एक किस्सा पाठ्य पुस्तक में एमरजैंसी के अध्याय का

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Jun, 2018 03:07 AM

in an anecdote text book the chapter of emergency

एमरजैंंसी पर केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के बयान ने मुझे एक भूले-बिसरे किस्से की याद दिला दी। किस्सा एमरजैंसी के वक्त का नहीं, उसके 30 साल बाद का है लेकिन उसका संबंध इस सवाल से है कि हम एमरजैंसी को कैसे याद करें। जब भी इस किस्से को याद करता हूं...

एमरजैंंसी पर केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के बयान ने मुझे एक भूले-बिसरे किस्से की याद दिला दी। किस्सा एमरजैंसी के वक्त का नहीं, उसके 30 साल बाद का है लेकिन उसका संबंध इस सवाल से है कि हम एमरजैंसी को कैसे याद करें। जब भी इस किस्से को याद करता हूं तो विस्मय होता है, गर्व भी होता है। 

जयपुर में भाजपा द्वारा आपातकाल को काले दिवस की तरह मनाने वाले कार्यक्रम में बोलते हुए केन्द्रीय शिक्षा मंत्री ने कहा, ‘‘हमने यह तय किया है कि हम पाठ्यक्रम में बदलाव कर आपातकाल की सत्यता के बारे में विद्यार्थियों को भी बताएंगे ताकि इतिहास की सही व्याख्या हो सके।’’ शायद जावड़ेकर जी यह मान कर चल रहे थे कि अब तक पाठ्यपुस्तकों ने एमरजैंसी का जिक्र भी नहीं किया होगा। सोचते होंगे कि चूंकि ये पाठ्यपुस्तकें कांग्रेस सरकार के जमाने में लिखी गई थीं, इसलिए जाहिर है ऐसी सब सूचनाओं और घटनाओं को दबा दिया गया होगा। 

लगता है शिक्षा मंत्री का ध्यान किसी ने उनके ही मंत्रालय के तहत स्वायत्त संस्था एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित कक्षा 12 की राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तक ‘स्वतंत्रोत्तर भारत में राजनीति’ पर नहीं दिलाया। इस पुस्तक में न केवल एमरजैंसी का जिक्र है बल्कि इसका छठा अध्याय पूरा एमरजैंसी पर केन्द्रित है। इस अध्याय में एमरजैंसी के बारे में वह सब सच बताया गया है जो प्रकाश जावड़ेकर पाठ्यपुस्तकों में बताना चाह रहे हैं। सवाल है कि कांग्रेस सरकार के जमाने में लिखी गई इस पाठ्यपुस्तक में एमरजैंसी का पूरा सच कैसे बताया गया? यही वह किस्सा है जो अब सार्वजनिक होना चाहिए। 

सन् 2005 में प्रख्यात शिक्षाविद् और तात्कालिक एन.सी.ई.आर.टी. के निदेशक प्रोफैसर कृष्ण कुमार ने एन.सी.ई.आर.टी. की ओर से  प्रोफैसर सुहास पलशिकर और मेरे सामने प्रस्ताव रखा कि हम कक्षा 9 से कक्षा 12 तक की सभी राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखने के काम में मुख्य जिम्मेदारी संभालें। उनकी ङ्क्षचता यह थी कि पुस्तकें 2007 तक बनकर तैयार हो जाएं। हमारा आग्रह यह था कि हमें पाठ्यपुस्तक ही नहीं, सिलेबस भी सुझाने की आजादी हो और हम जो कुछ लिखें उससे छेड़छाड़ न की जाए। प्रो. मृणाल मीरी की अध्यक्षता में देश के अग्रणी विद्वानों की समिति ने हमें मुख्य सलाहकार नियुक्त किया और प्रो. हरी वासुदेवन की समिति ने नए सिलेबस को मान्यता दे दी। 

इस समझ के साथ उन एन.सी.ई.आर.टी. की पाठ्यपुस्तकों का लेखन शुरू हुआ जो आज भी स्कूलोंं में पढ़ाई जा रही हैं। देश के प्राय: सभी अग्रणी राजनीति शास्त्री इस प्रयास से जुड़े। मैंं उस जमाने में सैंटर फार स्टडी आफ डिवैङ्क्षल्पग सोसाइटीज (सी.एस.डी.एस.) में था और भारतीय राजनीति के जाने-माने विद्वान प्रो. पलशिकर तब पुणे विश्वविद्यालय में थे। इस पुस्तक में हमारे साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. उज्ज्वल कुमार भी थे। इन पुस्तकों से क्या हासिल हुआ, इसका फैसला तो इतिहास करेगा लेकिन ये पुस्तकें अब भी (थोड़ी बहुत काट-छांट और छेड़छाड़ के बावजूद) स्कूलोंं में पढ़ाई जा रही हैं और पाठक स्वयं इन्हें पढ़कर इन पर अपनी राय बना सकते हैं।

हमारी पहल पर 10+2 में राजनीति शास्त्र विषय लेने वाले विद्यार्थियों को स्वतंत्रता के बाद राजनीति का इतिहास पढ़ाने का फैसला हुआ। अब भला 1947 के बाद का इतिहास एमरजैंसी की चर्चा किए बिना कैसे लिखा जा सकता है? इसलिए हमने फैसला किया कि उस पाठ्यपुस्तक में एमरजैंसी पर पूरा एक अध्याय लिखा जाएगा: एमरजैंसी का उद्गम, उसके दौरान हुई तमाम घटनाएं, उससे जुड़े सभी विवाद और इतिहास के उस दौर के सबक। हमारे सभी साथी हैरान थे कि यह हम क्या करने जा रहे हैं! कुछ समझदार लोगों ने इशारा भी किया कि इस एक अध्याय के चक्कर में सारी पाठ्यपुस्तकें रुक सकती हैं, सब किया-धरा पानी में चला जाएगा लेकिन प्रोफैसर कृष्ण कुमार ने कभी हमें रोकने की कोशिश नहीं की। वे अपने वायदे पर कायम थे। 

किताब लिखी गई। एमरजैंसी वाले अध्याय में पाठ्यपुस्तक के अनुरूप एक संतुलित और तथ्यपरक भाषा में वे सब बातें लिखी गईं जो एमरजैंसी के बारे में बताई जानी चाहिएं: इंदिरा गांधी द्वारा अपने व्यक्तिगत संकट को राष्ट्रीय संकट का रूप देने की कोशिश, मंत्रिमंडल से चर्चा किए बिना एमरजैंसी की घोषणा, प्रैस सैंसरशिप, राजनीतिक विरोधियों का दमन, मानवाधिकारों का हनन, न्यायपालिका का समर्पण, तुर्कमान गेट और राजन कांड जैसी बर्बर घटनाएं। जो लिखा नहीं गया उसे कार्टून, तस्वीरों, अखबार की कतरनों के सहारे बता दिया गया। 

किताब की समीक्षा के लिए स्वर्गीय प्रो. गोविंद देशपांडे की अध्यक्षता में बनी विद्वतगणों की समिति ने जांच की, एमरजैंसी वाले अध्याय का सस्वर पाठ हुआ और बिना काट-छांट के स्वीकार कर लिया गया। मामला संवेदनशील था इसलिए प्रो. मृणाल मीरी की अध्यक्षता वाली समिति ने दोबारा इसकी समीक्षा की और पास कर दिया। सब जानते थे कि इस अध्याय के चलते कुछ भी अनर्थ हो सकता था लेकिन इतना कहना चाहिए कि प्रो. कृष्ण कुमार या किसी भी वरिष्ठ समिति ने हमें रोकने या बदलने की कोशिश भी नहीं की। उसके बाद प्रोफैसर कृष्ण कुमार ने एक अनुरोध किया कि इस पाठ्यपुस्तक को प्रैस में भेजने से पहले शिक्षा मंत्री को दिखा लिया जाए। ‘अगर संसद में बात चलती है तो जवाब तो मंत्री को देना होगा। हम तो वहां होंगे नहीं।’ प्रो. सुहास पलशिकर और मैंने यह मान लिया।

उस जमाने में स्वर्गीय अर्जुन सिंह शिक्षा मंत्री थे। सच कहूं तो मेरी उनके बारे में बहुत अच्छी राय नहीं थी। इसलिए जब 15 दिन बाद उनके दफ्तर से फोन आया कि मंत्री जी आपसे मिलना चाहते हैं तो मेरा मन सशंकित हुआ। प्रोफैसर कृष्ण कुमार को भी बुलाया गया था और उन्होंने स्वर्गीय प्रोफैसर यशपाल को अनुरोध कर साथ ले लिया था। देश के मूर्धन्य वैज्ञानिक प्रो. यशपाल एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा पुस्तक लेखन की इस पूरी प्रक्रिया का निर्देशन कर रहे थे। औपचारिकताओं के बाद बात वहीं पहुंची जिसका हमें संदेह था: एमरजैंसी वाला अध्याय। मंत्री जी ने एक-एक शब्द पढ़ा हुआ था लेकिन प्रश्न उनके बाबू पूछ रहे थे। ‘आप लिखते हैं कि एमरजैंसी भारतीय लोकतंत्र का सबसे विवादास्पद दौर था?’ मैंने पलट कर पूछा ‘नहीं था क्या?’। बात तुर्कमान गेट और राजन कांड की हुई, मैंने बताया कि सारी सूचनाएं शाह आयोग की रिपोर्ट से ली गई हैं ‘लेकिन कांग्रेस ने उसका बहिष्कार किया था!’ मैंने कहा उससे क्या फर्क पड़ता है, संसद के पटल पर आज भी वह एमरजैंसी के बारे में रखा गया एकमात्र प्रामाणिक दस्तावेज है। 

अर्जुन सिंह सारी बातचीत को बहुत ध्यान से सुन रहे थे, मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। अंत में मेरी ओर मुड़े व पूछा ‘प्रोफैसर साहब, आपको लगता है हमारे बच्चे इस कड़वे सच के लिए तैयार हैं? हमारा लोकतंत्र इतना मैच्योर हो गया है?’ मैंने कुछ भारी-भरकम जवाब देना शुरू किया था कि यशपाल जी ने मुझे काटा और कहा ‘सर, अब बच्चों को पंख लगाकर उडऩे दीजिए’’। अर्जुन सिंह ने कुछ क्षण के लिए आंखें बंद कीं और फिर कहा ‘‘ठीक है। जैसी आपकी इच्छा’’। अध्याय बिना कॉमा- फुल स्टॉप बदले ज्यों का त्यों छपा और आज भी प्रकाश जावड़ेकर जी के अवलोकन के लिए उपलब्ध है। इस किस्से और इस अध्याय को पढ़कर जावड़ेकर जी और वर्तमान सरकार क्या सीख सकते हैं, यह मैं उन पर छोड़ता हूं।-योगेन्द्र यादव

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