कैसे रुकेगा शिशु परित्याग का यह सिलसिला

Edited By ,Updated: 03 Aug, 2021 06:51 AM

how will this cycle of child abandonment stop

देश के समग्र विकास में समाज का विशेष योगदान रहता है। किसी भी स्तर पर पनपने वाली सामाजिक समस्याएं न केवल सर्वांगीण विकास बाधित करती हैं, अपितु देश की आंतरिक दुर्बलता का भी कारण बनती हैं। चारित्रिक सुदृढ़ता यदि सामाजिक नै

देश के समग्र विकास में समाज का विशेष योगदान रहता है। किसी भी स्तर पर पनपने वाली सामाजिक समस्याएं न केवल सर्वांगीण विकास बाधित करती हैं, अपितु देश की आंतरिक दुर्बलता का भी कारण बनती हैं। चारित्रिक सुदृढ़ता यदि सामाजिक नैतिकता का आधार है तो दृष्टिकोण उसे परिपोषित करने वाली अमरबेल। वर्तमान सामाजिक ढांचे पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि बहुपक्षीय विकास का दावा करने वाले हम भारतवासी इस विषय में पिछड़ते जा रहे हैं। 

शिशु परित्याग संबंधी घटनाएं नित्यप्रति सुसुप्त मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने का प्रयास करती हैं। आज के संदर्भ में गहन चिंता का विषय है कि देश का भविष्य कहलाने वाला शिशुत्व कूड़ेदान, रेल की पटरी, कंटीली झाडिय़ों आदि में बिलखता अथवा दम तोड़ता मिलता है। स्पष्ट है कि बहुपक्षीय विकास के उपरांत भी समाज की सोच उतनी वृहद्, परिपक्व व उन्नत नहीं हो पाई। अभी कुछ दिन पूर्व फिल्लौर के गांव लांदड़ा में किसी महिला ने मध्यरात्रि, भरी बरसात में एक नवजात को सड़क के किनारे फैंक दिया। पुलिस द्वारा अस्पताल ले जाने के एक घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया। बीते दिनों हिमाचल के बद्दी क्षेत्र के बिलांवाली में भी कुछ घंटे पूर्व जन्मी नवजात बैग में डालकर कूड़ेदान में फैंक दी गई। माह में घटित यह दूसरी घटना बताई गई। 

27 जून को भी जालंधर स्थित एक शिशुगृह के बाहर रखे पालने में कोई नवजात बच्ची छोड़ गया, जो संरक्षकों द्वारा तत्काल चिकित्सीय सुविधा उपलब्ध करवाने से पूर्व ही दम तोड़ चुकी थी। जून माह में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में एक 27 दिवसीय बच्ची को देवी-देवताओं के चित्रों तथा जन्म कुंडली सहित लकड़ी के बक्से में बंद करके गंगाजी में प्रवाहित करने की घटना संज्ञान में आई। बच्ची का सौभाग्य कि एक नाविक की सजगता ने उसे बचा लिया व राज्य सरकार ने उसके संरक्षण व पालन का बीड़ा उठाया। 

कहना कठिन है कि ऐसी घटनाओं में दिग्भ्रमित निर्ममता का प्राबल्य रहा या दुष्कर्म जनित पीड़ा का आभास, सामाजिक मान-मर्यादा का भय अथवा पुत्रमोह से ग्रस्त परिवार का अतिरिक्त  दबाव। कारण चाहे जो भी हों, शिशु-परित्याग कानूनन, सामाजिक व मानवीय आधार पर अक्ष य अपराध है। 

बदलते परिवेश की महानगरीय व्यवस्था ने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसकी ‘विवाह’ नामक पवित्र संस्था में विशेष आस्था नहीं। अपनी शर्तों पर स्वतंत्र व उछृंखल जीवन जीना ही मानो उसका एकमात्र ध्येय हो। अंतरंगता की किसी चूक के शिशुरूप में फलित होने पर वह उसके परित्यजन में तनिक भी संकोच नहीं करता। अधकचरी जानकारी व जिज्ञासु प्रवृत्ति किशोरवर्ग को अनैतिक व अमर्यादित संबंधों के अंधकूप में धकेल देती है, जिसके परिणाम अवैध संतानों के रूप में निकलते हैं। 

सामाजिक दृष्टिकोण की बात करें तो आज भी पितृविहीन संतानों को कटाक्षपूर्ण दृष्टि से देखा जाता है। चाह कर भी अधिकतर महिलाएं सत्य स्वीकारने का साहस नहीं जुटा पातीं और विवशता को अपनी ढाल बना लेती हैं। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो पुत्रमोह में जननी पर बेटियों को निर्वासित करने का दबाव बनाते हैं। यही कारण है कि परित्यक्त  नवजातों में बेटियों की सं या अधिक रहती है। कारण जो भी हो, मानवीय आधार पर कोई भी संतान त्याज्य नहीं। नवजात के लिए ममत्व की छाया से बढ़कर कोई कल्पतरू नहीं। कोई विवशता होने पर उचित होगा कि उसे किसी मान्यता प्राप्त शिशुगृह को सौंप दिया जाए अथवा किसी इच्छुक दंपति को उसके कानूनी संरक्षण का अधिकार दे दिया जाए। किंतु इस विषय में सजगता अनिवार्य है, कहीं ऐसा न हो कि मातृत्व से बहिष्कृत शिशु गलत हाथों में पड़कर आजीवन शारीरिक अथवा मानसिक शोषण का संत्रास भोगता रहे। 

जहां संवेदनाएं मर्दित होती हैं, वहां उंगलियां पूरी व्यवस्था पर उठती हैं। क्या वे अभिभावक निर्दोष हैं जो बच्चों में  नैतिक संस्कार रोपित करना आवश्यक नहीं समझते? क्या वह मां क्षमा योग्य है जो अपने कत्र्तव्य को विधि भरोसे छोड़ दे? क्या ऐसा समाज संख्य, सुसंस्कृत एवं स्वस्थ कहा जा सकता है, जिसके दबाव में किसी मां को शिशु-परित्याग हेतु विवश होना पड़े? कभी समय निकाल कर चौराहों पर भीख मांगते शिशुओं की पनीली आंखों में झांककर देखें, वेश्यावृत्ति के लिए विवश युवतियों की पीड़ा का मर्म जानने का प्रयास करें अथवा अपराध जगत में संलिप्त अपराधियों का इतिहास खंगाल कर देखें, पता चलेगा कि इनमें से अधिकांश समाज के कुकृत्य, संवेदनहीनता अथवा संकुचित दृष्टिकोण की ही उपज हैं। 

ऐसे मामलों की पूर्ण व व्यापक जांच के साथ दंडविधान का कड़ाई से लागू होना भी अनिवार्य है। दोषी अभिभावकों का सुराग लगा पाना इतना सरल नहीं, प्रशासन को ऐसे उपाय खोजने होंगे जिससे शिशु-परित्याग का यह क्रूर सिलसिला रुक सके। इस विषय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका हमारे समाज की है, जिसे विशेष रूप से गिरते नैतिक मूल्यों के प्रति सचेत होना होगा। माताओं से विशेष अपेक्षा है कि वे यथासंभव अपने बच्चों को मातृत्व से वंचित न करें। उनकी समस्याएं सुनें, जिज्ञासाएं सुलझाएं। उन्हें शिक्षित, आत्मनिर्भर, सुदृढ़ एवं चारित्रिक स्तर पर आत्मसंयमी बनाएं ताकि समाज द्वारा शोषित अथवा त्रस्त किए जाने की संभावना ही न हो।-दीपिका अरोड़ा
 

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