भारत में कितने वास्तविक किसान हैं

Edited By ,Updated: 21 Apr, 2021 04:56 AM

how many real farmers are there in india

भारत के पास वास्तव में कितने किसान हैं? 2016-17 के लिए कृषि मंत्रालय के पिछले इनपुट सर्वेक्षण ने कुल परिचालन जोत को 146.19 मिलियन पर आंका। उसी वर्ष नाबार्ड के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेश सर्वे के अनुसार इसी वर्ष के लिए देश के कृषि परिवार को

भारत के पास वास्तव में कितने किसान हैं? 2016-17 के लिए कृषि मंत्रालय के पिछले इनपुट सर्वेक्षण ने कुल परिचालन जोत को 146.19 मिलियन पर आंका। उसी वर्ष नाबार्ड के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेश सर्वे के अनुसार इसी वर्ष के लिए देश के कृषि परिवार को 100.7 मिलियन का अनुमान लगाया गया। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पी.एम. किसान) में लगभग 111.5 मिलियन नामांकित लाभार्थी हैं जिनमें औसतन 102 मिलियन से अधिक का भुगतान 2020-21 के दौरान ले रहे हैं। 

भारत की आधिकारिक किसान आबादी दूसरे शब्दों में 100 से 150 मिलियन के बीच है। लेकिन इसमें  कितने वास्तविक किसान शामिल हैं?  नाबार्ड की परिभाषा के अनुसार कृषि परिवार ऐसे किसी परिवार को कवर करते हैं जिनकी कृषि गतिविधियों से उपज एक वर्ष में 5,000 रुपए से ज्यादा है। यह स्पष्ट रूप से जीवित आय के लिए बेहद कम है। 

एक वास्तविक किसान वह है जो कृषि से अपनी आय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्राप्त करेगा। यह उचित रूप से माना जा सकता है कि उसे एक वर्ष में कम से कम 2 फसलों को उगाने की आवश्यकता होती है। 2016-17 की इनपुट सर्वे रिपोर्ट दर्शाती है कि 146.19 मिलियन जोत के साथ कुल 157.21 मिलियन हैक्टेयर कृषि क्षेत्र में से केवल 140 मिलियन हैक्टेयर पर खेती की गई और इस शुद्ध बुवाई वाले क्षेत्र से बाहर भी केवल 50.48 मिलियन हैक्टेयर में दो बार या उससे अधिक फसल ली गई जिसमें 40.76 मिलियन हैक्टेयर सिंचित और 9.72 मिलियन हैक्टेयर गैर-सिंचित भूमि शामिल है। 

2016-17 के लिए 108 हैक्टेयर का औसतन जोत आकार लेते हुए पूरे समय के लिए किसान कम से कम एक वर्ष में 2 फसलों की बुवाई करते हैं। एक मानसून खरीफ और दूसरी सर्दियों-बसंत ऋतु के मौसम में। यह मुश्किल से 47 मिलियन होगी या यूं कहें 50 मिलियन। वर्तमान कृषि संकट मुख्य रूप से 50-75 मिलियन कृषि परिवारों के बारे में है। इसमें मूल्य समता की उपस्थिति है। 

1970-71 में जब गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) 76 रुपए प्रति क्विंटल था, 10 ग्राम 24 कैरेट सोने की लागत करीब 185 रुपए थी और सरकारी स्कूल टीचर की मासिक तनख्वाह 150 रुपए के करीब थी। आज गेहूं का एम.एस.पी. 1975 रुपए प्रति किं्वटल है और सोने की कीमत 45000 प्रति 10 ग्राम है। वहीं, सरकारी स्कूल टीचर की न्यूनतम तनख्वाह 40,000 रुपए प्रति माह है। इस तरह यदि 1970-71 में 2-2.5 क्विंटल गेहूं 10 ग्राम सोना खरीद सकता था, अब किसान को इसी के लिए 20 से 23 क्विंटल गेहूं गेहूं बेचना पड़ सकता है। 

50 वर्ष पूर्व एक किलो ग्राम गेहूं एक लीटर डीजल को खरीद सकता था। आज इसकी रेशो ऊपर बढ़ कर 4:1 हो गई है। हरित क्रांति से पूर्व पंजाब में गेहूं और चावल की फसल औसतन 1.2 और 1.5 टन प्रति हैक्टेयर थी। जबकि 1990-91 तक क्रमश: 3.7 और 4.8 टन से अधिक थी। 1990 के दशक के बाद गेहूं की उपज 5.1-5.2 टन प्रति हैक्टेयर हो गई तथा चावल की 6.4-6.5 टन प्रति हैक्टेयर पैदावार हो गई। इसी तरह उत्पादन लागत भी बढ़ गई। 

एम.एस.पी. को कानूनी अधिकार बनाने की मांग मूल रूप से मूल्य समानता की मांग है जो कृषि वस्तुओं को किसानों द्वारा खरीदी गई चीजों के संबंध में पर्याप्त क्रय शक्ति प्रदान करती है। यह मुख्यत: 50-75 मिलियन संवेदनशील फुल टाइम किसानों की ओर से आ रही है जिनके पास बेचने के लिए सरप्लस उपज रहती है। ये वे हैं जिन्हें कृषि नीति को लक्षित करना चाहिए। ज्यादातर सरकारी कल्याणकारी योजनाएं गरीबी उन्मूलन और निचले हिस्से को उभारने के उद्देश्य से है। मगर ‘मध्य’ और नीचे की ओर खिसकने वाले किसानों के लिए कोई नीति नहीं है। 

पी.एम. किसान के अंतर्गत  6000 रुपए का वाॢषक हस्तांतरण अंशकालिक किसान के लिए छोटा नहीं हो सकता है जो गैर-कृषि गतिविधियों से अधिक कमाता है। किसी भी कृषि नीति के लिए सबसे पहली प्राथमिकता मूल्य समता की समस्या को दूर करना होगा। क्या इसे एम.एस.पी. आधारित खरीद के माध्यम से सुनिश्चित किया जाना चाहिए। 

एक एकड़ का किसान पांच गायों को पाल सकता और किसी भी समय 3 से 30 लीटर दूध बेच सकता है। एक छोटी जोत वैकल्पिक रूप से एक ब्रायलर फार्म हो सकता है जिसमें 10,000 पक्षी एक वर्ष में बेचे जा सकते हैं। चाहे यह फसल, पशु धन, या मुर्गी पालन हो, कृषि नीति पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। फुल टाइम किसानों पर ध्यान केन्द्रित होना चाहिए  जो न तो ज्यादा अमीर हैं और न ही गरीब। ग्रामीण मध्यम वर्ग जो कभी कृषि में अपने भविष्य को लेकर बेहद आश्वस्त था आज वही अपने व्यवसाय से बाहर हो जाने का जोखिम उठा रहा है। ऐसा नहीं होने देना चाहिए।-हरीष दमोदरन

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