सताने वाले के साथ कोई कैसे अर्थपूर्ण ढंग से जुड़ सकता है

Edited By ,Updated: 27 Jun, 2022 03:53 AM

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हमारी सुप्रीर्मकोर्ट के न्यायाधीशों में से एक ने विदेश में भाषण देते समय एक महत्वपूर्ण लेकिन चौंकाने वाली बात कही। उनके भाषण की रिपोर्ट करने वाली एक कानूनी वैबसाइट ने उनकी कहानी को

हमारी सुप्रीर्मकोर्ट के न्यायाधीशों में से एक ने विदेश में भाषण देते समय एक महत्वपूर्ण लेकिन चौंकाने वाली बात कही। उनके भाषण की रिपोर्ट करने वाली एक कानूनी वैबसाइट ने उनकी कहानी को शीर्षक दिया ‘अगर अदालतों को नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए एकमात्र अंग माना जाता है तो इसका परिणाम फिसलन होगा’। 

न्यायाधीश, (मैं उनका नाम नहीं लूंगा क्योंकि पहचान महत्वपूर्ण नहीं है, यह विचार है जिसे हमें समझने का प्रयास अवश्य करना चाहिए) को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि देश में बढ़ती मुकद्दमेबाजी की प्रवृत्ति राजनीतिक संवाद में धैर्य की कमी का संकेत है। इसका परिणाम एक फिसलनदार ढलान है जहां न्यायालयों को अधिकारों की प्राप्ति के लिए राज्य का एकमात्र अंग माना जाता है, विधायिका और कार्यपालिका के साथ निरंतर जुड़ाव की आवश्यकता को समाप्त करना। 

शब्द पर्याप्त स्पष्ट और प्रत्यक्ष हैं तो इसका अर्थ क्या है? न्यायाधीश कह रहे हैं कि यह महत्वपूर्ण है कि नागरिक अपने अधिकारों के लिए सरकार और निर्वाचित प्रतिनिधियों के साथ जुड़ें। इस प्रक्रिया में न्यायालय भी महत्वपूर्ण हैं लेकिन वे एकमात्र स्थान नहीं हैं जहां अधिकारों का बचाव या दावा किया जा सकता है। 

वास्तविकता यह है कि कितने भी लोकतंत्र कार्यशील हैं और न्यायप्रणाली, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय उस इमारत का केवल एक हिस्सा है, जिसके साथ नागरिक जुड़े हैं। अमरीका में सुप्रीमकोर्ट साल में केवल 80 मामलों की सुनवाई और उनका निपटारा करती है। भारत में सुप्रीमकोर्ट में 70,000 मामले लंबित हैं। यह 2 न्याय प्रणालियों के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर की ओर इशारा करता है, हालांकि हमारी न्याय प्रणाली कई मामलों में अमरीकी न्याय प्रणाली पर आधारित है। 

1949 में यह निर्णय लिया गया कि भारत में एक सुप्रीमकोर्ट होगी, जिसमें 8 से अधिक न्यायाधीश नहीं होंगे (अनुच्छेद 124)। अमरीका के पास 9 हैं। भारत में आज 30 से अधिक हैं। अमरीकी अदालत एक साथ मामलों की सुनवाई करती है। भारत की अदालत में कई छोटी पीठ (बैंच) हैं जो जमानत के मामलों से लेकर सम्पत्ति विवादों तक हर तरह के मामलों की सुनवाई करती हैं। अमरीका में ऐसे मामलों का निपटारा निचली न्यायपालिका करती है।

भारत में जिस तरह की न्याय प्रणाली की कल्पना की गई थी उससे कुछ अलग विकसित करनी पड़ी है। इसे हम एक तरफ छोड़ दें और फिर देखें कि न्यायाधीश ने क्या कहा था। भारत में न्याय प्रणाली का नागरिकों के साथ भारी जुड़ाव होने के बावजूद, कम से कम संख्या के अनुसार, न्यायाधीश यह महसूस करते हैं कि मुकद्दमेबाजी की ओर रुझान ‘बढ़’ रहा है तथा राजनीतिक प्रक्रिया के साथ पर्याप्त मात्रा में जुड़ाव नहीं है। मेरे विचार से यह सही विश्लेषण है। प्रश्र यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? 

इसका उत्तर यह प्रतीत होता है कि भारत में राज्य आवेश में चल रहा है। यदि इसे नियंत्रित करने वाली सरकार तथा राजनीतिक दल बिना मुकद्दमे तथा दोष सिद्धि के लोगों के घरों को नष्ट करना चाहता है तो वे लोग कहां जाएंगे? वे एक जगह जा सकते हैं, कार्यपालिका में, जो हिंसा की अपराधी है। वे विधायिका में भी जा सकते हैं, जिसका अर्थ होगा विपक्षी दलों को अपने साथ जोडऩा और सरकार को कारण बताने के लिए बाध्य करना। क्या भारत में ऐसा नहीं हो रहा? निश्चित रूप से ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि जो लोग अदालत में जा रहे हैं उनमें नागरिक, नागरिक समाज समूह, कार्यकत्र्ता आदि शामिल हैं जो सरकार से बिल्कुल नहीं जुड़ रहे। लेकिन क्या किया जा सकता है जब प्रभारी राजनीतिक दल का इरादा सताने का हो? कोई कैसे सताने वाले के साथ अर्थपूर्ण ढंग से जुड़ सकता है। 

न्यायाधीश इस पर नहीं बोले। भाषण में कुछ और कहा गया, जिसने उन स्थानों के विस्तार को उचित ठहराया जहां अधिकारों की मांग की जानी चाहिए। न्यायाधीश ने कहा, ‘जहां सर्वोच्च न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, उसे निर्वाचित प्रतिनिधियों की भागीदारी की आवश्यकता वाले मुद्दों को तय करके अपनी भूमिका से आगे नहीं बढऩा चाहिए। ऐसा करना न केवल अदालत की संवैधानिक भूमिका से विचलन होगा, बल्कि एक लोकतांत्रिक समाज की सेवा नहीं करेगा जो अपने मूल में सार्वजनिक विचार-विमर्श, संवाद और नागरिकों के अपने प्रतिनिधियों और संविधान के साथ जुड़ाव के माध्यम से मुद्दों को हल करना चाहिए।’ 

जो कहा गया है उसमें कुछ भी असाधारण नहीं है। स्वस्थ लोकतंत्र में नागरिकों को राज्य के सभी हिस्सों के साथ सार्थक और उत्पादक जुड़ाव करने में सक्षम होना चाहिए। हालांकि यहां इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि न्यायपालिका का एक प्राथमिक कार्य कार्यपालिका के अतिरेक को रोकना और उसे पीछे धकेलना भी है। खास कर तब जब इस तरह के अतिरेक से भारत के संविधान को खतरा हो। 

आज स्थिति यह है कि नागरिकता और चुनावी राजनीति के गुमनाम फंडिंग से जुड़े मामलों का फैसला अदालत ने नहीं किया है। कश्मीरियों की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका भी अनर्णित है।  यह दबाव का स्रोत है जो टिप्पणीकारों और कार्यकत्र्ताओं ने न्यायपालिका पर डाला है जिसका शायद न्यायाधीश उत्तर दे रहे थे। हम में से कई लोगों को ऐसा लगता है कि भारत ने एक निर्विवाद नेता के नेतृत्व वाली एक ही राजनीतिक पार्टी द्वारा नियंत्रित सरकार के नेतृत्व में एक दिशा ले ली है। यह दिशा शायद भारत के संविधान या परम्पराओं अथवा आधुनिकता के अनुरूप नहीं है। 

बेशक विधायिका और कार्यपालिका सहित राज्य के बाकी तंत्र ऐसे स्थान होने चाहिएं जहां नागरिक जा सके और अपने अधिकारों का दावा कर सके लेकिन यह निॢववाद प्रतीत होता है कि इस लड़ाई का प्राथमिक क्षेत्र न्यायप्रणाली में होना चाहिए, जहां न्यायाधीशों को एक बड़े पैमाने पर और दुर्भावनापूर्ण राज्य के खिलाफ नागरिकों के लिए खड़ा होना चाहिए।-आकार पटेल

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