बाढ़ के हालात पैदा करने में प्रकृति से अधिक भूमिका इंसान की

Edited By Punjab Kesari,Updated: 04 Aug, 2017 11:25 PM

in creating conditions of flood more than nature role

हमारे देश की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि कहीं भीषण गर्मी, उमस भरा वातावरण तो कहीं घनघोर वर्षा और...

हमारे देश की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि कहीं भीषण गर्मी, उमस भरा वातावरण तो कहीं घनघोर वर्षा और कुछ स्थानों पर जबरदस्त सर्दी पड़ती है। कुदरत का यह वरदान जहां हमें सभी तरह के मौसमों का आनंद देता है, वहां अगर किसी मौसम का मिजाज बिगड़ जाए तो आपदाएं और मुसीबतें जनजीवन को अस्त-व्यस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। 

इन दिनों देश के अधिकांश भागों में वर्षा ऋतु अपने पूरे यौवन पर है। सावन बीत रहा है, भादों की शुरूआत होने जा रही है और इसी के साथ ये खबरें भी आ रही हैं कि जहां सामान्य वर्षा होने से लोग खुश हैं, वहां निरन्तर बारिश से दैनिक कामकाज में रुकावट हो रही है और कई जगह जबरदस्त बाढ़ का प्रकोप सामने आ रहा है। बाढ़ का मतलब है पानी का नदियों-नालों, झील, तालाबों और बांधों को लबालब भर देने के बाद रिहायशी इलाकों, खेत-खलिहानों, बस्तियों, चौराहों और सड़कों में भर जाना और जलप्रलय जैसा दृश्य पैदा कर देना। ड्रेनेंज सिस्टम अगर ठीक है तब तो गनीमत है वरना पानी का कहर बनकर बरपा होना तय है। 

हालांकि, दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां बाढ़ न आती हो लेकिन हमारे देश में इसका आतंक कुछ ऐसा है कि मानो शिवजी का तांडव नृत्य शुरू हो गया हो। नदी तटों को छिन्न-भिन्न करते हुए जल प्रभावित इलाकों में प्रलय का रूप ले लेता है। घर, मकान, कल कारखाने सब कुछ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप एक विशाल आबादी घर बार से लेकर रोजगार तक से वंचित हो जाती है।

लीपापोती की शुरूआत: संचार माध्यमों से लेकर विधान सभाओं और संसद में बहस शुरू हो जाती है। एक-दूसरे पर आरोप लगाने और कमियां निकालने के बाद हाथ पर हाथ धरकर बैठने का वक्त आ जाता है क्योंकि तब तक वर्षा रानी के विदा होने का वक्त आ जाता है और अगले वर्ष ये सब कुछ एक बार फिर दोहराया जाता हुआ देखने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। पता नहीं क्यों हमारे राजनेताओं, नीतियां बनाने वालों और प्रशासनिक व्यवस्था चलाने के जिम्मेदार अधिकारियों को पर्यावरण वैज्ञानिकों, भूगर्भशास्त्रियों और नदियों के विशेषज्ञों की यह साधारण-सी बात समझ में नहीं आती कि नदियों की फितरत है कि वे अपनी मर्जी से अपना रास्ता बदल लेती हैं, पानी को जहां जगह मिलती है वहां समा जाता है। 

इन्सान अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने के लिए प्रसिद्ध है और तब तक मारता रहता है जब तक उसके स्वयं का अस्तित्व खतरे में पडऩे की नौबत न आ जाए। मिसाल के तौर पर हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि वर्षा होने और उसे अपने अन्दर समाने के लिए वन क्षेत्रों का होना जरूरी है परन्तु हमने जंगलों का सफाया करने का बीड़ा उठा लिया है। नतीजा यह हुआ कि पहाड़ नंगे होने लगे और मैदान सफाचट। पहाड़ टूटने लगे और टूट कर नदियों में गिरने लगे। हमारे लिए यह भी फायदे का सौदा था क्योंकि बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बनाने के लिए पत्थरों का इंतजाम हो गया, नदियों में अवैध खनन शुरू हो गया और रेत की तस्करी से तो मालामाल होने का रास्ता ही खुल गया। यही नहीं, हमने पानी के लिए कुदरत के बनाए आशियानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया जैसे कि  ‘वैट लैंड ’, जिनका जिक्र शायद कुछ समय बाद किताबों में ही मिले। अब जब पानी जमा होने की जगह ही हथिया ली तो जल प्रलय होगी ही, इसमें आश्चर्य की क्या बात है? 

नदियों की सफाई के नाम पर 2-4 वर्ष नहीं, दशकों से योजनाएं बन रही हैं, जो ज्यादातर कागजों तक ही सीमित हैं। नदियों में जो गाद जमा हो जाती है, अगर उसकी सफाई बराबर होती रहे तो यह खेतों के लिए उपज में बढ़ौतरी का महत्वपूर्ण साधन है। जिस तरह दीपावली से पहले हम अपने घरों की सफाई करते हैं, उसी तरह अगर बरसात के बाद नदियों में जमा गाद की सफाई का इंतजाम हो जाए तो उनका जलस्तर बना रहेगा। अभी होता यह है कि सफाई न होने से नदी का जलस्तर ऊंचा हो जाता है और जब बारिश होती है तो पानी छलांगें मारता हुआ इधर-उधर दौडऩे लगता है और हमारे लिए मुसीबत बन जाता है। 

प्रकृति का विरोध: शहर बनाने वाले और बड़ी-बड़ी इमारतों की नींव रखने वाले यह भूल जाते हैं कि भूमि पर कुदरत के बनाए अन्य जीवों का भी कुछ हिस्सा होता है। उदाहरण के लिए नदियों में अनेक जलचरों की जातियां रहती हैं। जब हम नदियों का खनन करते हैं, आसपास की जगह पर भवन निर्माण करने लगते हैं तो पानी में रहने वाले ये जीव विस्थापित बन जाते हैं और इनका समाप्त होना निश्चित है। इससे जलस्रोतों का जो प्राकृतिक संतुलन है वह बिगड़ जाता है और जब हम इन जलस्रोतों में कैमिकल और घरों से निकली गन्दगी बहा देते हैं तो फिर जल प्रदूषण से कैसे बच सकते हैं, जरा सोचिए! वर्षा का अधिकांश जल भूजल के रूप में धरती सोख लेती है ताकि जब इन्सान को जरूरत हो तो वह इस अन्डरग्राऊंड वाटर को निकाल ले। अब होता यह है कि कैमिकल और वेस्ट मिलकर इस भूजल को दूषित कर देते हैं, जो पीने और सिंचाई के काम आने के भी योग्य नहीं रहता। 

कई दशक पहले राष्ट्रीय बाढ़ आयोग बना था। उसकी रिपोर्ट पर न जाने कितनी धूल अब तक जम गई होगी। इसी तरह नदियों को जोडऩे की योजना बनी थी, उस पर अमल कब होगा, कोई नहीं जानता, नदियों की सफाई करने की योजनाएं तो लगभग रोज ही बनती रहती हैं। ड्रेनेज के सुधार की बात भी सामने आती है।    लिक्विड और सॉलिड वेस्ट से खाद बनाने की भी चर्चाएं होती रहती हैं। नदियों में बड़े जहाज चलाने की बात सुनाई देती है। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो हिम्मत से उसका सामना करने की आवाजें कान में सुनाई पडऩे लगती हैं परन्तु हकीकत यह है कि चाहे हम आजादी की 70वीं वर्षगांठ का अभूतपूर्व जश्न मना लें लेकिन पानी जैसी बुनियादी जरूरत की सही व्यवस्था करने से बहुत दूर हैं। 

इन सब बातों से हटकर इस समय तात्कालिक आवश्यकता यह है कि बाढ़ से होने वाली जन-धन की हानि को कम से कम कैसे किया जाए? बाढग़्रस्त क्षेत्रों में रहने वालों के लिए जरूरी है कि कुछ जरूरी चीजों का इंतजाम कर लें, जैसे कि बाढ़ की चेतावनी मिलते ही घर-बार का मोह त्याग दें, अपने परिवार को किसी ऊंचेे सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने की योजना बना लें, कम से कम एक सप्ताह के लिए पर्याप्त खाने-पीने की सामग्री जुटा लें, जरूरी दवाइयां साथ में रख लें, टार्च, बिस्तर और जरूरी कागजात संभाल लें। सबसे बड़ी बात यह कि किसी भी परिस्थिति में धैर्य का दामन न छोड़ें, अफवाहों से बचें और राहत कर्मियों द्वारा राहत सामग्री पहुंचने तक अफरा-तफरी न करें। बाढ़ के हालात पैदा करने में कुदरत से ज्यादा इन्सान की ही भूमिका है। इसलिए जो लोग प्राकृतिक संसाधनों का केवलमात्र दोहन करने में ही लगे रहते हैं, वे तनिक यह सोचें कि ऐसा करने से वे स्वयं अपने लिए फांसी का फंदा तो तैयार नहीं कर रहे हैं, जो उन्हें सांस लेने तक का मौका नहीं देगा।    
 

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