‘मुझे यकीन हो गया था कि कश्मीर के पत्थरों के बीच हम जख्मी नहीं हो सकते’

Edited By ,Updated: 10 Nov, 2020 04:45 AM

i was convinced that we could not be injured among the stones of kashmir

कश्मीर की उड़ी की पहाडिय़ों पर भारतीय फौज को आगे बढऩे से रोकने के लिए पाकिस्तान के पूर्व मेजर जनरल अकबर खान ने स्वयं मोर्चा संभाला हुआ था। उस समय की लड़ाई के हालात का उन्होंने बड़ा ही विस्तृत विवरण पेश किया है। अपनी पुस्तक ‘रेडर्ज इन कश्मीर’ में वह

कश्मीर की उड़ी की पहाडिय़ों पर भारतीय फौज को आगे बढऩे से रोकने के लिए पाकिस्तान के पूर्व मेजर जनरल अकबर खान ने स्वयं मोर्चा संभाला हुआ था। उस समय की लड़ाई के हालात का उन्होंने बड़ा ही विस्तृत विवरण पेश किया है। अपनी पुस्तक ‘रेडर्ज इन कश्मीर’ में वह आगे लिखते हैं: ‘‘मेरी आशा के मुताबिक उसने काम किया, हम यह प्रभाव पैदा करने में कामयाब थे कि मोर्चा अभी भी वहां मौजूद था। 

नतीजा यह हुआ कि भारतीय सावधान ही रहे, हालांकि उनके साजो-सामान, यंत्र पहले ही उड़ी पहुंच गए थे, लेकिन उनकी असल फौज को उड़ी पहुंचने में और ज्यादा दिन लगे और हमने उन्हें वहां से सड़क से दूर जाने नहीं दिया। सड़क पर ही उन्हें लगा कि उन्हें हर पुल को भारी तैयारी के बाद ही लांघना होगा और इसी तरह एक पुल से दूसरे पुल तक करते रहे, लेकिन यंत्र और बारूद के न होने से पुलों को तबाह करना एक लम्बा और थका देने वाला काम था। 

शक्ति के प्रदर्शन के लिए पहाड़ों पर चढऩा-उतरना और भी थकाने वाला था, फिर भी समय लेना था और हर घंटे की गिनती करनी थी, मेरा पहला दिन हमारे लिए किस्मत वाला था। दूसरे दिन हम लड़े और कुछ जानी नुक्सान भी किया, तीसरे दिन के अंत पर मुझे ऐसा लगा कि हमने कुछ हासिल कर लिया है। लेकिन अब पीछे से कोई भी हमारी मदद के लिए नहीं आया। इसलिए वही कार्यप्रणाली अपनानी पड़ी, हम हर रोज एक पुल गिराते, हर दिन भारतीय वहां आते लेकिन और आगे नहीं बढ़ते थे। 

छठे दिन उड़ी से 15 मील के फासले पर चकौती में हम रुक गए। यहां हमने एक बहुत गहरी घाटी से गुजरने वाले लंबे पुल को नष्ट कर दिया था। दोनों ओर से ढलवान से गाड़ी लाना संभव नहीं था। अगर भारतीय यहां से आगे जाना चाहते हैं तो उन्हें इसी पुल का फिर से निर्माण करना होगा। जब उनका पहला गश्ती दस्ता वहां आया तो उसे हर वह चीज मिल गई जो हमारे पास थी। एक ट्रक और दो लोगों को छोड़कर वे भाग निकले। फिर और आए और फिर गोलाबारी, फायरिंग और हवाई हमला सूरज डूबने तक चलता रहा। अगली सवेर दूसरे दिन की तरह नहीं थी, उन्हें अब तक हमारी पोस्ट मिल गई थी और इस प्रकार केवल एक ही तरीका उनके पास था कि झाडिय़ों वाले ऊंचे पहाड़ से हमारी ओर पैदल फौज हमले करे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

मशक्कत भरे इन कुछ दिनों के दौरान कोई हानि न होने के कारण मुझे लगभग यकीन हो गया था कि कश्मीर के पत्थरों और बट्टों के बीच हम जख्मी नहीं हो सकते थे। यह सही सिद्ध हो जाता यदि अगले दिन एक दुर्घटना पेश न आती। हम तीन और आदमियों के साथ एक गाड़ी में सवार होकर जा रहे थे, इसी क्षेत्र में सड़क के केवल एक मील के फासले पर हम पकड़ लिए गए। एक हवाई जहाज को सीधा अपनी ओर आते हुए मैंने देख लिया, इससे पहले भी कई बार ऐसा हुआ लेकिन तब रुक कर छिपने के लिए समय होता था परन्तु इस समय तो हम बिल्कुल खुली जगह पर थे, यहां आगे-पीछे छिपने के लिए कोई जमीन के भीतर से गुजरती नाली भी नहीं थी। निकट में ही 200 गज तक वापस दौड़कर जाना और ठहरना संभव नहीं था। हवाई जहाज ने पहले ही अपनी नाक डुबोनी शुरू कर दी थी। 

मुझे मालूम था कि दूसरे ही गोते में हम आएंगे तभी 20 एम.एम. गन का धमाका हुआ, एक पल के लिए लगा कि सब कुछ खत्म हो गया है। हमारी गाड़ी चल रही थी तो पायलट की तरफ से दागी गई गोली छत के ऊपर से आई और एक व्यक्ति को बुरी तरह से जख्मी कर दिया। फिर उन 7 दिनों में हमने वहां के स्थानीय लोगों से सम्पर्क किया था और उन्होंने 75 रजाकार तैयार कर लिए थे जो अब हमसे मिलने ही वाले थे। आजाद हुकूमत भी हथियार एवं रजाकार जमा कर रही थी और आ रही सहायता रास्ते में थी। बाग और पुंछ के क्षेत्रों में से संदेश आ चुके थे कि वह सहायता करेंगे।(लेखक द्वारा संकलन)-ओम प्रकाश खेमकरणी


 

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