भारत और चीन किसी भी कीमत पर लड़ाई में न उलझें

Edited By Punjab Kesari,Updated: 30 Jul, 2017 01:04 AM

india and china do not engage in battle at any cost

काफी समय पहले पोप जॉन पाल ने आवेशपूर्ण घोषणा की थी: ‘‘और जंग नहीं, फिर....

काफी समय पहले पोप जॉन पाल ने आवेशपूर्ण घोषणा की थी: ‘‘और जंग नहीं, फिर कभी जंग नहीं’’ लेकिन दुनिया इस घोषणा के आसपास भी नहीं पहुंची। दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होने के समय से दुनिया ने गर्म युद्ध, शीत युद्ध, गृह युद्ध, अलगाववादी युद्ध, जेहादी युद्ध, आक्रमण, जबरदस्ती दूसरे देशों की भूमि पर कब्जे और अनेक प्रकार के हिंसक टकराव देखे हैं। एक भी ïवर्ष ऐसा नहीं गुजरा जब सशस्त्र टकरावों में इंसानी जानें न गई हों। 

भारत और चीन ने 1962 में युद्ध लड़ा। युद्ध की समाप्ति के बाद बहुत कमजोर-सी शांति स्थापित हुई। 1988 में राजीव गांधी को चीन ने आमंत्रित किया था। यह एक ऐतिहासिक यात्रा थी। देंग सियाओ पेंग के साथ उनका लंबा दस्तपंजा काफी प्रसिद्ध हुआ था और शायद आपको अभी तक यह याद होगा। दोनों देश एक-दूसरे के साथ बातचीत करने और वार्ताओं के माध्यम से सभी सीमा विवादों को हल करने पर सहमत हुए थे। इसके जल्दी ही बाद दोनों देशों ने एक-दूसरे के यहां विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किए थे। 

भारत-चीन ने मोहलत हासिल की
समय-समय पर घटनाएं होती रहीं। इनके बाद वार्तालाप चलती रही और मुद्दे सुलझते रहे। 2013 में ही देपसांग तथा 2014 में देमचोक और चुमार में सशस्त्र टकराव टाला गया था। दोनों देशों में आपसी समझ-बूझ स्थापित हो गई। 2012 में एक समझौता हो गया कि भारत, चीन और भूटान से घिरे त्रिसंगम इलाके का मुद्दा भारत और चीन द्वारा तीसरे पक्ष यानी भूटान के साथ विचार-विमर्श करके हल किया जाएगा क्योंकि यह त्रिसंगम उसी के इलाके में स्थित है। वैसे भी भारत और भूटान के बीच विशेष रिश्ता है। 

भारत और चीन दोनों ने सशस्त्र टकराव को टालकर आॢथक विकास पर फोकस करने के लिए बहुत कीमती समय हासिल किया। इसी के फलस्वरूप चीन उस स्थिति में आ गया है जब उसे मध्यवर्ती आय वाला देश माना जा सकता है। अपनी 138 करोड़ आबादी में से 95 प्रतिशत को यह गरीबी में से ऊपर उठाने में सफल हो गया है। दुनिया भर को भेजने के लिए चीन की फैक्टरियों में सामान बन रहा है और इसी निर्यात के बूते इसने 3 हजार अरब अमरीकी डालर से अधिक का विदेशी मुद्रा भंडार जमा कर लिया है। यह न केवल एक परमाणु सम्पन्न शक्ति है बल्कि इसके पास दुनिया की सबसे बड़ी तैयार-बर-तैयार सेना भी है। इसके पास दक्षिण चीन सागर तथा हिन्द महासागर की गहराइयों को खंगालने की क्षमता है और यह माना जाता है कि इसके पास बहुत दूरस्थ लक्ष्यों पर सटीक निशाना लगाने की क्षमता है। 

बेशक भारत में बहुत शोर माचाया जाता है कि 2014 से पहले कुछ भी नहीं हुआ (यह माना जाना चाहिए कि 1998 या 2004 तक का वाजपेयी का शासन भी उसी कोटि में आता है।) तो भी भारत ने काफी प्रगति की है और चीन से मात्र कुछ ही कदम पीछे  है। 1991 से लेकर अब तक भारत ने 25 करोड़ लोगों को गरीबी में से बाहर निकाला है। इसका विदेशी मुद्रा भंडार 380 अरब अमरीकी डालर के आसपास है। यह भी परमाणु शक्ति है और इसके पास दुनिया की सबसे बड़ी तैयार-बर-तैयार सेना है तथा इसके पास किसी भी विदेशी शक्ति के हमले के विरुद्ध अपनी रक्षा करने की क्षमता भी मौजूद है। इन्हीं कारणों से भारत और चीन को इस बात के प्रति सजग रहना चाहिए कि वे किसी भी कीमत पर लड़ाई में न उलझें। हर बार कूटनीति को हर हालत में सफल होने का मौका दिया जाना चाहिए और तलवारें म्यान से बाहर नहीं आनी चाहिएं। शब्द युद्ध को वास्तविक युद्ध नहीं बनने देना चाहिए। 

क्या अब स्थिति सचमुच भिन्न है? भारत-भूटान-चीन के त्रिसंगम में स्थित डोकलाम पठार के इलाके में जो कुछ 16 जून, 2017 को हुआ वह केवल एक ऐसी घटना ही रहनी चाहिए जो वार्तालाप से सुलझाई जा सकती है लेकिन मुझे डर है कि जो भी संकेत मिल रहे हैं वे आशाओं के विपरीत हैं। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि 2017 की घटना और 2013 व 2014 की घटनाओं के बीच काफी अंतर है। जरा भारत और चीन के सार्वजनिक बयानों पर दृष्टिपात करें। भारत की ओर से सेना प्रमुख (8 जून, 2017), विदेश मंत्रालय (30 जून), वित्त मंत्री (30 जून), विदेश सचिव (11 जुलाई), पी.एम.ओ. के राज्य मंत्री (12 जुलाई) तथा विदेश मंत्री (20 जुलाई) द्वारा बयान दिए गए हैं जबकि चीन की ओर से प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले व्यक्ति विदेश मंत्रालय तथा सेना के प्रवक्ता मात्र थे। 

केवल 25 जुलाई को ही चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने बैंकाक में इस विषय पर बातचीत की थी। इसके अलावा चीन की वास्तविक मंशा ‘ग्लोबल टाइम्स’ तथा ‘सिन्हुआ’ में प्रकाशित होने वाले दंशपूर्ण आलेखों में परवर्तित हुई है। चीनी पक्ष की प्रतिक्रियाओं की भाषा के प्रति नरम से नरम टिप्पणी की जाए तो इसे गैर-कूटनीतिक ही कहा जा सकेगा। आखिर बदलाव किस चीज में हुआ है? यदि भारत के प्रति चीनी रवैये में कोई बदलाव हुआ है तो इसके लिए जिम्मेदार परिस्थितियां कौन-सी थीं? 

भारत सरकार ने इन शब्दों में अपनी पोजीशन बयां की: ‘‘चीन की हाल ही की गतिविधियों पर भारत को गहरी चिंता है और इसने चीन सरकार को यह संदेश भेज दिया है कि इसके द्वारा जो सड़क निर्माण किया जा रहा है वह यथास्थिति में भारी परिवर्तन का सूचक होगा जिसके भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर परिणाम होंगे’’ और मैं सरकार की प्रतिक्रिया पर विश्वास व्यक्त करता हूं। फिर भी इतना ही काफी नहीं। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह देश के लोगों के सामने व्याख्या करे कि स्थिति में क्या बदलाव आया है और क्यों आया है? इस तरह का बयान केवल प्रधानमंत्री की ओर से आ सकता है। 

क्या शाब्दिक प्रतिक्रिया पर ही बात खत्म हो जाएगी?
चीनी पक्ष की शब्दावली दिन-ब-दिन शोरीली होती जा रही है। भारत की ओर से प्रत्येक पहलकदमी के प्रति इसकी प्रतिक्रिया बहुत घृणा भरी है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की चीन यात्रा को पहले तो बहुत महत्वहीन बनाकर प्रस्तुत किया गया और फिर दोनों देशों के रक्षा सलाहकारों के बीच वार्तालाप दौरान इसका बिल्कुल चालू किस्म का उल्लेख किया गया। कूटनीति के सामान्य नियमों के विपरीत चीन ऐसा आभास देता है कि इसने खुद के लिए वार्तालाप की कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं है। इसने ऐसी शर्तें रखी हैं जिन पर कोई बातचीत हो ही नहीं सकती और इसी दौरान वार्तालाप की प्रत्येक संभावना का दरवाजा बंद कर दिया है। चीनी समाचार एजैंसी सिन्हुआ ने 15 जुलाई को लिखा था: ‘‘ चीन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस घटना पर वार्तालाप की कोई गुंजाइश नहीं है और भारत को हर हालत में डोकलाम इलाके में घुसपैठ करने वाले अपने सैनिकों को वापस बुलाना होगा।’’ 

छोटी-छोटी बातों के पीछे छिपे गहन अर्थों को भांप सकने वाले भारत के सभी पर्यवेक्षक स्वाभाविक तौर पर चिंतित हैं लेकिन चीन की ओर से किसी भी व्यक्ति द्वारा ऐसी चिंता व्यक्त नहीं की गई। अमरीका पहला देश था जिसने खुले रूप में परामर्श दिया था कि दोनों देश संयम से काम लें और वार्तालाप करें। हैरानी की बात है कि अन्य अनेक देश जिन्हें चीन और भारत दोनों ने अपने-अपने पक्ष से अवगत करवाया, मौन ही रहे। दोनों देशों के संबंधों पर जो बादल घिर रहे हैं वे कोई शुभ संकेत नहीं। मैं अपने स्थान पर पूरी तरह स्पष्ट हूं कि किसी भी कीमत पर भारत और चीन के बीच गोलाबारी की नौबत नहीं आनी चाहिए। मैं निश्चय से कह सकता हूं कि भारत सरकार का भी यही दृष्टिकोण है लेकिन मुझे यह कहते हुए आशंका होती है कि चीन की सरकार भी ऐसा ही सोचती होगी। केवल समय ही बताएगा कि दोनों देशों के बीच कब और कहां चूक हो जाएगी?

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