वास्तविक शक्ति शस्त्रों में नहीं आर्थिक समृद्धि में होती है

Edited By Pardeep,Updated: 14 May, 2018 03:59 AM

in real power no weapons are in economic prosperity

11 और 13 मई 1998 को भारत ने राजस्थान की पोखरण चांदमारी में पांच परमाणु धमाके किए थे। यह परीक्षण प्रथम परमाणु टैस्ट के 24 वर्ष बाद दोहराया गया था। वह परीक्षण भी पोखरण में ही हुआ था। तब इंदिरा गांधी ने उन शर्तों का उल्लंघन किया था जिनके अंतर्गत कनाडा...

11 और 13 मई 1998 को भारत ने राजस्थान की पोखरण चांदमारी में पांच परमाणु धमाके किए थे। यह परीक्षण प्रथम परमाणु टैस्ट के 24 वर्ष बाद दोहराया गया था। वह परीक्षण भी पोखरण में ही हुआ था। तब इंदिरा गांधी ने उन शर्तों का उल्लंघन किया था जिनके अंतर्गत कनाडा से परमाणु टैक्नालोजी आयात की गई थी। इस परीक्षण के कारण भारत को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा था। 

भारत का प्रथम परमाणु परीक्षण ऐसे दौर में हुआ था जो निर्णायक रूप में अस्थिरता भरा था। उससे 10 वर्ष पूर्व 1960 के दशक के मध्य में ही चीन परमाणु शक्ति बन चुका था और संयुक्त राष्ट्र के वीटोधारक सदस्यों में से अंतिम था। यह एक ऐसा दौर था जब अधिकतर विश्व युद्धों में संलिप्त था। अमरीका वियतनाम में एक खूनी जंग की समाप्ति की ओर बढ़ रहा था और अफगानिस्तान में रूसी आक्रमण कुछ ही वर्षों की दूरी पर रह गया था। ऐसे समय में इंदिरा गांधी ने परमाणु परीक्षण की अनुमति दी थी। 

70 के वर्षों में देशों में टकराव एक सामान्य बात थी और यह पूर्वानुमान लगाना बहुत कठिन था कि किस पल क्या हो सकता है। कोरियाई युद्ध दौरान अमरीका के शीर्ष जनरल मैक्कार्थुर ने चीन और उत्तर कोरिया के विरुद्ध परमाणु हमलों की धमकी इतने सामान्य ढंग से दी थी कि अमरीकन लोग भी सांसत में आ गए थे। 48 वर्ष पूर्व की इस पृष्ठभूमि में ही इंदिरा गांधी को परमाणु परीक्षणों का फैसला लेना पड़ा था। अटल बिहारी वाजपेयी के अंतर्गत 1998 में ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। यह ऐसा दौर था जब शीत युद्ध समाप्त हो चुका था और सोवियत यूूनियन धराशायी हो चुका था व दुनिया सूचना टैक्नालोजी के मोड़ पर खड़ी थी। इस जमाने में यह स्पष्ट हो चुका था कि बेंगलूर ही नई सेवाओं का दिलेरी से नेतृत्व करते हुए भारत को शानदार आर्थिक भविष्य की ओर ले जाएगा। 

यह एक ऐसा दौर था जब ताईवान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और अन्य एशियाई देशों के आर्थिक अभ्युदय ने यह सिद्ध कर दिया था कि वास्तविक शक्ति हथियारों में नहीं आर्थिक समृद्धि में होती है। उत्तर कोरिया सैन्य दृष्टि से बहुत शक्तिशाली था लेकिन इसके करोड़ों नागरिक भुखमरी के कगार पर थे और इसी कारण यह कोई विशेष उपलब्धि दर्ज नहीं कर सका। 1998 में परमाणु परीक्षणों के विषय में हमारे यहां कोई चर्चा नहीं हुई थी। वाजपेयी सरकार वास्तव में अपने पूर्ववर्ती 13 दिवसीय कार्यकाल दौरान ही ऐसा परीक्षण करना चाहती थी लेकिन भयभीत नौकरशाही ने यह कहकर अडंग़ा लगा दिया कि वह इससे सहमत नहीं। इससे यही पता चलता है कि परमाणु परीक्षणों को कितने सरसरी ढंग से लिया गया था। 

इन परीक्षणों के बाद जश्र मनाए गए, पटाखे फोड़े गए और मिठाइयां बांटी गईं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि इस संबंध में कोई वाद-विवाद और चर्चा न हो। कुछ मूलभूत सवाल भी नहीं पूछे गए थे। 20 वर्ष बाद जब इन धमाकों से जुड़़ी भावनाएं ठंडी पड़ गई हैं और यह मुद्दा हमें कुरेद रहा है तो हमें इन प्रश्रों पर दृष्टिपात करने की जरूरत है: 

पहला : क्या इन परीक्षणों ने भारत को परमाणु सम्पन्न शक्ति बना दिया था? इसका उत्तर है नहीं। 1974 के बाद विश्व ने इंडिया और इंदिरा दोनों को दंडित करते हुए केवल इसलिए परमाणु टैक्नालोजी तक हमारी पहुंच का रास्ता रोक लिया था क्योंकि हमने परमाणु कार्यक्रम का सशक्तिकरण करके पहले की हुई संधि की शर्तों का उल्लंघन किया था। 1998 के परीक्षणों ने इसी घटनाक्रम को दोहराया था। 

दूसरा : क्या इन परीक्षणों से भारत की सुरक्षा अधिक पुख्ता हुई थी? इसका उत्तर भी है नहीं। पोखरण के एक वर्ष बाद मई 1999 में पाकिस्तान ने कारगिल में पंगा लिया था जिसमें हमारे 500 जवान शहीद हो गए थे। इसके 10 वर्ष बाद हमें मुम्बई पर आतंकी हमला झेलना पड़ा था। कश्मीर में टकराव का सबसे ङ्क्षहसक दौर वास्तव में पोखरण के बाद ही 2001 में शुरू हुआ था, जब 4500 लोगों की मौत हुई थी। 

तीसरा : क्या  इन परीक्षणों से हमारी परमाणु टैक्नालोजी में सुधार हुआ? इसका उत्तर भी नकारात्मक है। मनमोहन सिंह सरकार ने संयुक्त राज्य अमरीका के साथ समझौता किया था लेकिन यह किसी ओर-छोर पर नहीं पहुंच पाया था। चौथा : क्या इन परीक्षणों से भारत की हैसियत में बढ़ौतरी हुई है? इसका उत्तर भी है नहीं। भारत लम्बे समय से यह आग्रह करता आ रहा है कि उसे सुरक्षा परिषद की सदस्यता मिलनी चाहिए लेकिन परमाणु परीक्षणों से हमें यह दर्जा हासिल करने में कोई सहायता नहीं मिली। अधिक सम्भव तो यह है कि इनसे हमें नुक्सान ही हुआ। नरेन्द्र मोदी ने फैसला लिया कि भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एन.एस.जी.) का सदस्य बनना चाहिए, लेकिन यह सदस्यता हासिल करके भी हम किसी मंजिल पर नहीं पहुंच पाए। 

पांचवां : क्या इन परीक्षणों की बदौलत परमाणु टैक्नालोजी की सहायता से हम अधिक बिजली पैदा कर पाए हैं? इसका उत्तर भी नहीं है। अब बिजली जरूरतों के लिए भारत का फोकस परमाणु की बजाय सौर ऊर्जा पर बन गया है। छठा : क्या इन परीक्षणों से दक्षिण एशियाई खित्ते में सत्ता समीकरणों में कोई बदलाव आया है? नहीं, कदापि नहीं। पोखरण परीक्षणों के कुछ ही दिन बाद पाकिस्तान ने ब्लूचिस्तान के चगई इलाके में परमाणु परीक्षण किया था। 

आज की स्थिति यह है कि उपमहाद्वीप में परमाणु शक्ति की दृष्टि से गतिरोध बना हुआ है। हम परम्परागत शक्ति वर्चस्व को प्रयुक्त करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं क्योंकि अब यह डर बना रहता है कि टकराव अधिक भड़क न जाए। चीन ने हमारे खित्ते में अपनी अार्थिक प्राथमिकताओं को बहुत मजबूती से बढ़ावा देना जारी रखा हुआ है और आज हम चीन की सैन्य शक्ति से इतने ङ्क्षचतित नहीं हैं बल्कि अधिक चिंतित इस बात से हैं कि उसने हमसे विकल्पों की काबिलियत ही छीन ली है। 

आज पाकिस्तान वास्तव में अनेक सूत्रों के अनुसार परमाणु उपकरणों की संख्या के मामले में हमसे काफी आगे है। इस बात पर कोई विवाद नहीं कि 1998 के कारनामे ने ही हमें इस स्थिति में धकेला है। ये ऐसे सवाल हैं जो हमें खुद से 1998 में  पूछने चाहिए थे, लेकिन हमने ऐसा नहीं किया। किसी भी परिपक्व समाज और विशेष रूप में लोकतंत्र को उन बातों पर विस्तृत चर्चा करनी चाहिए जिनके दूरगामी परिणाम होने हों। हमने तो परमाणु विस्फोटों को मात्र दीवाली के पटाखे ही समझ लिया था। यह सब जानते हुए हम अभी भी क्या परमाणु धमाकों की नीति को आगे नहीं बढ़ा रहे? 

इस बात का फैसला मैं पाठकों पर छोड़ता हूं। मैं ऐसा एक भी लाभ नहीं गिनवा सकता जो इन परमाणु परीक्षणों के कारण हुआ हो। मैं एक महत्वपूर्ण नुक्सान की ओर इंगित करूंगा जो परमाणु परीक्षण के कारण हुआ। पिछली शताब्दी की अंतिम चौथाई में 1998-99 ही एकमात्र ऐसा वर्ष था जिसमें विदेशी निवेश का आंकड़ा विशुद्ध रूप में नकारात्मक रहा था। 

उस वर्ष में विदेशी पैसा भारत से बाहर की ओर भागा था क्योंकि पूंजी हमेशा डरपोक होती है और ऐसी किसी भी अनिश्चितता को पसंद नहीं करती जो विनाशक टैक्नालोजी को बच्चों का खेल समझने के फलस्वरूप पैदा होती है। इन परीक्षणों से भारत और इसकी अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुक्सान पर कभी भी चर्चा नहीं हुई। इन परीक्षणों की 20वीं वर्षगांठ के मौके पर कोई जश्र नहीं मनाए गए इसलिए हम इस तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं जैसे कोई घटना अवघटित ही न हुई हो।-आकार पटेल

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