Edited By ,Updated: 11 Aug, 2022 05:24 AM
हाल ही में ‘डाऊन टू अर्थ’ के वार्षिक संस्करण ‘स्टेट ऑफ इंडियाज एन्वायरनमैंट इन फिगर्स 2022’ में बताया गया है कि प्रदूषण के मामले में नदियों की हालत बहुत दयनीय है। भारत में नदियों की गुणवत्ता निगरानी करने वाले दो-तिहाई स्टेशन ऐसे हैं जहां नदी जल के...
हाल ही में ‘डाऊन टू अर्थ’ के वार्षिक संस्करण ‘स्टेट ऑफ इंडियाज एन्वायरनमैंट इन फिगर्स 2022’ में बताया गया है कि प्रदूषण के मामले में नदियों की हालत बहुत दयनीय है। भारत में नदियों की गुणवत्ता निगरानी करने वाले दो-तिहाई स्टेशन ऐसे हैं जहां नदी जल के नमूनों में लेड, आयरन, निक्कल, कैडमियम, आर्सेनिक, क्रोमियम और कॉपर जैसी भारी धातुएं मिली हैं। इसके साथ ही 117 नदियों और सहायक नदियों की गुणवत्ता की निगरानी करने वाले एक-चौथाई स्टेशनों की जांच में जल नमूनों में दो या उससे अधिक जहरीली धातुओं की उपस्थिति है।
गंगा के 33 निगरानी स्टेशनों में 10 ऐसे हैं जहां लेड, आयरन, निक्कल, कैडमियम और आर्सेनिक की उच्च मात्रा मिली है। अगस्त 2018 से दिसंबर 2020 तक एकत्र किए गए 764 नदियों के नमूनों में 688 नदियों में भारी धातुओं की उच्च मात्रा है। दरअसल नदियों के किनारे अनेक सभ्यताएं विकसित हुई हैं। नदियां जहां एक ओर हमारी आस्था से जुड़ी हुई हैं वहीं दूसरी ओर हमारी अनेक मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
पुराने जमाने में हमारे गांवों और कस्बों में गृहस्थी की शुरूआत नदियों के माध्यम से ही होती थी। शादी-ब्याह में नदियों का जल घर पर लाया जाता था और इस जल से पूजा पाठ कर नवयुगल के सफल जीवन की कामना की जाती थी। इस तरह समाज में बचपन से ही नदियों को सम्मान देने और साफ-सुथरा रखने की सीख दी जाती थी। यही कारण था कि नदियां हमारी संस्कृति और सभ्यता की पहचान का आधार बनीं। धीरे-धीरे समय बदला और विकास की चकाचौंध में अच्छी परम्पराओं को भी तिलांजलि दे दी गई। विकास के नाम पर हुए औद्योगीकरण ने स्थिति को भयावह बना दिया और नदियां अपने अस्तित्व के लिए जूझने लगीं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि स्थिति की भयावहता को देखते हुए हमारा ध्यान बड़ी नदियों पर ही केंद्रित रहा। छोटी नदियों को बचाने के लिए न तो कोई बड़ा आंदोलन हुआ और न ही सरकार ने छोटी नदियों के लिए कोई ठोस नीति बनाई। यही कारण है कि आज देश की अनेक छोटी नदियां या तो मर चुकी हैं या फिर मरने के कगार पर हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज देश की अनेक छोटी नदियां नालों में तबदील हो चुकी हैं। इन नदियों में लगभग 30-35 साल पहले स्वच्छ जल बहता था लेकिन आज इन छोटी नदियों का प्रदूषित जल समाज के लिए अभिशाप बन गया है। इन नदियों के किनारे बसे गांवों में ग्रामीण कैंसर जैसी घातक बीमारियों से जूझ रहे हैं। हालात यह हैं कि नदियों के प्रदूषण के कारण पीने का पानी भी प्रदूषित हो गया है। फलस्वरूप ग्रामीणों को त्वचा और पेट संबंधी बीमारियों ने घेर लिया है। स्थिति इतनी खतरनाक है कि पुरुषों की पौरुषता और महिलाओं की प्रजनन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।
इन छोटी नदियों के किनारे और आस-पास उगने वाली सब्जियां भी जहरीली हो गई हैं, इसलिए इन सब्जियों से पौष्टिकता गायब है और ये जहर परोस रही हैं। बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी नदियों का असर पशुओं पर पड़ रहा है। यही कारण है कि पशुओं में अनेक स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा हो गई हैं। ऐसी जगहों पर अपने गिरते स्वास्थ्य से परेशान ग्रामीण पालतू पशुओं के स्वास्थ्य को लेकर भी चिन्तित हैं। ग्रामीणों का अपने और अपने पालतू पशुओं के स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च लगातार बढ़ रहा है।
केन्द्रीय भू-जल बोर्ड की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ छोटी नदियों के पानी में अत्यधिक मात्रा में कॉपर, क्रोमियम, लोहा, जिंक एवं प्रतिबन्धित कीटनाशक घुले हुए हैं। हालात यह हैं कि कुछ जगहों पर धरती के अंदर काफी गहराई तक भारी तत्व अधिक मात्रा में पाए गए हैं। प्रदूषण की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन नदियों के जल में पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन नहीं है। इसी कारण मछलियों एवं अन्य जलीय जीवों के जीवन पर मंडराता खतरा अन्तत: उनके लिए मौत का सबब बन रहा है। फलस्वरूप इन नदियों में जलीय जीवों के अस्तित्व की कोई सम्भावना दिखाई नहीं देती।
छोटी नदियों के इस प्रदूषण के लिए मुख्यत: चीनी मिल, पेपर मिल और रासायनिक उद्योग जिम्मेदार हैं। इन मिलों और उद्योगों का गंदा जल नदियों में गिरता है। इसके साथ ही अनेक गांवों, कस्बों और कुछ शहरों का गंदा पानी भी नदियों में गिरकर प्रदूषण बढ़ा रहा है। छोटी नदियों के प्रदूषण को कम करने के लिए अभी तक कोई बड़ा प्रयास नहीं हुआ है। विडम्बना यह है कि नदियों किनारे बसी आबादी ने भी नदियों को साफ-सुथरा रखने की कोई सुध नहीं ली बल्कि इसे प्रदूषित ही किया। इस प्रदूषण के कारण ही आज हैजा, पीलिया, पेचिश और टाइफायड जैसी जल-जनित बीमारियां बढ़ती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 80 फीसदी स्वास्थ्यगत समस्याएं और एक तिहाई मौतें जल-जनित बीमारियों के कारण ही होती हैं।
भारतीय समाज ने अपने पाप धोने के लिए नदियों में डुबकी तो लगा ली लेकिन वह नदियों की आत्मा में डुबकी न लगा पाया। यही कारण है कि नदियों के साथ हमारे समाज का रिश्ता स्वार्थ की भेंट चढ़ गया। नदियां हमें विभिन्न तौर-तरीकों से सुख-समृद्धि प्रदान करती रहीं लेकिन हम नदियों को वह आदर नहीं दे पाए जिसकी वे हकदार थीं। भारतीय समाज ने आस्था की आड़ में नदियों पर जो कहर ढाया, वह अन्तत: समाज के लिए ही घातक सिद्ध हुआ। अब समय आ गया है कि हम गंभीरता के साथ छोटी नदियों को बचाने के प्रयास करें। इस मुद्दे पर केवल सरकार के भरोसे बैठे रहना उचित नहीं है। हमें कोशिश करनी होगी कि छोटी नदियों को साफ करने की योजना में आम आदमी की सहभागिता भी हो।-रोहित कौशिक