संविधान के ‘मूलभूत ढांचे’ का महत्व

Edited By ,Updated: 11 Sep, 2020 03:48 AM

importance of  basic structure  of the constitution

हम लोकतांत्रिक भारत के लोगों को केशवानंद भारती स्वामी जी का धन्यवादी होना चाहिए जिनकी  मौलिक अधिकारों बारे ऐतिहासिक याचिका ने संविधान के मूलभूत ढांचे को बनाए रखने में हमारी मदद की। इस प्रक्रिया में उन्होंने निरंकुश शासन के संभावित चंगुल से देश को

हम लोकतांत्रिक भारत के लोगों को केशवानंद भारती स्वामी जी का धन्यवादी होना चाहिए जिनकी  मौलिक अधिकारों बारे ऐतिहासिक याचिका ने संविधान के मूलभूत ढांचे को बनाए रखने में हमारी मदद की। इस प्रक्रिया में उन्होंने निरंकुश शासन के संभावित चंगुल से देश को बचाया। 

इस ऐतिहासिक मामले के नायक का 6 सितम्बर को निधन हो गया। वह केरल के कासरागोड जिला में एडनीर मठ के प्रमुख थे। स्वामी जी के मामले को व्यापक आयाम देने का श्रेय देश के तत्कालीन प्रतिष्ठित अधिवक्ता नानी पालकीवाला को जाता है। उन्होंने इंदिरा गांधी शासन द्वारा लागू कई संवैधानिक संशोधनों को चुनौती दी, जिन्होंने संविधान में बदलाव करने के लिए संसद को असीमित शक्ति प्रदान की थी। केशवानंद भारती मामला कई मायनों से विलक्षण था। पहला, केस की सुनवाई 13 जजों की एक पीठ ने की, जो सुप्रीमकोर्ट में गठित सबसे बड़ी थी। 

दूसरा, इसकी सुनवाई अक्तूबर 1972 से मार्च 1973 तक 68 कार्यदिवसों में की गई। तीसरा, 703 पृष्ठों के बहुमत वाले निर्णय को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.एम. सीकरी द्वारा अपनी सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर रखा गया था। यह एक बहुत करीबी निर्णय था। उस दिन लोकतंत्र 7-6 की बहुत करीबी बढ़त के साथ विजयी हुआ था।चौथा, बहुमत के निर्णय ने एक मूलभूत ढांचा सिद्धांत को सामने रखा, जिसने संसद की  संशोधन करने की किसी भी तरह की उद्दंड शक्तियों को सीमित कर दिया जो संविधान प्रदत्त ‘आधारभूत ढांचे’ को प्रभावित कर सकती थीं जैसे कि धर्मनिरपेक्षता तथा संघवाद। पांचवां, इसमें यह भी व्यवस्था दी गई कि मौलिक अधिकारों को उनमें संशोधन करके छीना नहीं जा सकता। छठा, आधारभूत ढांचा सिद्धांत को एक बहुमत के निर्णय से अपनाया गया। 

निर्णय का आखिरी हिस्सा न्यायाधीश एच.आर. खन्ना द्वारा लिखा गया था। यहां यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि मूलभूत ढांचे को लेकर बहुमत निर्णयों में कोई सर्वसम्मति नहीं थी। इस मामले में प्रत्येक न्यायाधीश का अपना खुद का दृष्टिकोण था। फिर भी व्यापक तौर पर कहें तो मूलभूत ढांचे में मौलिक अधिकार, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, कानून के समक्ष नागरिकों की समानता आदि शामिल हैं। सूची को खुला छोड़ दिया गया है। इसके पीछे विचार विधायिका तथा कार्यपालिका को यह याद दिलाना था कि संविधान के ढांचे में कोई भी बदलाव गणतंत्र की मूलभूत भावना का उल्लंघन न करता हो। 

पीछे नजर डालें तो, दुख की बात है कि 24 अप्रैल 1973 को केशवानंद भारती मामले में निर्णय सुनाए जाने के बाद 25 जून 1975 को आपातकाल लागू कर दिया गया था। वह देश के राजनीतिक उतार-चढ़ावों का एक नाजुक समय था। उस समय न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा संसद की शक्तियों के बारे में भी प्रश्र पूछे जा रहे थे। इंदिरा गांधी की सरकार को बहुमत निर्णय पसंद नहीं आया। यह इस तथ्य से स्पष्ट था कि जस्ट्सि सीकरी के बाद जो तीन जज जे.एम. शेलट, ए.एन. ग्रोवर तथा के.एस. हेगड़े, भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में थे, उन्हें नजरअंदाज करते हुए जस्टिस ए.एन. रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया जिन्होंने बहुमत के निर्णय के खिलाफ अपनी आवाज उठाई थी। 

प्रसिद्ध न्यायविद् वी.एम. तारकुंडे ने कहा था, ‘‘यहां तक कि किसी भी अनुच्छेद में संशोधन किए बिना अनुच्छेद 358 तथा 159 में आपातकालीन शक्तियों को सैद्धांतिक रूप से इस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को सत्तासीन राजनीतिक दल के कार्यकाल को गत चुनाव के बाद के पांच वर्षों के समय से भी अधिक बढ़ाया जा सकता है, जबकि पार्टी जनसमर्थन खो चुकी हो।’’दिलचस्प बात यह है कि डा. बी.आर. अम्बेदकर भारतीय राजनीति में भविष्य के रुझानों को लेकर स्पष्ट थे। यही कारण है कि उन्होंने ‘हीरो-वॢशप’ यानी नायक पूजा जैसे शब्दों के साथ चेतावनी दी थी, जिनके बारे में उनका मानना था कि यह निश्चित तौर पर पतन तथा तानाशाही की ओर जाने का मार्ग है। यहां यह कहना महत्वपूर्ण है कि राजनीतिक आकाओं तथा उनके पिछलग्गुओं द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को लेकर संस्थानों की ताकत तथा प्रभावशीलता बढ़ाई जानी चाहिए। 

यहां यह याद रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र तब तक अस्तित्व में रह पाएगा जब तक सत्ताधारी दल के साथ-साथ विपक्ष में भी आंतरिक लोकतंत्र को बनाए रखा जाएगा। हम आपातकाल से पहले कांग्रेस में लोकतांत्रिक कामकाज के अभाव के बारे में जानते हैं। हालांकि अन्य दलों में भी खामियों तथा कमजोरियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वाभाविक है कि अस्वस्थ व्यवस्था ने फासीवादी ताकतों के लिए आगे आने का मार्ग प्रशस्त किया। निश्चित तौर पर बहुत कुछ संसद सदस्यों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि लोकतंत्र की एक प्रमुख संस्था होने के नाते संसद का विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल द्वारा भी सम्मान किया जाना चाहिए। इस संदर्भ में मैं यह अवश्य कहना चाहूंगा कि प्रतिस्पर्धात्मक नकारात्मकता किसी भी राजनीतिक दल की लम्बे समय तक लोगों में अपनी लोकप्रिय सद्भावना बनाए रखने में मदद नहीं करेगी। 

यह नागरिकों के लिए भी जरूरी है कि वे अपने दिमाग में रखें कि लोकतंत्र के लिए प्रभावी बचाव एक स्वतंत्र न्यायपालिका है विशेषकर किसी संकट के समय। उतनी ही प्रासंगिक है स्वतंत्र मानसिकता वाले मीडिया कर्मियों द्वारा निभाई गई भूमिका। उनसे आपातकाल जैसी स्थिति का सामना करने पर झुकने अथवा घुटनों के बल रेंगने की आशा नहीं की जाती। उतना ही महत्वपूर्ण यह याद रखा जाना है कि हमें किसी भी तरह की स्थितियों में नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी तथा रक्षा बारे सरकारों पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं करना चाहिए। स्वतंत्रता की कीमत निरंतर सजगता है। अंतिम विश्वेषण में मुझे याद आता है, जो भगवान बुद्ध ने एक समय अपने शिष्य आनंद को कहा था-अपने खुद में दीपक रोशन करो। 

उनके शिष्यों को उनकी सलाह साधारण तथा सीधी-सादी थी-अपने भीतर के ‘दीपक’ द्वारा मार्गदर्शन करने के लिए स्वतंत्र महसूस करो। मैं ‘दीपक’ को अंत:करण के रूप में देखता हूं। मेरा मानना है कि सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों की उनके भीतर के ‘दीपक’ (यानी कि अंत:करण) द्वारा मार्गदर्शन किए जाने की आशा की जाती है, न कि घोटालों से धन बनाने की लालसा तथा सत्ता के घमंड से। संविधान के मूलभूत ढांचे की रक्षा सजग नागरिकों द्वारा की जानी चाहिए।-हरि जयसिंह
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!