भाजपा यदि ‘राष्ट्रपति प्रणाली’ चाहती है तो खुलकर कहे

Edited By ,Updated: 30 Jun, 2019 04:33 AM

if the bjp wants the  presidential  then say frankly

ऐसे मुद्दों को उछालने का श्रेय आपको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देना होगा, जो लोगों के ध्यान को भटकाते हैं। वह इस तथ्य को यकीनी मानते हैं कि विपक्ष अलग-अलग आवाजों में प्रतिक्रिया देगा और हमेशा ठोस तथ्य या तर्क पेश नहीं करेगा। पुलवामा इसका एक बड़ा...

ऐसे मुद्दों को उछालने का श्रेय आपको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देना होगा, जो लोगों के ध्यान को भटकाते हैं। वह इस तथ्य को यकीनी मानते हैं कि विपक्ष अलग-अलग आवाजों में प्रतिक्रिया देगा और हमेशा ठोस तथ्य या तर्क पेश नहीं करेगा। 

पुलवामा इसका एक बड़ा उदाहरण है। हर लिहाज से यह खुफिया एजैंसियों की एक बड़ी विफलता थी। जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने भी यह स्वीकार किया जब उन्होंने 15 फरवरी 2019 को कहा कि ‘हम हाइवे पर जा रहे विस्फोटकों से भरे वाहन का पता नहीं लगा सके या उसकी जांच नहीं कर सके...यह तथ्य कि हमें नहीं पता था कि उनके बीच (स्थानीय आतंकवादी) एक फिदायीन था, भी खुफिया एजैंसियों की विफलता का एक हिस्सा है।’ 

कोई भी सरकार हमले के बाद चुप नहीं रह सकती थी। बालाकोट इसका उत्तर था, पाकिस्तानी वायुसेना पूरी तरह से तैयार नहीं थी, भारतीय वायुसेना ने लक्ष्यों को निशाना बनाया और पाकिस्तान ने भारतीय वायुसेना के एक विमान को मार गिराया। संदेह एयर स्ट्राइक को लेकर नहीं है लेकिन इसमें हुई मौतों को लेकर है। तो हमने क्या पाया? पुलवामा में एक चिंताजनक विफलता तथा बालाकोट में एक महत्वपूर्ण सफलता।

ध्यान भटकाना
नरेन्द्र मोदी ने सफलतापूर्वक पुलवामा तथा बालाकोट की हवा निकाल दी। जो कोई भी पुलवामा में खुफिया एजैंसियों की विफलता (तथा 40 जिंदगियों को खोना) पर प्रश्र उठा रहा था उसे शरारतपूर्ण ढंग से भारतीय वायुसेना की बालाकोट में सफलता पर प्रश्र उठाने वाले के तौर पर परिभाषित किया गया और उस पर राष्ट्र विरोधी का ठप्पा लगा दिया गया। विपक्ष, कम से कम हिंदी भाषी राज्यों में, इस चतुराईपूर्ण चुनावी चाल पर प्रतिक्रिया देने और लोगों को पुलवामा की विफलता तथा बालाकोट की सफलता के बीच फर्क समझाने में सक्षम नहीं था। मोदी ने सफलतापूर्वक लोगों का ध्यान भटका दिया और चुनावी प्रक्रिया को सुस्त अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों के संकट तथा साम्प्रदायिक असहिष्णुता,ङ्क्षलङ्क्षचग आदि जैसे मुद्दों से दूर ले गए। 

लोकसभा चुनावों के बाद ध्यान सुस्त अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों के संकट, साम्प्रदायिक असहिष्णुता, ङ्क्षलङ्क्षचग आदि जैसे मुद्दों की ओर लौटना चाहिए था। इस पर राष्ट्रपति के भाषण में जोर दिया जाना चाहिए था, यह संसद में प्रधानमंत्री के उत्तरों के केन्द्र में होना चाहिए था तथा यह बजटपूर्व चर्चाओं का थीम होना चाहिए। अफसोस, ऐसा नहीं है और अब लोगों के बीच मोदी का नया नारा-एक राष्ट्र एक चुनाव गूंज रहा है। यह ध्यान भटकाने की नई चाल है। 

असंवैधानिक 
एक संघीय संसदीय लोकतंत्र में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार में मंत्रिपरिषद क्रमश: हाऊस आफ पीपुल [अनुच्छेद 75(3)] तथा विधानसभा [अनुच्छेद 164(2)] के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होनी चाहिए। विधायिका के प्रति ‘उत्तरदायित्व’ का अर्थ है कि मंत्रिपरिषद को प्रतिदिन तथा प्रति घंटा विधायिका में बहुमत का विश्वास हासिल होना चाहिए। जिस पल मंत्रिपरिषद बहुमत का समर्थन खो देती है, उसे हट जाना चाहिए। यह धारणा कि जब तक अन्य मंत्रिपरिषद अपना बहुमत साबित न कर दे, पहले वाली मंत्रिपरिषद को अपना कार्यभार जारी रखना चाहिए, संसदीय लोकतंत्र के मूलभूत नियमों के विपरीत है। 

मान लो कि एक सरकार मतदान में पराजित हो जाती है लेकिन कोई भी अन्य व्यक्ति विधायिका में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं कर सकता तो क्या पराजित प्रधानमंत्री अथवा मुख्यमंत्री को अपने पद पर बने रहना चाहिए? यह संसदीय अपवित्रीकरण होगा। मध्यावधि चुनाव इसका न्यायसंगत उत्तर है। उतने ही संसदीय लोकतंत्र के विपरीत ये सुझाव हैं कि निर्धारित अवधि के बावजूद विधानसभा की अवधि को बढ़ाया जा सकता है या उसमें कटौती की जा सकती है। 

नि:संदेह एक राष्ट्र, एक चुनाव के लिए अभियान पूरी जानकारी के साथ शुरू किया गया कि यह वर्तमान संविधान के अंतर्गत असंवैधानिक है। हालांकि इसका समर्थन करने वाले अभी इसे स्वीकार नहीं करेंगे, उनका असल इरादा संविधान में बदलाव करने का है। बदलाव की दिशा भी दिखाई दे रही है : संघीय नहीं, एकात्मक; मजबूत कार्यपालिका, कमजोर विधायिका; विभिन्नता नहीं,एकरूपता;विभिन्नसंस्कृतियां नहीं,सामान्यपहचानतथा सर्वसम्मत नहीं, अधिनायकवादी। दिशा सरकार की एक राष्ट्रपति प्रणाली की ओर है। 

बदलावों की चेतावनी 
उपरोक्त सब कुछ भारत के वर्तमान संविधान में व्यापक संशोधन करके हासिल किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि भाजपा संविधान में बहुत बड़े संशोधन के विचार के खिलाफ नहीं है क्योंकि उसका मानना है कि चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को संविधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं मिला था, इसलिए उसे वर्तमान संविधान की जिम्मेदारी लेने को बाध्य नहीं किया गया। स्वाभाविक है कि संघ तथा भाजपा पसंद का संविधान चाहती हैं और एक राष्ट्र, एक चुनाव अभियान संविधान में बदलाव की ओर कदम है। 

सरकार की संघीय प्रणाली वाला कोई भी तुलनीय देश राष्ट्रीय संसद तथा राज्य या प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं करवाता, इसके उल्लेखनीय उदाहरण आस्ट्रेलिया, कनाडा तथा जर्मनी हैं। अमरीका में सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली है इसलिए उससे तुलना नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त अमरीका में एक साथ चुनाव करवाए तथा नहीं भी करवाए जाते हैं (एक चुनाव प्रत्येक चार वर्ष बाद तथा एक प्रत्येक 2 वर्षों बाद)। यह तर्क कि कोई देश तथाकथित अनवरत चुनावी मोड में नहीं रह सकता, भी खोखला है। क्या फर्क पड़ता है जब कुछ राज्यों में चुनाव उनके निर्धारित समय पर करवा दिए जाएं? यदि कोई देश तथाकथित अनवरत चुनावी मोड में है तो वह अमरीका है जहां हाऊस आफ रिप्रजैंटेटिव्स के सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद चुने जाते हैं। अमरीका को इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती। 

भाजपा को अपने इरादे स्पष्ट करने चाहिएं। यदि यह सरकार की राष्ट्रपति प्रणाली चाहती है तो इसे खुलकर कहना चाहिए। यह निर्णय लोगों को लेने देना चाहिए कि देश के सामने इस समय कौन-सी प्राथमिकताएं हैं-सुस्त अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, किसानों का संकट, साम्प्रदायिक असहिष्णुता या पहले कार्यकारी राष्ट्रपति, चापलूस मंत्रिमंडल तथा शक्तिहीन संसद की स्थापना करना।-पी. चिदम्बरम

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