21वीं शताब्दी में ‘जातिवाद से परे रहने’ पर चर्चा होनी चाहिए

Edited By ,Updated: 07 Jun, 2022 05:00 AM

in the 21st century there should be a discussion on  living beyond racism

जातिगत जनगणना विनाशकारी सिद्ध होगी या कई राजनीतिक दलों की मांग को पूरा करेगी? जहां यह हमारे सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में एक प्रभुत्वशाली भूमिका निभाती है, यह हैरानीजनक है कि 1931 के बाद से कोई विश्वनीय

जातिगत जनगणना विनाशकारी सिद्ध होगी या कई राजनीतिक दलों की मांग को पूरा करेगी? जहां यह हमारे सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन में एक प्रभुत्वशाली भूमिका निभाती है, यह हैरानीजनक है कि 1931 के बाद से कोई विश्वनीय जातिगत आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इसके साथ ही चार प्रमुख जातियों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र, ने सैंकड़ों उपजातियां पैदा की हैं तथा और अधिक उपखंड बनाने में जुटी हुई हैं। 

जातियों की जनगणना की मांग नई नहीं है : 1951 से 2011 तक स्वतंत्र भारत में प्रत्येक जनगणना के अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को लेकर आंकड़े प्रकाशित किए गए लेकिन अन्य जातियों के नहीं। 1931 तक 10 वर्ष बाद होने वाली जनगणना के आंकड़े जाति पर आधारित हैं लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941 की जनगणना छूट गई। स्वतंत्रता के बाद नेहरू सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए मांग को ठुकरा दिया। 

इंदिरा गांधी की सरकार ने 1981 की जनगणना में मंडल आयोग के सुझावों को खारिज कर दिया। 2001 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन रजिस्ट्रार जनरल आफ सैंसस द्वारा प्रस्तुत ऐसे ही प्रस्ताव को खारिज कर दिया। 2010 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी जनगणना में जातियों को शामिल करने की मांग को ठुकरा दिया लेकिन इसकी बजाय आर्थिक आधार पर एक सर्वेक्षण के लिए मान गए। मोदी सरकार ने इसके केवल वित्तीय घटक जारी किए (2015 में) तथा जाति आधारित घटकों को रोक लिया। दुर्भाग्य से 10 वर्ष बाद 2021 में होने वाली जनगणना को कोविड महामारी के कारण स्थगित कर दिया गया। 

राजनीतिक दलों ने पहले ही जातियों के आधार पर चुनाव लड़े और जीते। जाति आधारित पार्टियां भी पैदा हो गईं, जैसे कि बसपा, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि। जद (यू), राजद, सपा, बसपा, वाई.एस.आर.सी.पी. तथा द्रमुक जैसी पार्टियां अपनी राजनीतिक ताकत के लिए कुछ जातिवादी समूहों पर निर्भर हैं। वे 2021 में आगामी जातिवादी जनगणना के लिए जोरदार अभियान का नेतृत्व कर रही थीं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव तथा बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती सहित अन्य नेता इसके पक्ष में बने हुए हैं। जाति आधारित गणना का परिणाम संभवत: आरक्षण शामिल करने की मांग के रूप में निकलेगा। यह मुद्दा लगभग प्रत्येक जनगणना से पहले उठता है। यह तमिलनाडु जैसे राज्यों में एक चुनावी मुद्दा बन गया है। ठीक वैसे ही जैसे बिहार तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से राजनीतिक दलों ने जातिवादी जनगणना के लिए मजबूत दावेदारी पेश की है। बहुत से समुदाय, जैसे कि हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल, तथा महाराष्ट्र में मराठा खुद को ओ.बी.सी. वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। 

जातिगत जनगणना के पक्ष तथा विरोध में अपने-अपने तर्क हैं। जहां तक अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों की बात है, उनके लिए कोटे जनगणना की रिपोर्टों पर आधारित हैं। मगर ओ.बी.सी. के आरक्षण को 27 प्रतिशत पर निर्धारित कर दिया गया ताकि आरक्षण की उच्च सीमा 50 प्रतिशत बनाई रखी जा सके। यदि जातिगत जनगणना के लिए समर्थन राजनीतिक है तो विपक्ष कई कारकों से अलग हो रहा है। एक जाति आधारित जनगणना केवल उच्च जातियों का पर्दाफाश करेगी जो प्रमुख लाभार्थी बनी हुई हैं। दूसरे, भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को डर है कि जातिगत जनगणना संभवत: उनके द्वारा सावधानीपूर्वक बनाए गए जातिगत गठबंधनों को नुक्सान पहुंचाएगी। 

इसके समर्थकों का दावा है कि जाति आधारित आंकड़ों के बिना ओ.बी.सीज तथा अन्य के लिए उचित अनुमान नहीं लगाए जा सकते। मंडल आयोग ने अनुमान लगाया था कि ओ.बी.सी. जनसंख्या 52 प्रतिशत है तथा कुछ अन्य गणनाएं नैशनल सैम्पल सर्वे के आंकड़े पर आधारित हैं। फिर भी राजनीतिक दल चुनावों के दौरान राज्यों व लोकसभा तथा विधानसभा सीटों से अपने अनुमान बनाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ओ.बी.सीज के कल्याण के लिए प्रमुख समिति नैशनल कमिशन ऑन बैकवर्ड क्लासिज तथा इससे पहले रजिस्ट्रार जनरल आफ सैंसस ने पिछड़ी जातियों की जनगणना की मांग की पुष्टि की थी। दूसरे, जातिगत जनगणना आरक्षणों पर वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को तोड़ने का एकमात्र रास्ता थी। शीर्ष अदालत ने भी सुझाव दिया है कि 50 प्रतिशत की सीमा पर नियम बनाने के लिए जातियों की गणना आवश्यक है। तीसरे, जातिगत आंकड़े नीतियां बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक हैं। 

विरोधियों का तर्क है कि इस तरह की जनगणना जातियों की पहचान करना कठिन बनाएगी तथा सामाजिक विखंडन और जाति आधारित शत्रुताओं का कारण बनेगी। यह न केवल विभाजनकारी होगी बल्कि इसके विपरीत परिणाम भी निकलेंगे। इसके राजनीतिक तथा सामाजिक प्रतिप्रभाव निकल सकते हैं। भाजपा नेताओं का तर्क है कि महात्मा गांधी से लेकर लोहिया तक कई नेताओं ने अपनी भावना व्यक्त की है कि जातिवादी भेदभाव ने समाज को कमजोर किया है। वे यह भी महसूस करते हैं कि अभी इस पेचीदा तथा चुनौतीपूर्ण मुद्दे को नहीं छेड़ा जाना चाहिए। 

जातिगत जनगणना के विरोधी तथा इसके समर्थक जोरदार तरीके से अपने तर्क रखते हैं। यह मोदी सरकार पर निर्भर करता है कि वह इस संबंध में निर्णय ले। भारत जातिगत पहचान पर आधारित विश्व का सर्वाधिक व्यापक सकारात्मक कल्याण कार्यक्रम चलाता है। जहां युवा एक जाति रहित समाज चाहते हैं, वहीं जाति को चिरायु बनाया जा रहा है। भारत ने कई जाति आधारित आंदोलन देखे हैं तथा इन्हें देखना जारी रखेगा जो सामाजिक ताने-बाने को नुक्सान पहुंचाएगा। यह एक भावनात्मक तथा विवादास्पद मुद्दा है तथा बहुत-सी सरकारें इस तरह की जनगणना से परे ही रहना चाहेंगी। 21वीं शताब्दी में भारत को ऐसे मुद्दों पर देश को और अधिक विभाजित करने की बजाय ‘जातियों से परे रहने’ पर चर्चा करनी चाहिए।-कल्याणी शंकर

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