Edited By Pardeep,Updated: 28 Jul, 2018 02:53 AM
हाथ की रेखाएं पढऩे वाला ज्योतिषी किसी टेढ़े हाथ को देख कर, जिसके बारे में उसे ऐसा लगता है कि कुछ भी बोलना ‘हक’ में नहीं होगा, अक्सर ऐसा कहते मिलता है कि अभी रेखाएं पूरी बनी नहीं हैं, तो क्या पढ़ूं! ऐसा ही है पाकिस्तान की राजनीति का चेहरा भी। अभी...
हाथ की रेखाएं पढऩे वाला ज्योतिषी किसी टेढ़े हाथ को देख कर, जिसके बारे में उसे ऐसा लगता है कि कुछ भी बोलना ‘हक’ में नहीं होगा, अक्सर ऐसा कहते मिलता है कि अभी रेखाएं पूरी बनी नहीं हैं, तो क्या पढ़ूं! ऐसा ही है पाकिस्तान की राजनीति का चेहरा भी। अभी इतना बना ही नहीं है कि उसे पढ़ा जा सके और कुछ कहा जा सके। इसलिए हम बात पाकिस्तान की राजनीति की नहीं, इस चुनाव से उभरे इमरान खान की करेंगे जिन्हें पाकिस्तान के फौजी प्रतिष्ठान ने अपना आदमी मान कर सामने किया, उनका माहौल बनाया है और उनके लिए वोट बटोरे। इस तरह इमरान पाकिस्तान के वजीरे-आजम बनने को तैयार हैं।
पाकिस्तान के इतिहास में यह दूसरी घटना है जब एक चुनी हुई सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया है और वह दूसरी चुनी हुई सरकार को सत्ता सौंप रही है। इमरान पाकिस्तानी राजनीति की पिच पर बड़ी शिद्दत से अपना पहला ओवर फैंकने में जुटे हैं। वह अपनी भावी सरकार का नीति वक्तव्य भी दे रहे हैं जबकि उन्हें व किसी दूसरे को भी नहीं मालूम है कि एक मुल्क के नाते पाकिस्तान कहां खड़ा है और किधर जा रहा है। यह भी सवाल खड़ा है कि उनकी सरकार कौन चलाएगा। ये सब खासा दिलचस्प है और खतरनाक भी।
भारतीय उप-महाद्वीप में इमरान की दो ही छवियां हैं। एक है आला क्रिकेटर की और दूसरी है एक बिगड़ैल शोहदे की। ये दोनों छवियां राजनीति में उन्हें कोई मजबूत पहचान नहीं देती हैं। क्या इमरान की कोई राजनीतिक पहचान है भी? वह एक आत्ममुग्ध इंसान रहे हैं जिसने जीवन को भी खेल की तरह खेला है। उनके साथी खिलाड़ी भी उनके खिलाड़ी रूप के अलावा दूसरी कोई बात नहीं करते हैं और उनकी अब तक जितनी बीवियां रही हैं, उनमें से कोई भी उनकी एक अच्छी व गैरतमंद छवि की गवाही नहीं देती हैं। फिर पाकिस्तान ने उन्हें क्यों चुना? इमरान को इस सवाल का जवाब खोजना है क्योंकि इस जवाब में ही वह चुनौती छिपी है जिसका सामना वजीरे-आजम की कुर्सी पर बैठते ही उनको करना है।
यह हर तरफ से घिरा-पिटा-घबराया तथा अपमानित पाकिस्तान है जिसे एक खुली सांस की जुस्तजू है। लगातार फौजी बूटों से कुचली जाती आत्मा का यह मुल्क हर तरह से बेहाल कर दिया गया है। अशिक्षा-कुशिक्षा, गरीबी-जहालत,धार्मिक-जातीय उन्माद, आंतरिक अशांति और भारत का भूत, बेहिसाब राजनीतिक भ्रष्टाचार और फौजी हुक्मरानों का स्वार्थी गठजोड़-पाकिस्तान इन्हीं तत्वों से बनाया गया था, इन्हीं के हाथों बर्बाद होता रहा। पश्चिमी ताकतों ने इसका राजनीतिक दोहन किया, तो पाकिस्तानी हुक्मरानों ने इसे व्यापार में बदल लिया। मोहम्मद अली जिन्ना ने भारत से अपना मुल्क कुछ इस तरह छीना कि छीना-झपटी इसकी कुंडली में ही लिख गया। शिया-सुन्नी,मुहाजिर,अफगानी, सिंधी, हाफिज सईद जैसे सब इस मुल्क से छीनते ही रहे। बाकी सारी कसर भारत से हुए एक-के-बाद-दूसरे युद्धों ने निकाल दी। तिकड़मों से मुल्क पर कैसे काबिज होते हैं, यह कला सीखनी हो तो आपको पाकिस्तान जाना चाहिए।
पाकिस्तान की अवाम के आगे हमें सिर झुकाना चाहिए कि उसने ऐसे हालात में बसर करते हुए भी जब भी किसी ने जम्हूरियत का नारा लगाया, आगे बढ़ कर उसका साथ दिया। वह हर बार छला गया है और हर बार वह धूल झाड़ कर उठ खड़ा हुआ। इस चुनाव में इमरान ने ‘नया पाकिस्तान’ का नारा बुलंद किया था लेकिन इमरान की अपनी झोली में क्या नया था? पाकिस्तान के लिए क्रिकेट का विश्वकप जीतने के बाद इमरान ने अपना रास्ता बदला, क्योंकि क्रिकेट से जितना निजी गौरव निचोड़ा जा सकता था, उन्होंने निचोड़ लिया था। अपनी पहचान का नया पन्ना खोलने के लिए उन्होंने अपनी अम्मी की याद में अस्पताल बनवाने का अभियान चलाया और उसमें अपने सारे ताल्लुकात का इस्तेमाल किया। यह छवि बदलने का अभियान था जिसका अगला कदम राजनीति में पडऩा ही था जो 1996 में पड़ा और पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी का जन्म हुआ।
हर आत्ममुग्ध, अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति को राजनीतिक सत्ता अपनी पहचान स्थापित करने का सबसे आसान व निश्चित रास्ता दिखाई देती है-इमरान खान से नरेंद्र मोदी तक। पार्टी बनी तो अगला मुकाम चुनाव ही हो सकता था, सो गाजे-बाजे के साथ इमरान ने 1997 का चुनाव लड़ा। नतीजा यह आया कि इमरान ‘1997 के हाफिज सईद’ साबित हुए। फिर तो हर घिसे-पिटे राजनीतिज्ञ की तरह इमरान का भी यही काम बन गया-चुनाव लडऩा! 2002 में बमुश्किल अपनी सीट निकाल पाए थे इमरान। तब से आज तक पाकिस्तान के असली सवालों से जैसे कोई रू-ब-रू नहीं हुआ वैसे ही इमरान और उनकी पार्टी भी हुई ही नहीं। बेनजीर भुट्टो, आसिफ अली जरदारी, परवेज मुशर्रफ, नवाज शरीफ-ये सब के सब पाकिस्तान के एन.आर.पी. शासक रहे। जब तक गद्दी रही पाकिस्तान में रहे, गद्दी गई तो विदेश में धरी अपनी अकूत दौलत वाली आलीशान आरामगाहों में रहने लगे। इमरान पर अब तक ऐसी नौबत आई ही नहीं है क्योंकि शिखर पर तो वह अभी ही पहुंचे हैं। लेकिन उनका एक पांव हमेशा ही विदेश में रहता रहा है।
चुनाव में उनका नारा था-नया पाकिस्तान ! अब यही नारा उनके गले की फांस बन सकता है या फिर उन्हें आसमान में पहुंचा सकता है। कोई नहीं जानता है कि पाकिस्तान को नया बनाने की कोई परिकल्पना इमरान के पास है भी या नहीं। अपनी जीत के बाद वह जब लोगों से मुखातिब हुए तो कहा कि पाकिस्तान के मजलूमों के हालात कैसे सुधरेंगे, यह जानने के लिए वह स्वयं चीन जाना और ‘अपने’ लोगों को चीन भेजना चाहेंगे ताकि समझ सकें कि चीन वालों ने किस तरह अपने करोड़ों गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है। उनके पूर्ववर्तियों ने नए पाकिस्तान की खोज मुख्यत: अमरीका में की, कभी रूस में की, अभी चीन का नंबर है। इमरान भी पाकिस्तान की खोज चीन में करेंगे। पाकिस्तान की अपनी धरती में, अपने लोगों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे नए पाकिस्तान के निर्माण में मदद मिल सके? बाहरी ध्यान-ज्ञान तभी काम का होता है जब अपनी जमीन तैयार हो। चीन गए बिना ही चीन से यह सीखा जा सकता है।
पाकिस्तान के सामाजिक जीवन में बहुत बड़े पैमाने पर राजनीतिक-सामाजिक हस्तक्षेप की जरूरत है। शिक्षा का पूरा ढांचा नया करना है, वहां के लोक उद्योगों को प्रोत्साहित कर खड़ा करना है। फौज की पकड़ कमजोर करनी है, कठमुल्लों को उनकी जगह बतानी है, आपराधिक धंधों में लिप्त युवाओं को उनसे विरत करना है। अवैध हथियार व नशे का व्यापार इसे खोखला किए जा रहा है। आतंकी कारोबार पाकिस्तान से जोंक की तरह चिपका हुआ है। उसका आप्रेशन ही करना होगा जिसके रास्ते में फौज आएगी तो जिसके कंधे पर बैठ कर आप इस कुर्सी तक पहुंचे हैं, उससे कैसे निपटेंगे?
फिर भारत का सवाल मुंह बाए खड़ा है। भारत विरोध वहां के हर राजनीतिज्ञ के लिए संजीवनी बूटी माना जाता है। इमरान भी उसका ही सेवन करते रहे हैं। इसलिए उन्होंने अपने पहले संबोधन में कश्मीर की बात की। अगर भारत से ‘चीं’ बुलवाने की मंशा न हो तो कश्मीर अब कोई मुद्दा ही नहीं है। वक्त ने खुद ही उसे सुलझा दिया है। जरूरत है दोनों तरफ से राजनीतिक ईमानदारी व निर्णय लेने के साहस की। लेकिन अपने चुनावी प्रचार में इमरान ने जो भूमिका ली उसमें ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं देती है। इस मनोभूमिका में से नया पाकिस्तान नहीं निकलेगा। नया वजीरे-आजम या नई सरकार से देश नया नहीं बनता है। नए सपनों से देश नया बनता है। इमरान ने ऐसे सपने देखे हैं कभी? इमरान ने असल पाकिस्तान देखा है कभी?-कुमार प्रशांत