‘हुण कनकां हो गइयां उदास ने’

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2021 04:01 AM

hun kanak ho ho giya sad

केंद्र तथा किसान संगठनों के बीच जब भी बातचीत टूटती है तो हमारा दिल भी टूट जाता है। बार-बार बातचीत टूटती है तो दिल भी बार-बार टूटता है। कहते हैं कि सदा प्रत्येक मसले का हल बातचीत के जरिए निकलता है। जब बात आधी-अधूरी रह जाती है तो छोटे मसले भी बड़े बन

केंद्र तथा किसान संगठनों के बीच जब भी बातचीत टूटती है तो हमारा दिल भी टूट जाता है। बार-बार बातचीत टूटती है तो दिल भी बार-बार टूटता है। कहते हैं कि सदा प्रत्येक मसले का हल बातचीत के जरिए निकलता है। जब बात आधी-अधूरी रह जाती है तो छोटे मसले भी बड़े बन जाते हैं और यदि बातचीत किसी नतीजे पर पहुंच जाए तो बड़े मसले भी छोटे दिखने लग पड़ते हैं। विश्व भर के सभी देश आपस में बैठ कर मसलों का हल निकालते देखे जा सकते हैं और बातचीत खत्म होने के बाद एक-दूसरे का आलिंगन भी करते नजर आते हैं। 

घूरती हुई आंखों में प्यार की झलक दिखाई पड़ती है। सब कुछ एक ही रंगत में रंगा नजर आता है। इस समय केंद्र सरकार ने जिद पकड़ी हुई है, वह किसानों की बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं। बैठक उठती रहती है और बैठती रहती है तथा केंद्र कहता है कि सरकार बातचीत करने के लिए तैयार है और यह बातचीत आगे भी जारी रहेगी। इस बातचीत का कभी कोई नतीजा निकलेगा, ऐसे सवाल हवा में लटकते नजर आ रहे हैं। 

पालनकत्र्ता दिल्ली की सड़कों पर टूटा हुआ दिल लिए बैठा है : आज खेतों में कनक भी उदास है कि उसका पालनकत्र्ता दिल्ली की सड़कों पर टूटा हुआ दिल लेकर बैठा हुआ है। छोटे होते हुए एक गीत सुना करते थे :
‘कनकां जनमियां गिठ-गिठ लम्मियां,
घर आ ढोल सिपाहिया वे।’

मगर आज पंजाब का ढोल सिपाही अपने हकों के लिए जूझ रहा है। जब हरजीत हरमन गाता है तो बचपन के दिन याद आ जाते हैं। गीत के बोल इस तरह हैं :
‘जिस वेले कनकां नूं पहलां पानी लाऊंदे जट,
तोरिए नूं पैंदे उदों पीले-पीले फुल वे।
उस रुते सजन मिला दे रब्बा मेरिया,
सारी ही उम्र तेरा तारी जाऊं मुल वे।
सरसों तथा तोरिए को फूल आ गए हैं मगर मेरे देश के किसान का मूल्य अभी नहीं पड़ा है। 

किसान की कला : हमारा सर्वसांझा किसानी आंदोलन शिखरों की ओर बढ़ रहा है। जोशीले भाषण, कविताएं तथा देशप्यार के इंकलाबी गीतों ने आंदोलन को आगे बढ़ा रखा है। अन्नदाता केवल अन्न ही पैदा नहीं करता बल्कि बहुपक्षीय कला का मालिक भी है। यह कला प्रकृति की देन है, सीधे-सादे रब जैसे बंदों के पास आकर्षक आवाजें हैं जो सुरीली, कोमल तथा मन को भाने वाली हैं। छिपी हुई अनगिनत कलाएं उभर कर आंदोलन के माध्यम से सामने आई हैं। 

आज डायरीनामा लिखते हुए किसानों का हरमन प्यारा रेडियो पर चलने वाला ‘देहाती प्रोग्राम’ याद आ गया है। चाचा ठंडू राम, रौनकी राम, मास्टर जी तथा अन्य कितने चेहरे हैं जो हमारे दिलों में अभी भी वास किए हुए हैं।  एक फनकार गाया करता था जिसका नाम हरि सिंह रंगीला था। कितने वर्ष पहले उसके द्वारा गाए गए गीत आज कितने प्रासंगिक हैं और आज के समय से मेल खाते हैं : 

‘बल्ले-बल्ले ओ किसानो, बल्ले-बल्ले जमींदारो ओए,
होर हल्ला मारो शेरो, होर हल्ला मारो ओए।
बल्ले-बल्ले ओ किसानो, 
देश विच वंड देवो प्रेम ते प्यार नूं,
नवां-नवां रूप देओ, खेतां दी बहार नूं। 
मत्था तुहाडा चुम्मां, देश दियो पहरेदारो ओए
बल्ले-बल्ले ओ जवानो, बल्ले-बल्ले...
देश के किसान का माथा चूमने और उसके चरण स्पर्श करने के लिए दुनिया भर के बड़े-बड़े लोग आगे आ रहे हैं और आने भी चाहिएं। किसानों के बिना हम किस काम के? 
किसान नहीं तो अन्न नहीं, 
अन्न नहीं तो धन नहीं,
फिर मेरा मन भी कहां और तन भी कहां? आखिर क्या-क्या लिखूं? आज इतना ही काफी, बाकी के लिए माफी।-मेरा डायरीनामा निंदर घुगियाणवी 
 

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