इतिहास को ‘उद्देश्यपूर्ण’ तरीके से ही देखना चाहिए

Edited By Pardeep,Updated: 14 Jul, 2018 04:11 AM

history should be seen in  purposeful  manner

मेरा मानना है कि इतिहास से भारतीय सबक नहीं लेते। यही कारण है कि हमारे शासक अतीत की गलतियां दोहराते रहते हैं जिसका नुक्सान राष्ट्र तथा लोगों को होता है। जो लोग इतिहास के सबकों को नजरअंदाज करते हैं उनकी उन्हें दोहराने के लिए आलोचना होती है। दरअसल...

मेरा मानना है कि इतिहास से भारतीय सबक नहीं लेते। यही कारण है कि हमारे शासक अतीत की गलतियां दोहराते रहते हैं जिसका नुक्सान राष्ट्र तथा लोगों को होता है। जो लोग इतिहास के सबकों को नजरअंदाज करते हैं उनकी उन्हें दोहराने के लिए आलोचना होती है। दरअसल इतिहास से सही इनपुट देश के सामने समय-समय पर आने वाले पेचीदा मुद्दों और समस्याओं पर निर्णय प्रक्रिया की गुणवत्ता में अंतर ला सकता है। 

इतिहास कोई खेल नहीं है। किसी राजनीतिक समूह अथवा अन्य के अनुकूल बनाने के लिए इसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। न ही किसी विशेष नीति, हित, विचारधारा अथवा राष्ट्रवाद के पूर्व कल्पित दर्शन को प्रोत्साहित करने के लिए इसके आधारभूत तथ्यों से छेड़छाड़ की जा सकती है। हालांकि इसके पुन: प्राप्त तथ्य राष्ट्र के सकल उद्देश्य नैटवर्क के साथ मिश्रित किए जाते हैं। 

यह कोई आसान काम नहीं है। उदाहरण के लिए यूरोपियन लेखकों ने अपनी जरूरतों तथा प्राथमिकताओं के अनुसार भारतीय इतिहास के कुछ साम्प्रदायिक पहलुओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। यह तभी से सच है जब अरबों ने 712 ईस्वी में सिंध पर कब्जा किया था। 13वीं शताब्दी में और यहां तक कि उससे पहले इस बात का पता चल गया था कि हिंदूवाद तथा इस्लाम में बहुत कुछ एक समान है। उसी समय एक रुझान था, जैसा कि लखनऊ के संतोष के. बनर्जी ने इंगित किया है, कि हिंदुओं तथा तुर्क अथवा मुगल शासकों को अलग रखना है। 

इतिहास से आशा की जाती है कि वह इन दोनों तथ्यों को दर्ज करे। इसे न तो महमूद गजनी, मलिक कफूर को छोडऩा चाहिए और न ही मोइनुद्दीन चिश्ती, अब्दुल रहीम खान-ए-खाना, कबीर, मलिक मोहम्मद जायसी, अकबर, अबुल फजल तथा दारा शिकोह जैसों को जिन्होंने साम्प्रदायिक अवरोधों को तोडऩे में बड़ी भूमिका निभाई। यहां मुद्दा यह है कि जब भारतीय साम्प्रदायिक कट्टरता के दुष्प्रभाव के प्रति जागरूक हो जाएंगे तभी वे भारतीयता की एक नई चेतना विकसित कर सकेंगे। धर्म को लेकर खूनी युद्धों से उकता कर ही यूरोप धार्मिक सहनशीलता तथा धर्मनिरपेक्षता की ओर मुड़ा। फिर भी इतिहासकारों ने कभी भी पाठ्य पुस्तकों से युद्ध  के 30 वर्षों को निकालना जरूरी नहीं समझा। 

तथ्य पवित्र हैं। उन्हें इतिहास के दोषपूर्ण दृष्टिकोण से तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। यह विनाशकारी होगा। ऐसा ही इसके प्रति भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के कारण होगा। भावनाएं सोच को धुंधला कर भ्रांतियां उत्पन्न करती हैं। भ्रांतियां तथा ऐतिहासिक तथ्य प्राकृतिक दुश्मन हैं। कम से कम कुछ भारतीय ‘घटनाक्रम’ आंशिक तौर पर भ्रमपूर्ण हैं। मैं इतिहास के इन पुख्ता तथ्यों को हाल ही में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के कुछ राष्ट्रीय नेताओं द्वारा इंदिरा गांधी के जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक संविधान की धारा 352 के अंतर्गत लगाए 21 महीनों के आपातकाल के दिनों के संदर्भ में की गई टिप्पणियों आदि के परिप्रेक्ष्य में याद कर रहा हूं। इंदिरा के अधिकतर विरोधियों को जेलों में डाल दिया गया था। प्रैस पर सैंसर लगा दिया गया था। कई अन्य मानवाधिकारों का समय-समय पर उल्लंघन किया गया जिनमें संजय गांधी के नेतृत्व में जबरन नसबंदी अभियान शामिल है। 

नाजी जर्मनी में एडोल्फ हिटलर के शासन की तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल से तुलना करते हुए मोदी मंत्रिमंडल के एक बहुत प्रतिष्ठित तथा तर्कशील मंत्री अरुण जेतली ने 25 जून 2018 को कहा था कि दोनों ने ही ‘‘लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने के लिए एक गणतांत्रिक संविधान का इस्तेमाल किया था।’’ जेतली ने कहा कि आलोचना को दबाने के लिए इंदिरा गांधी हिटलर से भी आगे निकल गईं क्योंकि उन्होंने ‘‘देश को एक ‘वंशवादी लोकतंत्र’ में बदल दिया। उन्होंने मीडिया में संसदीय कार्रवाई के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया।’’ 

कोई भी सूझवान व्यक्ति आपातकाल के उन काले पहलुओं का बचाव नहीं करेगा। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने सही सुझाव दिया है कि युवाओं को भारत के इतिहास के काले खंड के प्रति संवेदनशील बनाने की जरूरत है ताकि वे स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र की कीमत समझ सकें। ‘लव जेहाद’ तथा ‘गौ रक्षा’ और यहां तक कि खाने-पीने की आदतों के नाम पर असहिष्णुता के बढ़ते स्तर की आलोचना करते हुए उपराष्ट्रपति ने सही कहा है कि किसी भी उस व्यक्ति को भारतीय नहीं कहा जाना चाहिए जो अन्य नागरिकों की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है। बहुत खूब कहा श्रीमान उपराष्ट्रपति नायडू जी। 

हालांकि मेरे बिंदू साधारण हैं: ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का आकलन केवल एक निश्चित समय तथा विपक्षी सत्ताधारी संगठनों के राजनीतिक आरोपों के आधार पर नहीं करना चाहिए। राजनीतिज्ञ न तो जज होते हैं और न ही प्रमाणित इतिहासकार, हालांकि उन्हें व्यक्तियों, मुद्दों तथा घटनाओं पर अपने विचार प्रकट करने का पूरा अधिकार होता है। इंदिरा गांधी तथा उनके शासन को चयनित तरीके से देखने की बजाय समग्रता से देखने की जरूरत है। यहां उद्देश्य महत्वपूर्ण है। मैं इंदिरा को हिटलर की संज्ञा देने के खिलाफ हूं। इसी तरह मैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को औरंगजेब बताने का समर्थन नहीं करता, जैसा कि कुछ कांग्रेस नेता कहते हैं। यद्यपि मैं संघ परिवार के नेताओं से यह कहना चाहता हूं कि जनता के एक वर्ग के खिलाफ उनके समर्थकों द्वारा उत्पन्न डर तथा असहिष्णुता के वातावरण से उनका कोई भला नहीं  होगा। उन्हें कम से कम वेंकैया नायडू के समझदारीपूर्ण शब्दों को सुनना चाहिए। 

अपने राजनीतिक उतार-चढ़ावों वाले लम्बे करियर के दौरान इंदिरा ने जनता में अपने करिश्माई आकर्षण का प्रदर्शन किया। उन्हें गरीब, दलित, महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों जैसे वंचित वर्गों का प्रेम प्राप्त था, उनके लिए कांग्रेस नेता तब इंदिरा अम्मा थीं, जो मदर इंडिया का मानवीयकरण था। यहां हमें खुले दिल से इस बात को स्वीकार करना होगा कि अपने आपातकाल के लगभग 2 वर्षों बाद इंदिरा गांधी को सम्भवत: अपनी गलतियों का एहसास हुआ और उन्होंने 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटा दिया। नि:संदेह इस समय के दौरान  ‘ज्यादतियां’ हुईं। उनके बेटे सहित करीबी सहयोगियों ने उन्हें गलत सलाह दी और उन्होंने आंख मूंद कर उन पर विश्वास किया। वह मूल रूप से एक संवेदनशील व्यक्ति तथा दिल से लोकतांत्रिक थीं। उन्होंने हिटलर के रास्ते, जिसका परिणाम दूसरे विश्वयुद्ध के रूप में निकला, पर चलने की बजाय आपातकाल हटाकर यह साबित किया।-हरि जयसिंह

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