Edited By ,Updated: 19 Aug, 2019 12:24 AM
पिछले 20 वर्षों में भारत ने आंतरिक संघर्षों में 1962 के युद्ध के मुकाबले 3 गुना ज्यादा सशस्त्र बलों के जवानों को खोया है। इस अवधि में कारगिल युद्ध में जितने जवान शहीद हुए उससे 6 गुना अधिक सशस्त्र सेनाओं के ...
पिछले 20 वर्षों में भारत ने आंतरिक संघर्षों में 1962 के युद्ध के मुकाबले 3 गुना ज्यादा सशस्त्र बलों के जवानों को खोया है। इस अवधि में कारगिल युद्ध में जितने जवान शहीद हुए उससे 6 गुना अधिक सशस्त्र सेनाओं के जवान कश्मीर, उत्तर-पूूर्व तथा मध्य भारत (जिसे नक्सल क्षेत्र कहा जाता है) में शहीद हुए हैं। इन स्थानों पर जितने भारतीय मारे गए हैं उनकी संख्या 1962 और 1971 के युद्धों में शहीद हुए सैनिकों से ज्यादा है।
ये वे जवान हैं जिन्हें देश ने किसी बाहरी आक्रमण के कारण नहीं खोया बल्कि इसलिए खोया है कि देश के अपने ही कुछ लोगों के साथ संबंधों में दरारें हैं। ये मौतें राजनीतिक असफलता का परिणाम हैं न कि युद्ध का। खून के इन बलिदानों को बिना किसी विरोध के सहन कर लेने की हमारे देश की क्षमता भारत के लिए इन क्षेत्रों में इस तरह की कार्रवाइयों को जारी रखना आसान बनाती है।
भारतीय सरकारों पर आंतरिक संघर्ष के मामले में अपनी नीति में परिवर्तन करने के लिए कोई दबाव नहीं है, चाहे यह सफल हो या असफल अथवा यूं ही चलता रहे क्योंकि हमारे सैनिकों और नागरिकों की लगातार मौतें हमें स्वीकार हैं। इस बात पर कोई आंतरिक चर्चा नहीं हुई है कि कश्मीर में हमारे हालिया मास्टर स्ट्रोक के हमारे सशस्त्र बलों के लिए क्या मायने हैं जो वहां सेवारत हैं तथा पिछले 30 वर्षों से खिन्न और असंतुष्ट जनता पर निगाह रखे हुए है। श्रीनगर का दौरा करने पर पता चलता है कि यहां की गलियों में सशस्त्र लोगों द्वारा निगरानी रखी जाती है जो देश के विभिन्न भागों से आते हैं जो न तो स्थानीय भाषा बोलते हैं और न ही स्थानीय लोगों जैसेे दिखते हैं। अर्धसैनिक बल कश्मीर के शहरों की गलियों में घूमते हैं जबकि सेना बाहरी परिधि की पैट्रोलिंग करती है।
इन शहरों में ये लोग इसलिए हैं ताकि उनकी भावनाओं को दबाया जा सके जो आमतौर पर हिंसा के माध्यम से व्यक्त होती हैं क्योंकि उनके पास इन्हें व्यक्त करने को कोई माध्यम नहीं है। कश्मीर में संचार और मीडिया कई वर्षों से बेडिय़ों में है और यह पहली बार नहीं है जब वहां पर मुकम्मल ब्लैकआऊट की सजा दी गई है। शेष भारत को वहां पर लगे नियमित संचार प्रतिबंध से कोई परेशानी नहीं है क्योंकि वे यह नहीं सोचते कि इसके क्या परिणाम होंगे?
इसका एक सबसे बड़ा कारण यह है कि हिंसा का स्थान हमसे काफी दूर है और हमारा उससे कोई हित नहीं जुड़ा है। अमरीका में उनकी संसद (जिसे कांग्रेस कहा जाता है) में आमतौर पर 100 सदस्य ऐसे होते हैं जिन्होंने अमरीकी सेना में सेवा की होती है। अमरीकी सेना दुनिया की सबसे ताकतवर सेना है जो नियमित तौर पर और आसानी से किसी सशस्त्र संघर्ष में शामिल हो जाती है-जैसे कि कोरिया, वियतनाम, ईराक और अफगानिस्तान आदि में। हालांकि यह देश गलती पता चलने पर उसमें शीघ्र सुधार कर लेता है और संघर्षों से बाहर निकलने में सक्षम है क्योंकि इसके अधिकतर नेता खुद सैनिक रहे होते हैं। ये लोग काल्पनिक लाभ के मुकाबले वास्तविक नुक्सान का आकलन कर सकते हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान और उसके तुरंत बाद योद्धा नेताओं की संख्या इतनी ज्यादा थी कि लगभग तीन चौथाई सांसद पूर्व सैनिक थे।
भारत में ऐसा नहीं है। मध्यम वर्ग को सेना में जाने में कोई रुचि नहीं है तथा कार्पोरेट नौकरियां और सरकारी सेवा विशेष तौर पर आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. को प्राथमिकता दी जाती है। सेना और अर्धसैनिक बलों के जवान निम्न मध्यम वर्ग तथा किसान वर्ग से आते हैं (पाकिस्तान में भी यही स्थिति है)। मीडिया, जो मध्यम वर्ग से आता है, वह भी हिंसा से अलग रहता है।
घटनाओं का आकलन
भारत के विभिन्न भागों में सशस्त्र सेनाएं जो करती हैं मीडिया द्वारा उसका महिमामंडन किया जाता है। हम पत्रकार लोग स्वतंत्र सोच के साथ और निष्पक्ष तौर पर घटनाओं का आकलन नहीं करते। इसी कारण हमारे लिए कोई पक्ष लेना या वास्तविकता को नजरअंदाज करना संभव होता है।
पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि यह एक पाकिस्तानी रिपोर्टर के काम से ही संभव हो सका कि दुनिया को यह पता चला कि पूर्वी पाकिस्तान में कैसे अत्याचार हो रहे हैं। यह रिपोर्टर कराची का एंथनी मैस्केरेनहस था, जिसकी रिपोर्ट जून 1971 में ब्रिटिश समाचारपत्र संडे टाइम्स में प्रकाशित हुई थी। उसने इस बात को उजागर किया था कि पाकिस्तानी सेना अपने नागरिकों के साथ क्या करती है? भारतीय पत्रकारों के लिए कश्मीर, नक्सल बैल्ट अथवा उत्तर पूर्व में ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि हमने अपने ही लोगों के खिलाफ ऐसा माहौल बना दिया है।
वास्तविकता यह है कि घर से दूर विरोधी जनसंख्या के बीच रहने वाली सेनाएं लगभग एक जैसा ही व्यवहार करती हैं। इतिहास में ऐसा ही होता रहा जो अभी तक बदला नहीं है। चाहे हम वियतनाम को देखें अथवा ईराक या श्रीलंका को। यह मानव का स्वभाव है और इसका सबसे ज्यादा दोष देशों के नेताओं पर जाता है जो अपनी सेनाओं को ऐसी स्थितियों में झोंकते हैं तथा उस जनता पर जो ऐसी कार्रवाई का समर्थन करती है। हजारों लोग मारे जाते रहेंगे।
चीन और पाकिस्तान के खिलाफ हुए युद्धों को हमारी इतिहास की किताबों में याद किया जाता है तथा उनके बारे में यादगारें बनाई जाती हैं। लेकिन देश के भीतर हो रहे संघर्षों में हो रहे जिंदगियों के नुक्सान हमें लगातार लहूलुहान कर रहे हैं जबकि इन भावों का निरीक्षण करने अथवा उन पर मरहम लगाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा। - आकार पटेल