भारत को समग्र ‘राष्ट्रीय रोजगार नीति’ की जरूरत

Edited By Pardeep,Updated: 05 Oct, 2018 04:22 AM

india needs the overall national employment policy

कायदे से भारत युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने वाला आकर्षक स्थान होना चाहिए। आखिरकार, यह दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और भारी मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) आकर्षित कर रहा है। फिर भी कहीं कुछ गड़बड़ है-...

कायदे से भारत युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने वाला आकर्षक स्थान होना चाहिए। आखिरकार, यह दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और भारी मात्रा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) आकर्षित कर रहा है। फिर भी कहीं कुछ गड़बड़ है- सरकारी क्षेत्र की किसी भी भर्ती का ऐलान होते ही भारी संख्या में आवेदक दौड़ पड़ते हैं जिनमें से अधिकांश ओवर क्वालीफाइड होते हैं।

हाल ही में, रेलवे भर्ती बोर्ड ने करीब 1.9 लाख पदों को भरने के लिए परीक्षाएं आयोजित कीं तो इसके लिए 4.25 करोड़ से अधिक आवेदन आए यानी एक पद के लिए 225 का अनुपात और यहां तक कि ग्रुप डी पदों के लिए पी.एच.डी. धारकों ने भी आवेदन किया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में 62 पुलिस मैसेंजर पदों के लिए 93,000 से अधिक उम्मीदवार थे जबकि राजस्थान में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (चपरासी) के मात्र 5 पदों के लिए 23,000 से ज्यादा उम्मीदवार थे। 

सितम्बर 2015 में, 368 चपरासी पदों के लिए 23 लाख से अधिक आवेदन आए थे, जिनमें से 250 से अधिक डॉक्टरेट और करीब  25,000 स्नातकोत्तर थे। इधर, छत्तीसगढ़ में आर्थिक और सांख्यिकी निदेशालय को अगस्त 2015 में मात्र 30 चपरासी पदों के लिए 75,000 से अधिक आवेदन प्राप्त हुए जबकि अप्रैल 2018 में जादवपुर विश्वविद्यालय को 70 चपरासी पदों के लिए 11,000 से अधिक आवेदन मिले। जाहिर है हमारे जॉब मार्कीट में कुछ गड़बड़ है। निजीकरण के आगमन के बाद भी, सार्वजनिक क्षेत्र अभी भी नौकरी की बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है और कई सेवानिवृत्ति लाभ देता है, जिसका बहुत कम वेतन देने वाला निजी क्षेत्र कभी मुकाबला नहीं कर सकता। एक जनरल हैल्पर या सामान्य सहायक (सबसे निचली रैंक का सरकारी कर्मचारी ) का वेतन-भत्ता 22,579 रुपए (7वां वेतन आयोग) है जो निजी क्षेत्र के मुकाबले दोगुना है। ऐसा लगता है कि चुनौती हमारी अर्थव्यवस्था की ज्यादा नौकरियां पैदा करने में असमर्थता में निहित है।

यह देखते हुए कि हमारा लेबर मार्कीट डाटा बहुत अस्पष्ट और बिखरा हुआ है, इस समस्या की गहराई मापना मुश्किल है। नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एन.एस.एस.ओ.) का रोजगार-बेरोजगार सर्वे का जितना भी डाटा उपलब्ध है, ताजा है जबकि अन्य स्रोतों (उदाहरण के लिए श्रम ब्यूरो द्वारा तैयार तिमाही रोजगार सर्वे और सैंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा किए गए सर्वे) का दायरा सीमित है। तिमाही रोजगार सर्वे (क्यू.ई.एस.) रिपोर्ट 8 प्रमुख उद्योगों में पैदा हुए रोजगार के बारे में है। हालांकि ऐसे सर्वे रोजगार की गुणवत्ता को दर्ज कर पाने में नाकाम हैं जिससे प्रच्छन्न और लाभकारी रोजगार को लेकर हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती है। 

7वां तिमाही रोजगार सर्वे बताता है कि 1.36 लाख नौकरियां पैदा की गईं जो पिछली तिमाही में पैदा हुई 64,000 नौकरियों की तुलना में काफी अधिक हैं लेकिन यह हर महीने वर्कफोर्स में शामिल हो जाने वाले 10 लाख से अधिक लोगों की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती है। ई.पी.एफ.ओ. नामांकन का उपयोग संकेतक के रूप में  किया जाता है लेकिन यह जानकारी अपुष्ट हो सकती है और इसका मतलब यह भी हो सकता है कि मौजूदा जॉब्स को केवल औपचारिक शक्ल दी जा रही है। ई.पी.एफ.ओ. नामांकन डाटा को पहले से ई.पी.एफ.ओ. के तहत कवर फर्मों में ज्वाइन करने वाले नए कर्मचारियों (एक से अधिक खाते वाले मामलों को अलग करके) और कानून के दबाव में ई.पी.एफ. ओ. कवर के तहत आने वाली फर्मों के कर्मचारियों के आंकड़ों को अलग-अलग करके देखने से मदद मिल सकती है। एन.एस.एस.ओ. और क्यू.ई.एस. सर्वेक्षणों के दायरे और आवृत्ति का विस्तार स्पष्टता लाने की दिशा में भी मददगार होगा। 

आइए जो आंकड़े उपलब्ध हैं उन पर गौर करते हैं। हमारे नौकरी से जुड़े कर्मचारियों का लगभग 80 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में लगा हुआ है और केवल 17 प्रतिशत वास्तव में नियमित वेतन पाते हैं। यहां हासिल की गई शिक्षा और मिलने वाले जॉब के बीच भी भारी अंतर्विरोध है। 5वें वाॢषक रोजगार-बेरोजगार सर्वेक्षण में सामने आया कि केवल 21.6 प्रतिशत कर्मचारियों को वास्तव में सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिला है। आदर्श तौर पर बढ़ते निवेश के चलते ज्यादा सार्वजनिक खर्च इस जॉब संकट से निपटने के लिए एक समाधान प्रस्तुत कर सकता है। हालांकि 8 साल की निवेश मंदी (आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18), तकरीबन स्थिर निर्यात और बढ़ते आयात बोझ के कारण ऐसे निवेश का फायदा मिलने के लिए अवसर सीमित हैं। निजी निवेश खासी मात्रा में सरप्लस उत्पादन क्षमता (आर.बी.आई., अप्रैल-जून 2016) के चलते निष्क्रिय बना रहेगा। 

बढ़ता ऑटोमेशन इस समस्या को और गंभीर बनाता है तथा भारत के विकास मार्गों को अवरुद्ध कर देता है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार ऑटोमेशन के कारण भारत में करीब 69 प्रतिशत जॉब्स खतरे में हैं, जिसके चलते रोजगार नीति में रोजगार के नए तरीकों के निर्माण पर ध्यान देने की जरूरत है। इस बीच, प्रमुख उद्योगों में रोजगार उत्पादन (उदाहरण: वस्त्र) नीति और नीयत के जाल में उलझा हुआ है। भारत को समग्र राष्ट्रीय रोजगार नीति की जरूरत है जो रोजगार के क्षेत्रों के अलावा विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर नीतिगत इनपुट प्रदान कर सकती हो। इस तरह की नीति सामाजिक उत्पादक जीवन के लिए काम करते हुए युवाओं के सुरक्षित, स्वस्थ, सुखद और टिकाऊ विकास के लिए देश की आकांक्षाओं को परिभाषित करेगी। 

यह नीति युवाओं को अपनी जिंदगी बनाने के लिए सशक्तिकरण का एक ढांचा प्रदान करने वाली होनी चाहिए जिससे वे अपने कार्यों की जिम्मेदारी ले सकें और जीवन की अनिश्चितताओं का सामना करने के लिए मजबूत बन सकें। इसमें कारगर समाधान देने के साथ ही सरकार की रोजगार, हैल्थ केयर और सामाजिक सुरक्षा नीतियों का युवा उन्मुखी नजरिया भी दिखना चाहिए। हमें श्रम कानूनों में सुधार करने और रोजगार पैदा करने वाले प्रमुख उद्योगों को टैक्स लाभ देने की जरूरत है-ऑटोमोटिव की तुलना में परिधान उद्योग 80 गुना अधिक श्रम प्रधान है, इस्पात से 240 गुना अधिक श्रम प्रधान और इसमें हर एक लाख रुपए के निवेश पर 29 अतिरिक्त नौकरियां (महिलाओं के लिए 8 सहित) पैदा की जा सकती हैं। 

इसी प्रकार लैदर और फुटवियर क्षेत्र में निवेश किए गए प्रत्येक लाख रुपए से अंदाजन 7 नई नौकरियां (आर्थिक सर्वेक्षण,  2016-17)पैदा की जा सकती हैं। नौकरियों की मात्रा के अलावा उनकी गुणवत्ता भी मायने रखती है जिसे स्किङ्क्षलग कार्यक्रमों की पहुंच बढ़ाने और इनके स्तर में सुधार से हासिल किया जा सकता है। ठप्प हो गए पुराने उद्योग-धंधों के पुनरुत्थान के लिए गतिविधि/स्थान उद्योग आधारित प्रोत्साहनों के मौजूदा प्रस्तावों के अलावा जॉब आधारित वित्तीय प्रोत्साहनों पर विचार किया जा सकता है। 

हमें अपने रोजगार दफ्तरों को भी सुधारने, उन्हें जॉब सैंटर में बदलने की जरूरत है-भले ही इन्हें सरकार द्वारा चलाया जाए या निजी हाथों में दे दिया जाए। इन्हें रोजगार, समुदाय व उपयोगी कर्मियों के नैटवर्क के साथ युवा लोगों को जोडऩे और भर्ती संचालन के सहायक के रूप में काम करना चाहिए। इनके यूनाइटिड किंगडम के जॉब सैंटर प्लस की तरह सोशल सिक्योरिटी लाभ वितरण के साथ तालमेल से वैल्फेयर प्रणाली को सुव्यवस्थित करने में भी मदद मिलेगी। राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एन.एस.डी.सी.) को युवा विकास सहायता कार्यक्रम शुरू करने पर विचार करना चाहिए जिसके तहत युवाओं को कौशल विकसित करने में मदद देने वाले गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाए। इसके साथ ही जिला स्तर पर अप्रैंटिसशिप प्रोग्राम चलाने की भी जरूरत है। 

उद्यमिता को सामाजिक प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। एस.एम.ई. (लघु और मध्यम उद्यम) कारोबार शुरू करने में बाधाओं को हटाना एक प्रमुख उपाय है। फाइनांस तक पहुंच की कमी, सरकारी योजनाओं के बारे में सीमित जागरूकता और बुनियादी ढांचे की बाधाएं विकास की कोशिशों का गला घोंट रही हैं। भारत के बैंकिंग क्षेत्र को एस.एम.ई. क्षेत्र में भारी निवेश करने की दिशा में प्रोत्साहित करने की जरूरत है। आई.आई.टी. और आई.आई.एम. जैसे व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों में 2 साल के प्लेसमैंट हॉलीडे जैसे उपायों का उपयोग जोखिम लेने को बढ़ावा देने के लिए किया जाना चाहिए। जॉब सैंटर स्थानीय उद्यमियों को पैसे का इंतजाम करने में मदद करके और व्यापार योजना की समीक्षा करते हुए उनको संरक्षण दे सकते हैं। 

भारत के नेताओं और युवाओं के बीच पीढिय़ों का तालमेल फिलहाल टूट गया है और आर्थिक समृद्धि नहीं आने से युवाओं में गुस्सा है। हमारे जनसांख्यिकीय लाभ का भी इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। युवा विकास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है-ऐसा समय, जब अधिकांश युवाओं का अपने मूल्य, पहचान, रुचियों और रिश्तों पर सवाल उठाते हुए आत्मनिर्भर जीवन और एक स्थापित करियर में संक्रमण होता है, उन्हें एक स्वागत योग्य और उत्साहजनक माहौल प्रदान करना हम सबके हित में है और हमारी जिम्मेदारियों का हिस्सा है। बेरोजगारी उनकी सबसे बड़ी परेशानी बनी हुई है। इस परेशानी को हल करने में सिर्फ  लफ्फाजी से काम नहीं चलेगा।-वरुण गांधी

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