Edited By ,Updated: 15 Sep, 2019 02:10 AM
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हाल ही में टाइम्स हायर एजुकेशन (टी.एच.ई.) की ओर से जारी दुनिया के 300 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वल्र्ड रैंकिंग सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय को जगह नहीं मिली है। हालांकि इस बात से जरूर कुछ संतोष किया जा सकता है कि...
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हाल ही में टाइम्स हायर एजुकेशन (टी.एच.ई.) की ओर से जारी दुनिया के 300 श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की वल्र्ड रैंकिंग सूची में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय को जगह नहीं मिली है। हालांकि इस बात से जरूर कुछ संतोष किया जा सकता है कि शीर्ष 500 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत के 6 संस्थानों को जगह मिली है। संस्थानों में शोध का स्तर तथा पढ़ाई का माहौल जैसे अनेेक कारकों के आधार पर यह सूची तैयार होती है।
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार उच्च शिक्षा की तस्वीर बदलने की कोशिश तो कर रही है लेकिन इस कोशिश को धरातल पर उतारने में बहुत-सी व्यावहारिक समस्याएं हैं। हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि भारतीय छात्र शोध के मामले में क्यों पिछड़ जाते हैं? दरअसल इस दौर में जहां एक ओर बेरोजगार युवकों की फौज लगातार बढ़ती जा रही है, वहीं दूसरी ओर हमारे विश्वविद्यालय वैश्विक रैंकिंग में भी लगातार पिछड़ रहे हैं।
दरअसल वर्तमान शिक्षा प्रणाली विद्यार्थियों को यह आश्वासन ही नहीं दे पा रही है कि शिक्षा पर लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी उन्हें सुरक्षित रोजगार मिल पाएगा या नहीं। आज शिक्षा तंत्र में अनेक विसंगतियों ने जन्म ले लिया है । एक ओर शिक्षा के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की लालसा शिक्षा को व्यापार का रूप दे रही है तो दूसरी ओर शिक्षा जगत से जुड़े माफियाओं ने शिक्षा को एक मजाक बनाकर रख दिया है । आज युवाओं में एक बौखलाहट जन्म ले रही है। मानसिक तनाव के चलते विद्याॢथयों में आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं। अंग्रेजों ने भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रारम्भ किया था उसके पीछे उनकी अपनी विभिन्न आवश्यकताएं थीं। आजादी के बाद कुछ हद तक इस शिक्षा नीति की कमजोरी को दूर करने के प्रयास किए गए लेकिन ये प्रयास पर्याप्त सिद्ध नहीं हुए। एक बार फिर शिक्षा नीति में परिवर्तन की कोशिशें हो रही हैं।
वास्तविक उद्देश्य क्या
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे नीति-निर्माता शिक्षा नीति में परिवर्तन करने की हड़बड़ाहट में अपना विवेक खोकर कुछ ऐसे निर्णय ले रहे हैं जो शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को ठेस पहुंचा रहे हैं। सवाल यह है कि क्या हमारा मुख्य उद्देश्य शिक्षा नीति में परिवर्तन करना है या फिर इस परिवर्तन के माध्यम से शिक्षा की कमजोरियों को दूर करना है ? हमारे नीति-निर्माताओं की नीतियों एवं क्रियाकलापों को देखकर तो ऐसा लगता है कि उनका मुख्य उद्देश्य केवल शिक्षा नीति में परिवर्तन करना भर है। इस दौर में उच्च शिक्षा की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। बदलाव के इस दौर में भी देश के अधिकांश विश्वविद्यालय पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं। विश्वविद्यालयों में न तो काम करने का तरीका बदला है और न ही वहां काम करने वाले लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव आया है। कहने को तो शिक्षा नीति में काफी बदलाव हुए हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हम अभी भी लीक ही पीट रहे हैं।
महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में जिस तरह की गंदी राजनीति पसरी हुई है उसका सीधा असर शिक्षा पर पड़ रहा है। जहां एक ओर शिक्षकों के विभिन्न गुट छात्रों से मिलकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में रहते हैं, वहीं दूसरी ओर महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में विभिन्न विभागों के बीच उत्पन्न आपसी खींचतान शिक्षा मंदिरों का माहौल खराब कर रही है। इस दौर में शिक्षकों को अच्छा-खासा वेतनमान मिल रहा है लेकिन इसके बावजूद वे नैतिकता को ताक पर रखकर किसी भी तरह अधिक से अधिक लाभ कमाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।लालच के इस माहौल में एक शिक्षक के लिए अपना हित सर्वोपरि हो गया है जबकि छात्र हित की सोच कम होती जा रही है। शायद यही कारण है कि आज गुरु के रूप में अध्यापक की प्रतिष्ठा लगातार कम हो रही है।
शोध की सार्थकता पर सवाल
आज कुछ अपवादों को छोड़कर शोध के नाम पर जो कुछ हो रहा है वह शोध की गरिमा और सार्थकता पर सवाल खड़े करता है। विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की प्रयोगशालाओं में उपकरण तो हैं लेकिन इनमें से अधिकांश सुचारू रूप से कार्य ही नहीं करते हैं। जिन प्रयोगशालाओं में स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर के प्रयोग भी ठीक ढंग से नहीं हो सकते, उन प्रयोगशालाओं में पी.एच.डी. के शोध हो रहे हैं । ऐसी स्थिति में शोध का क्या स्तर होगा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
आज एक ओर उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर नए-नए क्षेत्रों में रोजगार के अवसर भी बढ़ रहे हैं लेकिन इस स्थिति के बावजूद युवाओं को नौकरी प्राप्त करने में पापड़ बेलने पड़ रहे हैं। युवाओं के पास डिग्रियां तो हैं लेकिन व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। दरअसल रोजगार के विकल्पों का चुनाव कब और कैसे हो, यह भी एक समस्या ही है। सही विकल्प न चुन पाने के कारण अनेक विद्यार्थी अपनी प्रतिभा का पूरा उपयोग नहीं कर पाते हैं। आज जब विद्यार्थियों को यह पता चलता है कि किसी खास पाठ्यक्रम पढऩे वाले युवाओं को अच्छी नौकरियां मिल रही हैं तो सभी उस ओर भागने लगते हैं। भले ही विद्यार्थियों की रुचि उस खास विषय या पाठ्यक्रम में न हो लेकिन उन्हें तो भेड़चाल में शामिल होना है, सो नतीजा ढाक के तीन पात ही रहता है।
कैसे शिक्षित चाहिएं
हम इस बात का आकलन नहीं लगा पाते हैं कि इस खास पाठ्यक्रम को पढ़कर कुछ वर्षों बाद जब विद्यार्थी बाहर निकलेंगे तो इस पाठ्यक्रम की कितनी मांग रहेगी। आज शिक्षा जगत से जुड़े विशेषज्ञों को इस बात का आकलन करना होगा कि आने वाले वर्षों में किस तरह के शिक्षितों की आवश्यकता होगी, तभी इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हर साल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनेक फर्जी विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों की सूची जारी करता है लेकिन राजनीतिक संरक्षण के चलते इन संस्थानों का अस्तित्व बना रहता है और लाखों विद्यार्थी इन फर्जी संस्थानों के चक्कर में अपने भविष्य को दाव पर लगा देते हैं।
शिक्षा समाज को एक नया रास्ता दिखाती है। शिक्षा ही है जो समाज में आपसी समझ और वैज्ञानिक सोच को विकसित कर समाज और राष्ट्र के विकास को गति प्रदान करती है । शिक्षा के द्वारा ही किसी भी समाज के सुदृढ़ सामाजिक एवं आॢथक विकास की कल्पना की जा सकती है। व्यावसायिकता एवं आपाधापी के इस दौर में यह एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या शिक्षा उपरोक्त सभी उद्देश्यों की पूर्ति कर पा रही है? भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा व्यवस्था पर विचार करने के लिए अनेक समितियों का गठन हुआ। इन सभी समितियों ने मूल्य आधारित शैक्षिक प्रणाली विकसित करने पर बल दिया लेकिन आजादी के बाद शिक्षा व्यवस्था की स्थिति लगातार खराब होती चली गई। आज विद्यार्थियों के सपनों को बचाए रखने तथा बेरोजगारी को दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता एवं शिक्षाविद् पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए कोई ठोस एवं सार्थक पहल करें।-रोहित कोशिक