भारत भी अमरीका जैसी ‘इंडिया फस्र्ट’ नीति अपनाए

Edited By Pardeep,Updated: 29 Jun, 2018 04:30 AM

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अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार काऊंसिल से खुद को अलग कर लिया है। इससे पहले अमरीका नीतियों के प्रतिकूल होने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रसंघ के संगठन यूनेस्को से अलग हो गया। विश्व संगठन या ऐसे समझौतों से अमरीका लगातार अलग होता जा रहा है। अमरीका...

अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार काऊंसिल से खुद को अलग कर लिया है। इससे पहले अमरीका नीतियों के प्रतिकूल होने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रसंघ के संगठन यूनेस्को से अलग हो गया। विश्व संगठन या ऐसे समझौतों से अमरीका लगातार अलग होता जा रहा है। अमरीका ने ईरान के साथ हुए परमाणु समझौते को मानने से इंकार कर दिया। विश्व में ग्रीन हाऊस गैसों का सर्वाधिक उत्सर्जन करने के मामले में दूसरे स्थान पर होने के बावजूद अमरीका ने पैरिस पर्यावरण समझौते को मानने से इंकार कर दिया। 

इन सबके पीछे अमरीका की दलील है- इनसे अमरीकी हितों को नुक्सान पहुंच रहा है। इस तरह के समझौते या नीतियां अमरीका फस्र्ट की नीति के खिलाफ हैं। अमरीका को विश्व समुदाय की परवाह नहीं है कि कौन उसके बारे में क्या सोचता है? क्या भारत भी अपने हितों की सुरक्षा की खातिर अमरीका जैसी नीति अपना सकता है? भारत अपने आंतरिक, सीमा संबंधी या वैश्विक मामलों में अमरीका की तरह निर्णय कर सकता है? भारत भी अमरीका की तरह इंडिया फस्र्ट की नीति का अनुसरण क्यों नहीं कर सकता? 

मानवाधिकार काऊंसिल के प्रमुख जैद राहद अल हुसैन ने शरणार्थियों से उनके बच्चों को अलग करने पर अमरीका की खिंचाई की। इससे खफा होकर अगले ही दिन अमरीका ने मानवाधिकार काऊंसिल की सदस्यता छोड़ दी। दलील यह दी गई कि मानवाधिकार काऊंसिल इसराईल को लेकर पूर्वाग्रह से प्रेरित है। इसी मानवाधिकार काऊंसिल ने कश्मीर में सेना पर मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाया है। दुर्भाग्य से मानवाधिकार काऊंसिल को कश्मीर में आतंकियों और पत्थरबाजों के मानवाधिकारों का उल्लंघन तो नजर आया किन्तु पाकिस्तान इनको पनाह दे रहा है, यह दिखाई नहीं दिया। 

भारत की ओर से इसका प्रतिवाद तो किया गया किन्तु काऊंसिल की सदस्यता छोडऩा तो दूर, इसको चेतावनी देने का भी साहस नहीं दिखा सका। यह अकेला मामला नहीं है जब इस तरह के घरेलू या वैश्विक मुद्दे पर भारत विश्व के सामने अभिव्यक्ति को बुलंद तरीके से दर्ज नहीं करा सका। इस मामले में भारत के नेताओं की हालत पिंजरे में बंद शेरों जैसी है? जो सिर्फ गुर्रा सकते हैं, आपस में लड़ सकते हैं किन्तु विश्व के सामने दहाड़ नहीं सकते। कश्मीर का मुद्दा अकेला नहीं है। 
नुक्सान के बावजूद भारत पर हमेशा वैश्विक संधि-समझौतों को मानने का दबाव रहा है। भारत कभी आंतरिक हितों की खातिर इनका विरोध करने और इनसे अलग होने का साहस नहीं दिखा सका। 

यह स्थिति बताती है कि हम कहने को कितनी ही महान संस्कृति, योग और धर्म वाले देश कहलाएं, पर हमारी अन्दरूनी कमजोरियों ने ही विश्व में हमारी आवाज को अनसुना कर दिया है। केवल योग और धर्म जैसी बातों के बूते हम विश्व की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अनवरत विदेश यात्राओं से चंद व्यापारिक समझौते जरूर हो गए। स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुकूल होने के कारण योग को संयुक्त राष्ट्र ने मान्यता भी दे दी, किन्तु भारत को कमजोर निगाहों से देखने के वैश्विक नजरिए में कोई परिवर्तन नहीं आया है। 

यही वजह है कि पाकिस्तान हो या चीन, आतंकवाद पर कूटनीति से भारत को अकेले ही जूझना पड़ रहा है। व्यापारिक हितों और कथित मानवतावादी चेहरा दिखाने के लिए विश्व के अन्य देश तुष्टीकरण की नीति के तहत दबे-छिपे तरीके से भारत का समर्थन कर देते हैं। यह जानते हुए भी कि पाकिस्तान आतंकियों की पनाहगाह है और चीन विश्व के कायदे-कानून अपने फायदे के हिसाब से तय करता है, विश्व का कोई भी देश या संयुक्त राष्ट्र दोनों का कुछ नहीं बिगाड़ सका। दक्षिणी चीन सागर के मुद्दे पर चीन ने अंतर्राष्ट्रीय जलसंधि को मानने से इंकार कर दिया। यहां स्थित विवादित द्वीप पर निर्माण कार्य जारी है। 

भारत की कमजोरी या यूं कहें कि उसे कमजोर करने में राजनीतिक दलों का ही हाथ है। सत्ता के लिए लड़ते-झगड़ते सभी दल एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ही लगे रहते हैं। इन्हें इस बात का अंदाजा नहीं है कि इस हालत से कमजोर हुए भारत को विश्व में नीचा देखना पड़ रहा है। भारत अमरीका की तरह विश्व को अपने दृढ़ इरादों की झलक नहीं दिखा सकता। अमरीका ने ओसामा बिन लादेन को खोजने के लिए पूरे अफगानिस्तान को बमों से खोखला कर दिया और आखिरकार पाकिस्तान में घुस कर उसे मार गिराया। अमरीका ने इसकी स्वीकृति किसी से नहीं ली। 

इसके विपरीत भारत विश्व के मंचों पर पाकिस्तान स्थित आतंकी सरगनाओं की गुहार लगाने तक ही सीमित रहा। इसी से भारत की लाचारी समझी जा सकती है। दुखद यह है कि देश के नेताओं को ऐसी हालत से कोई शर्म नहीं आती। इन्हीं आंतरिक कमजोरियों के चलते भारत आतंकी सरगनाओं का सफाया नहीं कर पाया। यह निश्चित है कि जब तक राजनीतिक दल क्षुद्र स्वार्थों और अंध भावनाओं से परे जाकर दूरदृष्टि से देश को मजबूत करने की दिशा में कदम नहीं उठाएंगे, तब तक भारत की विश्व में कोई सुनवाई नहीं करेगा। इसके लिए सभी मुद्दों पर राजनीतिक दलों को व्यापक दृष्टि से इंडिया फस्र्ट की नीति अपनानी होगी, तभी भारत का सुर विश्व में गूंज सकेगा। तभी भारत समर्थन लेने के लिए दूसरे देशों की ओर ताकने के बजाय अमरीका की तरह अपने हितों के हिसाब से वैश्विक नीतियों में दखलंदाजी कर पाएगा।-योगेन्द्र योगी

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