‘यह कैसे दिन आए री मेरी मां’

Edited By ,Updated: 16 Dec, 2020 05:00 AM

how come this day my mother

किसानों का संघर्ष चल रहा है और सारा पंजाब दिल्ली की ओर उमड़ा पड़ा है। किसानों के आंदोलन के अलग-अलग रंग हैं। कई बार मैं आंखें भर लेता हूं और बहुत उदास हो जाता हूं। जब मैं अपने दादा की आयु के बुजुर्ग या फिर दादी की उम्र की माताओं को दिल्ली प्रदर्शन के...

किसानों का संघर्ष चल रहा है और सारा पंजाब दिल्ली की ओर उमड़ा पड़ा है। किसानों के आंदोलन के अलग-अलग रंग हैं। कई बार मैं आंखें भर लेता हूं और बहुत उदास हो जाता हूं। जब मैं अपने दादा की आयु के बुजुर्ग या फिर दादी की उम्र की माताओं को दिल्ली प्रदर्शन के दौरान आंसू बहाते देखता हूं। जब मैं पंजाबियों के बुलंद हौसले देखता हूं तो कुछ-कुछ हौसला भी होने लगता है। 

मिश्रित से भाव पैदा होते हैं और ये मिटते भी रहते हैं। ऐसे दिनों में अपने किसान ताऊ तथा पिता की याद बार-बार आ रही है। दोनों अपनी अंतिम सांस तक खेती करते रहे। पहले हमारे खेत बड़े होते थे और जैसे-जैसे परिवार बढ़ता गया वैसे-वैसे यह खेत सिकुड़ते गए। मेरा बचपन भी खेतों में ही बीता है। अब भी यदि मैं खेतों की ओर जाता हूं तो बचपन के सभी सपने साकार हो जाते हैं। ताऊ और अन्य लोग गांव की चौपाल पर बैठ कर कृषि की बातें करते रहते थे। हमारी चौखट पर दिन-रात किसानों का समूह एकत्रित होता था। 

हम भी उनकी बातें सुन कर खुश होते थे। एक बार मेरे ताऊ ने यह कहा कि, ‘‘जमीन किसान की मां होती है तथा खेत की फसल किसान को बेटों के बराबर होती है। खेत में जाकर किसान फसल का हालचाल ऐसे पूछता है जैसे अपने द्वारा पाले गए बच्चे का पूछता है। यदि उपज खराब हो जाए या सूखे या बाढ़ के कारण खराब हो जाए तो किसान का भी मरना हो जाता है या फिर जब मंडी किसान की उपज का मूल्य नहीं दे पाती तब किसान को मरने के लिए जगह भी नहीं मिलती।’’
करीब चार दशकों पहले अपने ताऊ की बातों को याद कर मन भर आता है। एक दिन मित्र गायक हरिन्द्र संधु गा रहा था जिसके बोल इस प्रकार के थे : 

फसल मरे तां जट्ट मर जांदा
रात मरे तां तारा...
यह बात बिल्कुल सही है कि फसल के मरने पर किसान का भी मरना हो जाता है। बात करते-करते मुझे याद आया कि गर्मी की ऋतु में सारा परिवार हमारे आंगन में चारपाई डालकर वहां सोता था। जब कभी कोई तारा टूटता तो मेरी दादी आह भर कर कहती थी कि, ‘‘आज कोई बदशगुनी हो जाएगी।  तारा टूटना अच्छा नहीं होता।’’ मगर आज तारों के टूटने की गिनती भी नहीं की जा सकती। ऐसे टूट रहे तारों की कोई बात भी नहीं पूछता। 

गीतों से धुंध छंटी
किसानी आंदोलन कुछ ऐसे भी रंग लेकर आया है कि पंजाब के गीत संगीत पर पड़ती धुंध छंटती दिखाई दे रही है। गायकों तथा गीतकारों का काफिला किसानों के साथ-साथ चल रहा है। ऐसा पहली बार हुआ है कि किसानों के हित में इंकलाबी गीत गाए जा रहे हैं। कभी किसानों को विशेषकर जाटों को इन गीतों के द्वारा उनकी आलोचना की जाती थी। समय बदल गया। लहरों के समय करवटें भी बदल रही हैं। पंजाब के गायकों की दहाड़ मात्र दिल्ली ही नहीं बल्कि सारी दुनिया ने सुनी है। 

मैं यह भी बताता जाऊं कि पंजाब का यौवन चिट्टे की बारिश में धुल गया था। अब सारे पंजाब का यौवन दिल्ली बैठा हुआ है और अपने हकों के लिए आवाज दे रहा है। जवानी ने आंदोलन को और गर्माहट दी है। इस डायरीनामा को लिखते हुए बस एक ही दुआ दिल से उठती है कि सब कुछ खैरियत से निपट जाए। दिल्ली से लौटते हुए किसान हंसते तथा संतुष्ट होकर वापस आएं। उनको उनके अधिकार मिलें क्योंकि उन्होंने देश के नागरिकों का पेट भरना है। किसानों को हमारे साहित्य में धरती के रब्ब का रुतबा दिया गया है। यह रुतबा तभी बहाल हो सकेगा यदि किसान का अपना पेट भरा होगा। बड़ी देर से किसान भूखा जी रहा है तथा दुख भी झेल रहा है। ‘‘दिल्ली ये....हमें अच्छे दिन लौटा दे हम तेरे अति धन्यवादी होंगे।’’-मेरा डायरीनामा निंदर घुगियाणवी 
 

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