भारतीय लोकतंत्र को ‘मजबूत विपक्ष’ की तलाश

Edited By ,Updated: 17 Jul, 2019 02:01 AM

indian democracy seeks  strong opposition

17वीं लोकसभा का पहला सत्र बिना किसी व्यवधान के शुरू हुआ और इसमें पहली बार लोकसभा में पहुंचने वाले सांसदों को भी अपनी बात रखने का मौका मिला। 16वीं लोकसभा के दौरान बिखरा हुआ विपक्ष देखा गया था जबकि इस लोकसभा के दौरान विपक्ष में कमजोर आवाजें सुनाई दीं...

17वीं लोकसभा का पहला सत्र बिना किसी व्यवधान के शुरू हुआ और इसमें पहली बार लोकसभा में पहुंचने वाले सांसदों को भी अपनी बात रखने का मौका मिला। 16वीं लोकसभा के दौरान बिखरा हुआ विपक्ष देखा गया था जबकि इस लोकसभा के दौरान विपक्ष में कमजोर आवाजें सुनाई दीं जो एक सुर में नहीं थीं। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि विपक्ष अभी तक चुनावों के दौरान लगे सदमे से उबर नहीं पाया है।

किसी मजबूत लोकतंत्र के लिए जहां एक स्थायी सरकार की जरूरत होती है, वहीं इसके लिए एक विश्वसनीय और मजबूत विपक्ष भी जरूरी होता है। विपक्ष का मुख्य काम वर्तमान सरकार से सवाल पूछना और उसे जनता के प्रति उत्तरदायी बनाना होता है। यह विपक्ष ही होता है जो सरकार की शक्ति पर लगाम लगाने का काम करता है। यह एक स्थापित तथ्य है कि विशाल बहुमत और कमजोर विपक्ष वाली सरकारें महत्वपूर्ण मसलों को प्रभावित करती हैं। 

राजीव गांधी का शासन और विपक्ष
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब राजीव गांधी 415 सीटों वाले विशाल बहुमत के साथ सत्ता में आए तो उस समय विपक्ष संख्या बल में कमजोर होने के बावजूद खामोश नहीं था। उस दौरान मधु दंडवते, सोमनाथ चटर्जी, इंद्रजीत गुप्त, उन्नीकृष्णन, जयपाल रैड्डी सहित लगभग आधा दर्जन नेताओं ने बोफोर्स तोप घोटाले को उजागर किया, जो राजीव गांधी सरकार के पतन का कारण बना। उससे पहले जब 1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थीं तो उन्होंने सी.एम. स्टीफन जैसे प्रखर नेताओं को मैदान में उतारा था। दुर्भाग्य से इस समय विपक्ष के पास इस तरह के ज्यादा नेता नहीं हैं, जो संसद में और संसद के बाहर सरकार को घेर सकें। इसके अलावा विपक्षी नेता एकजुट भी नहीं हैं। यही असली चिंता की बात है। 

भाजपा नेता अरुण जेतली ने ‘डरे हुए भारतीय विपक्ष का परिदृश्य’ नामक ब्लॉग में लिखा था कि विपक्षी खेमा टूटा हुआ है। उन्होंने इस बात की ओर संकेत किया था कि विपक्ष में नेता या कार्यक्रम को लेकर कोई आपसी सहमति नहीं है और उनमें एकमात्र समानता एक व्यक्ति (मोदी) से छुटकारा पाने की है। यह विपक्षी एकता में कमी का ही परिणाम था कि 2019 के चुनावों में भाजपा को 352 सीटें मिलीं। 

प्रभावी विपक्ष के तौर पर कांग्रेस की नाकामी
विपक्ष की आवाज बंद होने का एक कारण पिछले एक दशक में भाजपा का एक बड़े राष्ट्रीय दल के तौर पर उभरना भी है। कांग्रेस पार्टी प्रभावी विपक्ष के तौर पर अक्षम रही है। यह पुरानी पार्टी अब भी अपनी पुरानी शान पर इतराती है और इसके नेता इस हकीकत को नहीं समझ पा रहे हैं कि अब मतदाता का प्रोफाइल बदल चुका है और पार्टी ने नए मतदाताओं से सम्पर्क खो दिया है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री के मुकाबले युवा होने के बावजूद युवाओं को आकर्षित करने में असमर्थ रहे हैं। कांग्रेस को अभी 2019 के चुनावों की समीक्षा करके स्वयं को दोबारा खड़ा करने के प्रयास करने होंगे। इसके विपरीत राहुल गांधी के इस्तीफे से पार्टी नेतृत्व के संकट में उलझ गई है और अभी तक इस मसले का समाधान नहीं खोज पाई है। 

कांग्रेस को भाजपा का मुकाबला करने के लिए जमीनी स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करना होगा। पार्टी इस वास्तविकता को नहीं समझी है कि वक्त बदल चुका है। केवल संसद का बहिष्कार करने और गलियों में नारे लगाने से कुछ नहीं होगा। उन्हें जनता से सम्पर्क करना होगा तथा उन्हें महत्वपूर्ण मुद्दों पर शिक्षित करना होगा। सबसे बड़ी बात यह है कि हार के बाद भी विपक्ष बिखरा हुआ है जैसा कि बसपा नेता मायावती द्वारा सपा से गठबंधन तोडऩे के मामले से स्पष्ट है। कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन भी टूट रहा है। इसके अलावा बहुत से विपक्षी नेता न्यायालयों में मामलों का सामना कर रहे हैं, जिस कारण वे भेद्य हैं। विपक्ष सरकार का विश्वसनीय विकल्प उपलब्ध करवाने में विफल रहा है। 

वामदलों का खात्मा
वर्तमान स्थिति का दूसरा कारण वामदलों का धीरे-धीरे खत्म होना है। पहले वामदल तीन राज्यों में सत्तासीन थे लेकिन अब केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे गढ़ों में वे समाप्ति की ओर अग्रसर हैं। कामरेड लम्बे समय से बौद्धिक गुट और ग्रामीण आंदोलन में बंटे हुए थे, जिसके परिणामस्वरूप वे धीरे-धीरे अपना जनाधार खो रहे हैं। वे मतदाताओं की वर्तमान जरूरतों के हिसाब से खुद को ढालने में नाकाम रहे हैं और इस बात को नहीं समझ सके कि अब धर्मनिरपेक्षता और वर्ग संघर्ष की बात मतदाताओं को आकर्षित नहीं करती। जहां तक सपा, बसपा, राजद, तृणमूल कांग्रेस, एन.सी.पी., डी.एम.के., शिवसेना, टी.आर.एस., टी.डी.पी. तथा अनेक उत्तर-पूर्वी क्षेत्रीय दलों की बात है, जो पारिवारिक शासन में विश्वास करते हैं, उनके पास भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं है। 

आज मजबूत विपक्ष की कमी भारत के लिए काफी दुखद बात है, जोकि एक लोकतंत्र में ङ्क्षचता का विषय है। कांग्रेस के शासन में 6 दशक तक कमजोर विपक्ष की स्थिति रही। विपक्षी दलों का इतना कमजोर पड़ जाना देशहित में नहीं है। किसी संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका अंधाधुंध विरोध के बजाय रचनात्मक आलोचना की होती है। स्पष्ट है कि राजनीतिक सत्ता संतुलन के मामले में भाजपा का पलड़ा भारी है। इस समय प्रधानमंत्री मोदी की छवि उससे भी मजबूत है, जितनी कभी नेहरू या इंदिरा गांधी की हुआ करती थी। विपक्ष की भूमिका सरकार के बराबर ही महत्वपूर्ण है। अब समय आ गया है कि विपक्ष मजबूती से खड़ा हो क्योंकि भारतीय लोकतंत्र वास्तविक विपक्ष के लिए छटपटा रहा है।-कल्याणी शंकर

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