।-शांता कुमार

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