Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Feb, 2018 02:36 AM
ईमानदारी से कहूं तो मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि मीडिया घिसे-पिटे ढर्रे से बाहर निकलने की हिम्मत करेगा और सत्तारूढ़ पार्टी को राजस्थान की दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली भारी-भरकम पराजय को बजट की तुलना में प्रमुखता देगा। यह सही है...
ईमानदारी से कहूं तो मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि मीडिया घिसे-पिटे ढर्रे से बाहर निकलने की हिम्मत करेगा और सत्तारूढ़ पार्टी को राजस्थान की दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में मिली भारी-भरकम पराजय को बजट की तुलना में प्रमुखता देगा। यह सही है कि वर्ष में कम से कम एक दिन परम्परागत रूप में केन्द्रीय मंत्री के लिए आरक्षित होता है। इस दिन के लिए वित्त मंत्री अवश्य ही खबरों का केन्द्र बिंदु होना चाहिए।
लेकिन जब हम देखते हैं कि बजट हमारी जनता के भारी बहुमत की जिंदगियों को मुश्किल से ही छूता है और आर्थिक गतिविधियों के भी एक चौथाई से अधिक को प्रभावित नहीं करता तो इस परम्परा को दी जा रही रियायत जरूरत से बड़ी दिखाई देने लगती है। उल्लेखनीय है कि अधिकतर विकसित अर्थव्यवस्थाओं में वार्षिक बजट एक फिजूल की कवायद, मात्र एक कर्मकांड बनकर रह गया है, क्योंकि इन अर्थव्यवस्थाओं में अधिक स्थिरता और पारदर्शिता आ गई है तथा भविष्य के रुझानों का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।
लेकिन हम अभी भी देश के इस वार्षिक तुलन पत्र को प्रस्तुत करने को बहुत बड़ा उत्सव मानते हैं। किसी जमाने में आम आदमी की प्रतिक्रिया को ही बजट के अच्छे या बुरे होने की कसौटी माना जाता था लेकिन उदारवाद के बाद के दौर में आम आदमी के स्थान पर मीडिया कार्पोरेट घरानों के मुखिया को ले आया है। वह टी.वी. स्टूडियो या फिर अपने व्यवसाय संगठन के बंगले में बैठा वित्त मंत्री के कारनामे का मूल्यांकन करता है। ऐसा कोई दुर्लभ कार्पोरेट दिग्गज ही होगा जो इस बजट को 10 में से 10 या कम से कम 8 नम्बर नहीं देगा। जिस वित्त मंत्री का अपना बेटा बाप के प्रभाव का जमकर दुरुपयोग करके भारी-भरकम कमाई करने के बाद जांच से बचने के लिए हर हथकंडा प्रयुक्त कर रहा है, उसके लिए यह बजट किसी असाधारण सपने को साकार करने जैसा है। ऐसा बेटा क्या अपने बाप के बजट को 10 में से लगभग 10 अंक नहीं देगा? आम जनता के लिए बेशक यह बजट डरावने सपने जैसा ही सिद्ध क्यों न हो।
मैं अपने बिंदु से कुछ भटकने के लिए क्षमा चाहूंगा, फिर भी मेरा नुक्ता यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों की बेचैनी पर देरी से ही सही, ध्यान दिया जाना चाहिए था, वरिष्ठ नागरिकों को रियायतें दी जानी चाहिए थीं और बहुत दिलेरी से सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा के मार्ग पर आगे बढऩा चाहिए था। ऐसी योजनाओं को लागू होने में कुछ समय लगेगा और तब तक 8 विधानसभा चुनाव भी सिर पर आ जाएंगे और उस समय तक ऐसी योजनाओं का लाभ वोटरों तक नहीं पहुंच सका होगा। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि हिंदी बैल्ट में जो सरकार विरोधी हवा चल रही है उसको बजट निष्प्रभावी नहीं कर पाएगा।
बेशक पश्चिम बंगाल के उपचुनाव में भाजपा ने माकपा और कांग्रेस को मतदान की दृष्टि से तीसरे और चौथे स्थान पर धकेल दिया है तो भी वहां पर इस बजट का तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि इससे सीताराम येचुरी को कुछ अधिक बल मिलेगा जोकि किसी भी कीमत पर कांग्रेस के साथ हमबिस्तर होने के लिए एस.ए. डांगे जैसी भूमिका अदा करने को लालायित हैं। इसी बीच भाजपा केवल एक ही उम्मीद कर सकती है कि फिर से मोदी का जादू प्रयुक्त करे। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और सबसे बढ़कर राजस्थान में एंटी इनकम्बैंसी की हवा इतनी तेज है कि केवल मोदी ही मतदाताओं के साथ विशेष जुड़ाव बनाने का अपना जलवा प्रयुक्त करके इसका रुख मोड़ सकते हैं। शायद इसी कारण वे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ करवाने का राग अलाप रहे हैं। हालांकि यह विचार समझदारी भरा है और इस पर अधिक चिंतन-मनन होना चाहिए।
राहुल के नए रूप को भुनाने के कांग्रेस प्रबंधकों के हताशा भरे प्रयत्नों के बावजूद भाजपा विरोधी खेमे में इतनी अफरा-तफरी है कि उसके लिए कोई ऐसा सर्वमान्य चेहरा प्रस्तुत कर पाना लगभग असम्भव है जो हर किसी से सम्मान और आज्ञापालन हासिल कर सके। खुद ही आपस में उलझा हुआ विपक्ष कैसे उस पार्टी से टक्कर लेगा जिसमें नीचे से लेकर ऊपर तक नेतृत्व की एक स्पष्ट शृंखला है और जिसके कार्यकत्र्ता युद्ध जैसी मुद्रा में तैयार-बर-तैयार रहते हैं? विपक्ष का तो यह हाल है कि गत सप्ताह होने वाली विपक्षी नेताओं की मीटिंग इस बात के लिए राजी नहीं हो पाई कि राहुल गांधी वहां अध्यक्षता करें। इसलिए बीमार सोनिया गांधी को आनन-फानन में अध्यक्षता के लिए बुलाया गया। इसी बीच शरद पवार और ममता बनर्जी दोनों ने सोनिया के बिना विपक्ष के नेतृत्व की दावेदारी ठोंकी है।
गत चार वर्षों दौरान जुनूनी और हाशिए पर विचलन कर रहे तत्वों ने भाजपा को जो नुक्सान पहुंचाया है उससे निपटने के लिए मोदी को भी युद्ध स्तर पर संघर्ष करना होगा तभी वह बंटाधार और रंग-बिरंगे विपक्ष से टक्कर ले पाएंगे। अब वह पहले की तरह मौन नहीं रह सकते, खास तौर पर तब जब भाजपा का मुख्य समर्थक कथित हिंदुत्ववादियों की करतूतों से व्यथित है और बजट ने उन्हें और भी अधिक नाराज कर दिया है। बहुसंख्य हिंदू इन आवारा किस्म के लोगों के अभद्र व्यवहार से शॄमदा हैं क्योंकि उनके कारण हिंदू धर्म बदनाम हुआ है, ऐसे तत्वों पर तत्काल नकेल लगाने की जरूरत है।
लोग कभी एक पार्टी तो कभी दूसरी पार्टी का मुंह ताकने को मजबूर हैं। सच्चाई यह है कि यू.पी.ए. सरकार से विरासत में मिली भारी-भरकम आर्थिक गड़बडिय़ों के बावजूद मोदी सरकार ने काफी बढिय़ा कारगुजारी दिखाई है। फिर भी हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव मचा रहे लम्पट तत्वों पर अंकुश लगाने में अपनी विफलता के कारण सरकार मध्य वर्ग की सद्भावना खो बैठी है और यही वर्ग मुख्य रूप में चुनाव का एजैंडा और समूचे मतदाताओं का चुनावी मूड तैयार करता है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में भाजपा नेतृत्व को अपनी प्रतिक्रियावादी छवि को तिलांजलि देकर ऐसी प्रगतिवादी और सर्वसमावेशी पहुंच अपनानी होगी जिससे मध्य वर्गों में इसकी स्वीकार्यता दोबारा बहाल हो सके।-वरिन्द्र कपूर