‘लड़कियों की शिक्षा पर महामारी का असर’

Edited By ,Updated: 24 Feb, 2021 04:43 AM

impact of epidemic on girls  education

हमें एक साल की छुट्टी है, पूरे साल की पार्टी।’’ यह कहना है एक 7 वर्षीय शालोम राणा का जो देहरादून के जाखन क्षेत्र में सरकारी स्कूल की दूसरी कक्षा की छात्रा है। शालोम उसकी बड़ी बहन और भाई यह सोच कर खुश हैं कि वह सभी दिन खेलने को स्वतंत्र हैं और अपने...

‘‘हमें एक साल की छुट्टी है, पूरे साल की पार्टी।’’ यह कहना है एक 7 वर्षीय शालोम राणा का जो देहरादून के जाखन क्षेत्र में सरकारी स्कूल की दूसरी कक्षा की छात्रा है। शालोम उसकी बड़ी बहन और भाई यह सोच कर खुश हैं कि वह सभी दिन खेलने को स्वतंत्र हैं और अपने मां के काम में हाथ बंटाएंगे। भारत में लाखों की तादाद में अन्य वंचित बच्चों की तरह उनके पास घरों में स्मार्ट फोन नहीं हैं। कोविड-19 महामारी के कारण स्कूलों को बंद रखा गया जिसका मतलब यह हुआ कि राणा तथा उसके भाई-बहनों की शिक्षा का तकरीबन अंत ही है। 

महामारी के एक वर्ष के बाद इस बात का आकलन करना अच्छा है कि किंडर गार्टन से लेकर 12वीं कक्षा तक भारत में शिक्षा क्षेत्र कैसे प्रभावित हुआ है। यह ज्यादातर डेढ़ सौ से लेकर 200 मिलियन बच्चों को प्रभावित कर चुका है मगर एक बात जहन में रखनी होगी कि प्रत्येक व्यक्ति शुरूआती सर्वे पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। देश में कोई भी राष्ट्रव्यापी आंकड़ों वाला प्रमाण नहीं है जो यह प्रमाणित करे कि महामारी ने किस तरह बच्चों की शिक्षा को प्रभावित किया है। 

प्रथम की एनुअल स्टेट्स ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ए.एस.ई.आर.) वेव -1 अक्तूबर 2020 में फोन द्वारा रिपोर्ट आयोजित हुई। इसके नतीजे इसी माह उपलब्ध हुए हैं जिससे कुछ संकेत पता चलते हैं। रिपोर्ट का कहना है कि यहां पर देश में एनरोलमैंट में कोई गिरावट नहीं आई है और न ही स्पष्ट तौर पर यह पता चला है कि बच्चे स्कूल से बाहर हुए हैं। प्रथम के संस्थापक तथा प्रमुख माधव चवन के अनुसार कुल एनरोलमैंट संख्या का वास्तविक डाटा तभी उपलब्ध होगा जब पूरे देश में स्कूल खुल जाएंगे। उन्होंने आगे कहा कि हालांकि जब सर्वे हुआ तो बहुत कम ने अपना विचार दिया। 

ज्यादातर विशेषज्ञ लड़कियों के लिए जब स्कूल खुल जाएंगे तो एनरोलमैंट में गिरावट देखी जाएगी। सफीना हुसैन, जो एक गैर-लाभान्वित राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के गांवों में कार्य करती हैं, ने इस बात का खुलासा लॉकडाऊन से पहले किया था। वह मानती हैं कि कई अभिभावकों के लिए लड़कियों की शिक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में मायने नहीं रखती। कोविड महामारी के कठोर समय में जब अभिभावक अपना जीवन चलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं इस कारण लड़कियों को स्कूल भेजना उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है। 

महामारी के बाद वैश्विक तौर पर 20 मिलियन नाबालिग लड़कियों का स्कूल से बाहर होना अपेक्षित है और यह गिनती ज्यादातर भारत में देखी जा सकती है। हुसैन खुलासा करती हैं कि ऐसे प्रमाण हैं कि विवाह योग्य लड़कियां ग्रामीण राजस्थान और अन्य पिछड़े क्षेत्रों में उनके पतियों के घर भेज दी गई हैं। यहां तक कि उन्होंने अभी स्कूल की पढ़ाई भी पूरी नहीं की है। नाबालिग लड़कियां सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं। हुसैन ने उत्तर प्रदेस के कई क्षेत्रों जैसे रायबरेली, मिर्जापुर तथा चित्रकूट की यात्रा की और वहां के अनुभव को प्रकट किया।

ए.एस.ई.आर. वेव-1 सर्वे यह भी दर्शाता है कि ज्यादातर छात्र प्राइवेट स्कूलों से सरकारी स्कूलों की ओर चले गए हैं। इनमें लड़कियों की गिनती 70 प्रतिशत से 73 प्रतिशत (2018) है।इसके दो कारण हैं पहला वित्तीय तंगी जिसके चलते अभिभावक प्राइवेट स्कूलों की फीस देने में असमर्थ हैं और बजट के चलते कई प्राइवेट स्कूल बंद भी हो चुके हैं। 

विशेषज्ञों का कहना है कि प्राइवेट से सरकारी स्कूलों की ओर जाने का रुझान तेजी से बढ़ा है। प्रत्येक व्यक्ति मानता है कि ज्यादातर बच्चों को ऑनलाइन और डिजिटल प्लेटफार्म उपलब्ध नहीं। महामारी के दौरान जो प्रवासी बच्चे अपने अभिभावकों संग ग्रामीण क्षेत्रों की ओर चले गए अभी तक उनका एनरोलमैंट ही नहीं हुआ। इससे वह पढ़ाई के नक्शे से ही बाहर हो गए हैं। शिक्षा का स्तर भी गिरा है। लोगों का कहना है कि शहरी विकल्प आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों से बेहतर होते हैं। 

भविष्य में इस बात की रोकथाम के लिए राज्य सरकारों और सिविल सोसाइटियों को आगे आने की जरूरत है। महामारी ने अभिभावकों, शिक्षकों, नीति निर्माताओं तथा अन्य हितधारकों को भी प्रभावित किया है। स्कूल लाइफ से आजादी पाने वाले कुछ बच्चे तो बेहद उत्साहित हैं। शालोम ने तो अपनी मां से यह वायदा किया है कि वह इस शर्त पर मास्क पहनेगी यदि उसे स्कूल में फिर से न भेजा जाए। भारतीय शिक्षा परिदृश्य पर यह कोई अच्छा संकेत नहीं।-अंजली भार्गव

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