ब्रिटेन में ‘कानून का शासन’ ही वहां की मुख्यधारा है

Edited By Punjab Kesari,Updated: 22 Jun, 2018 03:30 AM

in britain the rule of law is the mainstream

‘डेली टैलीग्राफ’ में तीन कॉलमी एक सुर्खी ने बरबस ही मेरा ध्यान खींच लिया : ‘‘हजारों नए कुशल प्रवासियों के लिए दरवाजे खुल गए।’’ रोम तथा यूरोप के अन्य स्थानों पर मैंने जिस प्रकार का प्रवासी विरोधी राग सुना था, उसके मद्देनजर यह सुर्खी बहुत ही तरोताजा...

‘डेली टैलीग्राफ’ में तीन कॉलमी एक सुर्खी ने बरबस ही मेरा ध्यान खींच लिया : ‘‘हजारों नए कुशल प्रवासियों के लिए दरवाजे खुल गए।’’ रोम तथा यूरोप के अन्य स्थानों पर मैंने जिस प्रकार का प्रवासी विरोधी राग सुना था, उसके मद्देनजर यह सुर्खी बहुत ही तरोताजा करने वाली महसूस हुई। इससे भी अधिक ध्यानाकर्षण था गृहमंत्री का नाम -साजिद जावेद।  वह प्रधानमंत्री टेरेसा मे के मंत्रिमंडल में तीसरे उच्चतम पदाधिकारी हैं। उन्होंने ही पूर्व नीति को पलटने वाला यह बयान दिया था जो अखबारों की सुर्खी बना था। 

पाकिस्तानी मूल के माता-पिता के 48 वर्षीय इस बेटे ने किसी जमाने में मात्र 500 पौंड का ऋण लेकर अपना व्यवसाय शुरू किया था और जब वह ड्यूश बैंक का मैनेजिंग डायरैक्टर बना तो कंजर्वेटिव पार्टी के साथ वह घनिष्ठ संबंध बनाने में सफल रहा। राजनीतिक दौर में लेबर पार्टी से संबंधित लंदन के महापौर सादिक खान ने भी साजिद की तुलना में कोई कम फुर्तीलापन नहीं दिखाया। अभी वह मात्र 41 वर्ष के हैं परन्तु ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में कुछ समय तक परिवहन मंत्री के तौर पर काम करके वह अपनी प्रतिभा की धाक जमा चुके हैं। सादिक खान बहुत गर्व से कहते हैं : ‘‘ब्रिटेन के मंत्रिमंडल की मीटिंगों में बैठने वाला मैं प्रथम मुस्लिम हूं।’’ 

2017 में जब डोनाल्ड ट्रम्प ने ब्रिटेन के सरकारी दौरे पर आना था तथा अन्य लोगों के साथ दावत में शामिल होना था तो उनके रास्ते में कंजर्वेटिव पार्टी ने यह कह कर एतराज खड़ा किया था : ‘‘मुस्लिम देशों पर प्रतिबंध लगाने वाले अमरीकी राष्ट्रपति की मेहमाननवाजी हम कैसे कर सकते हैं? हमारे यहां तो मेयर भी मुस्लिम है और इसलिए ट्रम्प के सरकारी दौरे का सवाल ही पैदा नहीं होता।’’ हाऊस ऑफ लाडर्स के कमेटी रूम नं. 1 में ‘इंडिया एट 70 : नेहरू टू मोदी’ के विषय पर परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए लार्ड मेघनाद देसाई ने कहा था : ‘‘इस देश में ऐसे दो मुस्लिम हैं जो प्रधानमंत्री पद के दावेदारी ठोंकने की स्थिति में हैं।’’ तब मौके पर ही यह सवाल उभरा : ‘‘क्या मुस्लिम अपनी जन्मभूमि (यानी भारत) में भी इस तरह की महत्वाकांक्षाएं पाल सकते हैं जबकि वहां उनका एक हजार वर्ष का इतिहास है?’’ 

गत वर्ष किंग्स कालेज लंदन में ऐसी ही एक परिचर्चा में किसी ने इंगलिश क्रिकेट टीम में 4 मुस्लिमों की मौजूदगी की ओर संकेत किया। अब की बार तो मुझे लगता है कि डब्ल्यू जी गे्रस से भी लम्बी दाढ़ी वाले और हमेशा टीम में बने रहने वाले मोइन अली भी टीम में शामिल नहीं हैं। इतराने और कुम्हलाने की यह प्रक्रिया मैरिट की सतत् तलाश का प्रमाण है। यह मुस्लिमों के उत्थान पर कोई उच्चतम सीलिंग नहीं है बल्कि गुणवत्ता की छलनी है जो लगातार क्रियाशील रहती है। 9/11 से आतंक के विरुद्ध जो जंग शुरू हुई थी उससे अधिकतर लोकतंत्रों में सत्ता को पीछे से नियंत्रित करने वाले लोगों के हाथों में कुछ असाधारण शक्तियां आ गई थीं और ब्रिटेन में भी ऐसा ही हुआ था लेकिन  इस देश में कानून का राज कुछ इतना प्रबल था कि संस्थागत स्तर पर पूर्वाग्रह गहरी जड़ें नहीं पकड़ पाए। लंदन से मैनचैस्टर तक की संक्षिप्त सी यात्रा मेरे लिए आंखें खोलने वाली थी। 

ब्रिटेन की नैशनल हैल्थ सर्विस के एक विख्यात मनोचिकित्सक ने मेरी बहन से शादी रचाई थी और तीन वर्ष पूर्व मस्तिष्काघात होने के समय से वह बिस्तर पर ही था। अस्पतालों में उसकी जितनी सेवा-संभाल हो रही थी उस पर आंखों से देखने से ही विश्वास किया जा सकता है। चौबीस घंटे और सातों दिन डाक्टरी निगरानी में उसका इलाज चलता है। दिनभर बारी-बारी से उसकी देखभाल करने वाले अंग्रेज एक प्रकार से उनके पारिवारिक सदस्य ही बन चुके हैं। यदि यह कहा जाए कि मेरी बहन द्वारा तैयार किए जाने वाले लजीज पकवानों की वजह से वह परिवार का हिस्सा बन गए हैं तो यह उन पर आक्षेप लगाने जैसा होगा। 

एक शाम मुझे इफ्तार के बाद ‘सर्वधर्म’ परिचर्चा के लिए आमंत्रित किया गया। यह परिचर्चा मेरे लिए काफी स्तब्ध करने वाली थी क्योंकि इसका विषय था : ‘‘वेव ऑफ पापुलिज्म इन यूरोप।’’ फिर भी यह चर्चा बहुत गरिमापूर्ण थी। इससे पहले लंदन में मैंने लेबर पार्टी के नेता जैरेमी कोरविन, स्थानीय रबी (यहूदी धर्मोपदेशक), विभिन्न चर्चों के पादरियों के साथ मुलाकात की थी। चर्चों में तो मैंने फिंसबरी पार्क मस्जिद के बाहर ‘स्ट्रीट इफ्तार पार्टी’ में भी शिरकत की थी। इस पार्टी में अंग्रेजों की हिस्सेदारी बहुत स्निग्धतापूर्ण थी। 

आतंक के विरुद्ध लड़ाई में जहां-तहां मुस्लिमों को लक्ष्य बनाया जाना  दुर्भाग्यपूर्ण था, खासतौर पर टोनी ब्लेयर के कार्यकाल दौरान। लेकिन उस दौर की ज्यादतियों ने आम लोगों में अपराधबोध के साथ-साथ करुणा की भावना भी पैदा कर दी थी। फिर भी ब्रिटेन में मुस्लिमों पर आतंक के नाम पर बनाए गए फोकस के मद्देनजर वहां रहने वाले समूचे दक्षिण एशियाई समुदाय की अनदेखी नहीं की जा सकती। हाल ही के अध्ययन से खुलासा हुआ है कि दक्षिण एशियाइयों में से जनता की नजरों में पाकिस्तानियों की छवि सबसे नकारात्मक है। गत माह 1668 ब्रितानी वयस्कों को यह पूछा गया कि भारतीय, बंगलादेशी और पाकिस्तानी यू.के. के जनजीवन में सकारात्मक प्रभाव पैदा करते हैं या नकारात्मक। इन सब में से सकारात्मक छवि की दृष्टि से भारतीय कोसों आगे पाए गए। 

जिन लोगों से प्रश्र पूछे गए, उनमें से 25 प्रतिशत लोगों ने कहा कि भारतीयों का योगदान सकारात्मक है। जब सकारात्मक और नकारात्मक आंकड़ों की तुलना की गई तो पाकिस्तानियों का स्कोर -4 तथा बंगलादेशीयों का -3 पाया गया। स्पष्ट है कि अपनी आबादी की दृष्टि से इन दोनों देशों के बहुत कम मुस्लिम उच्च पदों पर पहुंच पाए हैं जबकि विभिन्न करियरों में उच्च पदों पर आसीन दक्षिण एशियाइयों में से अधिकतर हिन्दू ही हैं। इस असंतुलन की जड़ें भारत के सामाजिक इतिहास में से ढूंढी जा सकती हैं। बहुसंख्यक समुदाय ने 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों दौरान ही पश्चिम शिक्षा का अनुसरण कर लिया था जबकि  मुस्लिम बहुत लम्बे समय तक अपने सामंतवादी दौर की यादों तथा समृद्ध उर्दू संस्कृति में ही फंसे रहे। 

अपने प्रारंभिक वर्षों में मैंने देखा था कि 50 वर्ष पूर्व गोरा नस्लवादी इनोक पॉविल किस प्रकार एशियाई प्रवासियों के विरुद्ध जहर उगला करता था। उस दौर में उदारवादी मीडिया ने पॉविल को जोरदार आलोचना का निशाना बनाया हुआ था। एक बार तो ऐसा लगा कि पॉविल का प्रभाव कम हो रहा है लेकिन जल्दी ही ब्रिटेन में गलियों और सड़कों पर नस्लवाद की एक नई लहर देखने को मिली जिसका नारा था, ‘पाकियों को मारो।’ लेकिन ब्रिटेन में इस प्रकार के उतार-चढ़ाव कभी भी मुख्य धारा का रूप ग्रहण नहीं कर पाए। कानून का राज ही वहां की मुख्य धारा बना रहा और यही वह आधार है जो मुख्य तौर पर साजिद जावेद और सादिक खान जैसों के उत्थान का कारण बना है। 

वैसे संतरों और सेबों की आपस में तुलना करना बेहूदगी भरा है। हमारी सभ्यता का खजाना अपने आप में अप्रतिम है और हमारी विभिन्नता आश्चर्यचकित कर देने वाली है। हमारे देश में भी ब्रिटेन जैसा घटनाक्रम साकार हो सकता था लेकिन हमारे राजनीतिज्ञों ने पहले दिन से ही सब गुडग़ोबर कर दिया।-सईद नकवी

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