आतंकवाद पर ऐतिहासिक फैसला

Edited By ,Updated: 17 Jun, 2021 05:16 AM

historic verdict on terrorism

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले से सरकार और पुलिस की धज्जियां उड़ा दी हैं। दिल्ली पुलिस ने पिछले साल मई में 3 छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार कर लिया था। एक साल उन्हें जेल में

दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले से सरकार और पुलिस की धज्जियां उड़ा दी हैं। दिल्ली पुलिस ने पिछले साल मई में 3 छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार कर लिया था। एक साल उन्हें जेल में सड़ाया गया और उन्हें जमानत नहीं दी गई। अब अदालत ने उन तीनों को जमानत पर रिहा कर दिया है। जामिया मिलिया के आसिफ इकबाल तन्हा, जवाहरलाल नेहरू वि.वि. की देवांगना कलीता और नताशा नरवल पर आतंकवाद फैलाने के आरोप थे। 

उन्हें कई छोटे-मोटे अन्य आरोपों में जमानत मिल गई थी लेकिन आतंकवाद का यह आरोप उन पर आतंकवाद-विरोधी कानून (यू.ए.पी.ए.) के अन्तर्गत लगाया गया था। ट्रायल कोर्ट में जब यह मामला गया तो उसने इन तीनों की जमानत मना कर दी लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय ने उन्हें न सिर्फ जमानत दे दी बल्कि सरकार और पुलिस की मुर मत करके रख दी। 

दिल्ली उच्च न्यायालय अपने इस ऐतिहासिक फैसले के लिए बधाई का पात्र है। उसने न्यायपालिका की इज्जत में चार चांद लगा दिए हैं। लेकिन उसने कई बुनियादी सवाल भी खड़े कर दिए हैं। पहला तो यही कि उन तीनों को साल भर फिजूल जेल भुगतनी पड़ी, इसके लिए कौन जि मेदार है? पुलिस वाले या वे नेता, जिनके इशारों पर उन्हें गिर तार किया गया है? या वह जज जिसने इनकी जमानत रद्द कर दी? दूसरा, इन तीनों व्यक्तियों को फिजूल में जेल काटने का कोई हर्जाना मिलना चाहिए या नहीं? तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। वह यह कि देश की जेलों में ऐसे हजारों लोग सालों सड़ते रहते हैं, जिनका कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है और जिन पर मुकद्दमे चलते रहते हैं। 

शायद उनकी संख्या सजाया ता कैदियों से कहीं ज्यादा है। बरसों जेल काटने के बाद जब वे निर्दोष रिहा होते हैं तो वह रिहाई भी क्या रिहाई होती है? क्या हमारे सांसद ऐसे कैदियों पर कुछ कृपा करेंगे? वे अदालती व्यवस्था इतनी मजबूत क्यों नहीं बना देते कि कोई भी व्यक्ति दोष सिद्ध होने के पहले जेल में एक माह से ज्यादा न रहे।-डॉ.वेदप्रताप वैदिक

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