Edited By ,Updated: 14 May, 2019 03:17 AM
देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में हुई तीन घटनाओं ने भारत की न्याय व्यवस्था को सदमे में डाल दिया। यहां तक कि जाने-माने वकील और भारत के वित्त मंत्री अरुण जेतली ने भी विगत 9 मई को एक पुस्तक विमोचन समारोह में कहा कि अदालत को डराने का कुचक्र चल...
देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में हुई तीन घटनाओं ने भारत की न्याय व्यवस्था को सदमे में डाल दिया। यहां तक कि जाने-माने वकील और भारत के वित्त मंत्री अरुण जेतली ने भी विगत 9 मई को एक पुस्तक विमोचन समारोह में कहा कि अदालत को डराने का कुचक्र चल रहा है। अगर देश की सबसे बड़ी पंचायत भी यही बात कहे और देश का शासक वर्ग भी, तो फिर इलाज क्या है? क्या न्याय के लिए माफियाओं की दहलीज पर जाना होगा? इन तीन घटनाओं ने पूरी दुनिया में भ्रष्टाचार पर शोध कर रहे विद्वानों के लिए एक नया सवाल खड़ा कर दिया है ...क्या विकासशील देशों में (खासकर भारत सरीखे) प्रचलन में आए कोल्युसिव करप्शन (सहमति के आधार पर भ्रष्टाचार) से छुटकारा पाना असंभव है?
इस किस्म का भ्रष्टाचार सन् 1970 से शुरू हुआ जब विकास का पैसा बड़ी मात्रा में सरकारी विभागों के माध्यम से भारत सहित तृतीय विश्व (अब विकासशील) में दिया जाने लगा। इसकी सबसे बड़ी खराबी यह है कि इसका खत्म होना तब तक संभव नहीं जब तक समाज के अन्दर वैयक्तिक नैतिक विवेक को झकझोरा न जाए और साथ ही भ्रष्टाचार निरोधक कानून और संस्थाओं को इतना मजबूत न बना दिया जाए कि कोई उनकी अवहेलना करने की हिमाकत न कर सके। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने इस संकट को ‘कोएर्सिव करप्शन’ (भयादोहन के जरिए किया जाने वाला भ्रष्टाचार) से भी खतरनाक बताया और 10 साल पहले अपनी रिपोर्ट में सिंगापुर और हांगकांग का उदाहरण देते हुए सलाह दी कि मजबूत संस्थाएं विकसित की जाएं और इसमें दोष-मुक्ति का जिम्मा (बर्डन ऑफ प्रूफ) भी आरोपी पर डाला जाए।
जब बदल गया सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर
क्या कोई विश्वास कर सकता है कि देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट में बैंच आदेश कुछ देती हैं और जो ऑर्डर औपचारिक रूप से निर्गत होता है वह कुछ और होता है। किसी व्यक्ति के पास इससे ऊपर न्याय के लिए जाने का उपाय नहीं है क्योंकि यह अंतिम अदालत है। यानी आप इस पर संतुष्ट न हों कि आपके पक्ष में वकील ने अच्छा तर्क दिया और बैंच ने फैसला आपके पक्ष में सुनाया। हाथ में जो आदेश आएगा वह शायद आपके खिलाफ हो। हाल ही में तीन ऐसी घटनाएं हुईं जिनसे बैंच के जजों के हाथों के तोते उड़ गए जब उन्होंने पाया कि जो ऑर्डर उन्होंने इन मामलों में दिया था उससे अलग ऑर्डर उनके स्टाफ ने जारी कर दिया है। यह पिछले एक हफ्ते में इस तरह की दूसरी घटना है जबकि कुछ सप्ताह पहले भी देश के एक बड़े उद्योगपति के अवमानना के मुकद्दमे में भी आदेश बदल दिया गया था। जब बैंच को पता चला तो कोर्ट के 2 कर्मचारी तत्काल नौकरी से निकाले गए और उन पर आपराधिक मुकद्दमे दर्ज किए गए।
ताजा घटना में हुआ यूं कि पिछली 2 मई को जस्टिस अरुण मिश्र के नेतृत्व वाली बैंच ने आदेश दिया कि आम्रपाली बिल्डर के सैंकड़ों करोड़ के घपले के मामले में उसे माल सप्लाई करने वाली छ: कम्पनियों के डायरैक्टर फॉरैंसिक ऑडिटर (कोर्ट-निर्धारित ऑडिटर) पवन अग्रवाल के समक्ष प्रस्तुत हों, पर जब 9 मई को बैंच फिर बैठी तो औपचारिक ऑर्डर में पवन अग्रवाल की जगह इन डायरैक्टरों को एक अन्य फॉरैंसिक ऑडिटर रविन्द्र भाटिया के समक्ष प्रस्तुत होने को कहा गया था। सदमे से कुपित होकर बैंच ने कहा कुछ प्रभावशाली कार्पोरेट घराने कोर्ट स्टाफ से मिलकर आदेश बदलवा देते हैं। वे न्याय प्रणाली में अंदर तक घुस गए हैं। उन्होंने याद दिलाया कि कुछ दिन पहले जस्टिस रोहिंटन नरीमन के नेतृत्व वाली बैंच के आदेश को भी बदल दिया गया था जिस पर अदालत के आदेश पर 2 कर्मचारियों को निकाला गया।
ध्यान रहे कि इसी अदालत की एक महिला कर्मचारी ने देश के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप लगा कर पूरे देश में तहलका मचा दिया और यहां तक कि वकीलों के एक वर्ग और कोर्ट के कर्मचारियों के संगठन ने भी धरना प्रदर्शन किया उस महिला कर्मचारी के पक्ष में। उधर कुछ दिनों में ही वकीलों और कोर्ट कर्मचारियों के अन्य धड़ों ने भी मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में प्रति-धरना शुरू कर दिया। यह सब राजनीतिक दलों और उनके अनुषांगिक संगठनों द्वारा तो किया जाता है लेकिन देश के मुख्य न्यायाधीश भी सही हैं या गलत, क्या यह सड़कों पर साबित होगा?
सुप्रीम कोर्ट में सब ठीक नहीं
जजों के ये उद्गार समाज के लिए एक दहशत पैदा करने वाले हैं। लगता है कि देश के सबसे बड़े न्याय के मंदिर में भी सब कुछ सही नहीं है। एक ही संस्था बची थी जिस पर भरोसा सबसे ज्यादा था लेकिन प्रभुता सम्पन्न वर्ग उसे भी घसीट कर अपने स्तर पर ला खड़ा कर देना चाहता है ताकि हमाम में किसी के तन पर कपड़ा न हो, लिहाजा कोई भी किसी को गलत कहने की हिम्मत नहीं करेगा। मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले पर पहले दिन कहा था कि कुछ प्रमुख मामलों में यह अदालत सुनवाई करने जा रही है इसलिए ये सब किया जा रहा है।
पिछले हफ्ते इसी अदालत के एक तीन सदस्यीय वरिष्ठ पैनल ने सुप्रीम कोर्ट की एक बर्खास्त महिलाकर्मी द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण के आरोपों के तथ्यों की जांच शुरू की। सुनवाई के दौरान इन जजों के आहत भाव का यह आलम था कि जस्टिस अरुण मिश्र ने कहा कि एक सुनियोजित कुचक्र है इस अदालत को प्रभावित करने का। अब समय आ गया है कि सम्पन्न और शक्तिशाली वर्ग को बता दिया जाए कि तुम आग से खेल रहे हो। सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता को बीच में रोकते हुए उन्होंने कहा मत सोचो कि दुनिया के किसी कोने में बैठ कर देश की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के जरिए अदालत को भी चला लोगे।
हम जब भी किसी ऐसे मामले को सुनते हैं जिसमें बड़े लोग संलिप्त होते हैं तो ऐसी घटनाएं पैदा की जाती हैं। लोग पैसे के बल पर हमारी रजिस्ट्री (जहां याचिकाएं दाखिल होती हैं) को प्रभावित करना चाहते हैं। अगर किसी एक के खिलाफ कार्रवाई की जाए तो वे आप की छवि खराब करने की साजिश करेंगे...मारने का कुचक्र करेंगे... यह सब करते रहेंगे। दूसरी तरफ की वकील इंद्रा जयसिंह जैसे ही कुछ बोलने के लिए खड़ी हुईं तो जस्टिस मिश्र फिर बोले- हमें प्रोवोक (उद्वेलित) न करें, हमें इस पर टिप्पणी करने के लिए मजबूर न करें कि किस तरह बैंच-फिक्स (पीठ-गठन) करवाए जाते हैं।
हम 70 साल में कहां आ गए हैं। शासक वर्ग के पास तो कानून की शक्ति है, पुलिस है, फिर वित्त मंत्री असहाय क्यों? फिर देश के सुप्रीम कोर्ट के जज ही नहीं, उच्च न्यायालयों के जज भी संविधान के अनुच्छेद 124 (4) के कवच से रक्षित हैं। उनको कौन डराने की जुर्रत कर रहा है? हमारा सिस्टम कितना असहाय हो चुका है इन सात दशकों में?-एन.के. सिंह