प्लास्टिक का बढ़ता संकट

Edited By ,Updated: 23 Apr, 2019 04:56 AM

increasing crisis of plastic

पिछले हफ्ते ग्रीन पीस अफ्रीका के कार्यकत्र्ताओं ने पूर्वी अफ्रीका में कार्यरत नैस्ले फैक्टरी को प्लास्टिक का राक्षसनुमा एक बुत भेंट किया जिसे कम्पनी की ब्रांड पैकेजिंग से बनाया गया था। बड़ी तेजी से बढ़ती उपभोक्ता वस्तु कम्पनियों (एफ.एम. सी.जी.) को...

पिछले हफ्ते ग्रीन पीस अफ्रीका के कार्यकत्र्ताओं ने पूर्वी अफ्रीका में कार्यरत नैस्ले फैक्टरी को प्लास्टिक का राक्षसनुमा एक बुत भेंट किया जिसे कम्पनी की ब्रांड पैकेजिंग से बनाया गया था। बड़ी तेजी से बढ़ती उपभोक्ता वस्तु कम्पनियों (एफ.एम. सी.जी.) को सिंगल यूज प्लास्टिक  के खतरों से आगाह करने का यह एक अच्छा तरीका था। यह निश्चित तौर पर एक महत्वपूर्ण और जरूरी मुद्दा है-संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार 1950 से लेकर अब तक 8 बिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन किया जा चुका है और 2050 तक यह 34 बिलियन टन तक पहुंच सकता है। 

अगले दशक में प्लास्टिक का उत्पादन 40 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ सकता है। यह वृद्धि प्लास्टिक उत्पादों पर गैर जरूरी निर्भरता का परिणाम है जिसे केवल एक बार इस्तेमाल किया जा सकता है-जैसे कि प्लास्टिक पैकेजिंग। भारत ने यह मसला उठाया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की है कि भारत 2022 तक सिंगल यूज प्लास्टिक से मुक्त होना चाहता है। यह महत्वाकांक्षी समय सीमा हो सकती है। इस मामले में कुछ राज्य बाकी राज्यों से तेज चल रहे हैं। छोटे राज्यों अथवा जिनकी प्रशासनिक मशीनरी चुस्त हो, उनके लिए ऐसा करना आसान होता है। भारत के आधे से अधिक राज्यों ने सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल रोकने के लिए कानून बना लिए हैं अथवा उनकी ऐसे कानून बनाने की योजना है। दिल्ली प्लास्टिक शॉपिंग थैलों पर पूरी रोक लगाने में असफल रहा है। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में ऐसी प्रशासनिक योग्यता मौजूद है। कुछ अन्य राज्यों जैसे गंगा के नजदीक वाले राज्यों में ऐसी क्षमता नहीं है।

गंगा में बहाया जाता है 1.10 लाख टन प्लास्टिक
गंगा घाटी काफी प्लास्टिक पैदा करती है, जिसमें से अधिकतर को गंगा नदी में डाल दिया जाता है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया था कि गंगा के माध्यम से प्रति वर्ष 1,10,000 टन प्लास्टिक कचरा प्रति वर्ष समुद्र में जाकर मिलता है जोकि यांगजे नदी के बाद सबसे अधिक है। इसके अलावा भारत में प्लास्टिक एकत्रित करने और इसकी रिसाइक्लिंग का भी उचित प्रबंध नहीं है। यह सही है कि भारत में गरीबी के कारण कचरा बीनने वालों का काफी बड़ा असंगठित नैटवर्क है जो रिसाइक्लिंग में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। इसके परिणामस्वरूप देश में बेचा जाने वाला 40 प्रतिशत प्लास्टिक न तो रिसाइकिल होता है और न ही एकत्रित। 

बड़ी कम्पनियों पर जिम्मेदारी
इन सब परिस्थितियों के मद्देनजर बड़ी कम्पनियों से काफी उम्मीद की जाती है। सरकार सब कुछ नहीं कर सकती और न ही उसमें सब कुछ करने की क्षमता है। गैर संगठित क्षेत्र कीमतों के प्रति संवेदनशील रहता है और उन्हें प्रोत्साहन भी नहीं दिया जा सकता। ऐसे में बड़ी जिम्मेदारी संगठित निजी क्षेत्र पर आ जाती है-विशेषकर उन कम्पनियों पर जो बड़ी मात्रा में सिंगल यूज प्लास्टिक पैदा करती हैं, जैसे कि एफ.एम.सी.जी.। पैकिंग में वस्तुओं और खाद्य पदार्थों को बेचने वाली बड़ी कम्पनियां यदि अपना व्यवहार बदल लेती हैं तो अनौपचारिक क्षेत्र भी ऐसा ही करेगा। ई-कॉमर्स इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। भारत में कार्पोरेट दिग्गजों को इस दिशा में काफी काम करने की जरूरत है अन्यथा प्लास्टिक रूपी राक्षस शीघ्र ही उनके मुख्यालयों तक पहुंच सकता है।

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