कैसे रुके राजनीति का ‘अपराधीकरण’

Edited By Pardeep,Updated: 06 Oct, 2018 04:27 AM

how to stop  criminalization  of politics

क्या सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों का सामना कर रहे राजनीतिज्ञों को दोषी साबित होने से पूर्व चुनाव लडऩे से रोक कर ‘राजनीति में पवित्रता भरने’ के महत्वपूर्ण मुद्दे को छोड़कर लोगों को निराश नहीं किया है? ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप हमारे...

क्या सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक मामलों का सामना कर रहे राजनीतिज्ञों को दोषी साबित होने से पूर्व चुनाव लडऩे से रोक कर ‘राजनीति में पवित्रता भरने’ के महत्वपूर्ण मुद्दे को छोड़कर लोगों को निराश नहीं किया है? ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप हमारे लोकतंत्र के महत्वपूर्ण मुद्दों को कैसे देखते हैं? 

न्याय की प्रक्रिया के अंतर्गत दोषी साबित किए जाने से पूर्व ‘सम्भावित कानून निर्माताओं’ को चुनाव लडऩे से प्रतिबंधित करना कानूनी तौर पर अनुचित अथवा गलत होगा। यद्यपि इस संबंध में समयबद्ध फास्ट-ट्रैक विशेष अदालतों का गठन करके आवश्यक कानूनी सुधार आसानी से खोजे जा सकते हैं क्योंकि न्याय केवल दिया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि दिया जाता दिखना भी चाहिए। इस मामले में शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा कुछ भी किया दिखाई नहीं देता। इसकी बजाय माननीय अदालत ने कहा कि ‘‘स्व-प्रचार राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने में मदद करेगा’’ और इसलिए दागी अपराधियों को कानून निर्माता बनने से रोकने के लिए ‘आवश्यक तौर पर एक कानून बनाने’ का मामला संसद पर छोड़ दिया गया। 

अफसोस की बात है कि मुझे देश की शीर्ष अदालत के निर्णय में कुछ अधिक वास्तविकता नहीं दिखाई देती। यह जमीनी हकीकत के कहीं करीब नहीं है। इस संदर्भ में हम सभी जानते हैं कि कैसे हमारी संसद दशकों से व्यवहार कर रही है। वर्तमान में हत्या, दुष्कर्म तथा अपहरण जैसे जघन्य अपराधों के लिए सजा प्राप्त राजनीतिज्ञों को चुनाव लडऩे से प्रतिबंधित किया गया है। मगर मेरे विचार में आपराधिक आरोपों वाले लोगों को चुनाव लडऩे से प्रतिबंधित करके स्वच्छ चुनावी राजनीति सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती? निश्चित तौर पर इस अवधारणा, कि जब तक ऐसे व्यक्ति दोषी साबित नहीं होते तब तक ‘निर्दोष’ हैं, को लेकर अलग-अलग तरह के विपरीत विचार हैं। मैं इस अवधारणा पर प्रश्र नहीं उठा रहा। इसके साथ ही हम जमीनी स्तर पर कड़ी सच्चाइयों तथा सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा खुलकर खेले जा रहे ताकत के खेलों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह परिदृश्य अत्यंत बेचैन करने वाला है। 

मजे की बात यह है कि केन्द्र ने इस वर्ष मार्च में शीर्ष अदालत से कहा था कि देश की संसद तथा विधानसभाओं में कम से कम 1765 ‘जनप्रतिनिधि’ आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे हैं। यह संख्या भारत में सभी जनप्रतिनिधियों के एक तिहाई से कुछ अधिक बनती है। यह निश्चित तौर पर लोकतंत्र के स्वस्थ्य विकास के लिए एक खुशगवार स्थिति नहीं है। महत्वपूर्ण प्रश्र यह है कि ‘अपराधी-नेता मिलीभगत’ को शुरूआत में ही समाप्त करने के लिए प्रभावी तरीके से क्या कुछ किया जा रहा है? इस संबंध में कुछ खास नहीं किया गया है, हालांकि गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट की 2 जजों की पीठ ने सरकार से चुने हुए प्रतिनिधियों से संंबंधित मामलों से निपटने के लिए 11 राज्यों तथा दिल्ली में 12 विशेष अदालतों का गठन करने को कहा था। 

मुझे विश्वास नहीं है कि इस संबंध में कोई भी कार्रवाई की गई हो क्योंकि देश में धन तथा बाहुबल तेजी से अपना शिकंजा कसता जा रहा है। इस मामले में एक गैर-सरकारी संगठन (पब्लिक इंटेरैस्ट फाऊंडेशन) द्वारा 2011 में दाखिल जनहित याचिका के आधार पर चुनाव आयोग द्वारा शुरू किया गया प्रयास भी कानून एवं न्याय मंत्रालय के सामने लंबित पड़ा है। मैं ‘अपराधी राजनीतिज्ञों’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सतर्कतापूर्ण रवैये को समझता हूं। यह संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के विभाजन की लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघना चाहता। इसलिए चीफ जस्टिस (पूर्व) दीपक मिश्रा की टिप्पणी कि ‘‘यह संसद का कत्र्तव्य है कि वह धन तथा बल को दूर रखे। इससे पहले कि यह लोकतंत्र के लिए घातक बने, संसद को इस नुक्सानदेहता का उपचार करना चाहिए।’’ मगर क्या यह किया जा सकता है? धन तथा बाहुशक्ति हमारी लोकतांत्रिक राजनीति की कार्यप्रणाली के लिए लगभग घातक बन गई है। किसी के पास भी सही उत्तर नहीं है कि कैसे ‘अपराधी-नेता’ की मिलीभगत तोड़ी जाए। 

यद्यपि मैं सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘अपराधी-नेता मिलीभगत’ की समस्या की ईमानदारीपूर्वक समीक्षा की प्रशंसा करता हूं। यह मुम्बई में 1993 के शृंखलाबद्ध विस्फोटों की याद दिलाता है जिसने इस बात का खुलासा किया था कि कैसे ‘लोकतंत्र के गढ़ को लगी दीमक’ को नष्ट किया जा रहा था। यह 5 अक्तूबर 1993 की प्रसिद्ध एन.एन. वोहरा कमेटी की रिपोर्ट भी याद दिलाता है, जिसमें सी.बी.आई., आई.बी. तथा रॉ से मिले इनपुट शामिल थे। वोहरा कमेटी ने स्पष्ट तौर पर अत्यंत चिंता व्यक्त की थी कि ‘वर्षों के दौरान कई अपराधी स्थानीय निकायों, राज्य विधानसभाओं तथा संसद के लिए चुने गए हैं।’ मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि वोहरा कमेटी की रिपोर्ट सत्ता के गलियारों में धूल फांक रही है, जबकि केन्द्र तथा राज्यों में कई सरकारें आईं तथा गईं। कौन परवाह करता है? 

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2014 में विधि आयोग ने राजनीति के अपराधीकरण की समस्या का अध्ययन किया। इसने 2014 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें यह कहा गया कि 2004 तथा 2014 के बीच राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर पर चुनाव लड़ रहे कम से कम 18 प्रतिशत उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं और उनमें से आधों पर हत्या, हत्या का प्रयास, दुष्कर्म तथा भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों के साथ-साथ मकोका के अंतर्गत भी आरोप हैं। राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट की दुविधा तथा इसकी रोकथाम के लिए आधे-अधूरे मन से उठाए गए कदम समझ में आते हैं। एक तरह से यह समस्या के समाधान के लिए एक  सम्मानीय संवैधानिक रास्ता तलाशने का मामला है। मगर काफी हैरानी होती है कि अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि बारे मीडिया में विज्ञापन देने के लिए उम्मीदवारों को आदेश देते हुए इसने विधायी क्षेत्र की ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने से परहेज किया। 

स्पष्ट तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने सुरक्षित खेल खेला, मगर इस प्रक्रिया में उसने राजनीति के अपराधीकरण के बढ़ते संकेतों को लेकर सामान्य मतदाता की सोच के बड़े मुद्दे को नजरंदाज कर दिया। गरीबी तथा अनपढ़ता के स्तर को देखते हुए अधिकतर औसत लोग शायद ही यह समझ पाते हैं कि अपराधीकरण कहां शुरू होता है और कहां यह समाप्त होता है। ऐसा नहीं है कि भारतीय मतदाताओं में सामान्य समझ नहीं है। उनमें काफी समझ है मगर उनकी समस्या अपराधीकरण का दूषित माहौल है। जिसमें वे स्थानीय नेताओं की धौंस के कारण अस्तित्व के लिए संघर्ष करते हैं। शीर्ष अदालत की निष्पक्षता के बारे में यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा था, ‘‘हम आपकी चिंता में सांझीदार हैं। हम एक संवैधानिक समाधान के बारे में सोचेंगे...संसद धारा 102(1)(ई) के अंतर्गत एक कानून बनाने के लिए बाध्य है। संविधान के विवेक रक्षक होने के नाते हम (सुप्रीम कोर्ट) आपसे (संसद) यह करने के लिए कह सकते हैं।’’ 

मेरी चिंता यह है कि आज कहां हैं देश के राजनीतिक क्षेत्र में ‘विवेक रक्षक’? मुझे आशा है कि न्यायपालिका एक ‘संवैधानिक समाधान’ खोज लेगी क्योंकि यह देखते हुए कि उनमें से 35 से 45 प्रतिशत आपराधिक पृष्ठभूमि या आरोपों का सामना करने वाले हैं,  देश के कानून निर्माता आज करोड़पतियों तथा अपराधियों का एक मिश्रण है। आगे देखें तो हमारे लोकतंत्र को एक लम्बा सफर तय करना है और इसे सिस्टम में पारदर्शिता तथा जवाबदेही बनाने के लिए अवश्य प्रयास करना होगा। हम एक ‘झूठे लोकतंत्र’ के सहारे नहीं बैठे रह सकते। सुकरात ने कहा था कि खुद को जानना समझदारी की शुरूआत है। यह समय है कि हम खुद को व्यक्तियों तथा एक राष्ट्र के तौर पर समझें। केवल तभी हममें जमीनी हकीकतों तथा सुविधाहीन और स्त्रोतविहीन प्रताडि़त नागरिकों की परेशानियों को समझने की समझ आएगी। हमें देश तथा लोकतंत्र के सभी स्तरों पर बुराइयों को समाप्त करने की आवश्यक इच्छा को भी हासिल करना होगा।-हरि जयसिंह

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