भड़काऊ बयानबाजी ने किया देश का ‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण’

Edited By ,Updated: 01 Nov, 2015 02:06 AM

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आजकल वैसी स्थिति नहीं जैसी 1975 में इंदिरा द्वारा लगाए गए आपातकाल के समय थी। न ही भारत की बहुत बदल चुकी वर्तमान स्थितियों में आपातकाल दोबारा लगने की कोई संभावना है

(बी.के. चम): आजकल वैसी स्थिति नहीं जैसी 1975 में इंदिरा द्वारा लगाए गए आपातकाल के समय थी। न ही भारत की बहुत बदल चुकी वर्तमान स्थितियों में आपातकाल दोबारा लगने की कोई संभावना है लेकिन हमारे वर्तमान शासकों की कथनी और करनी आपातकाल जैसे वातावरण का सृजन कर रही है। हिन्दुत्व के कट्टर पक्षधरों और उग्रपंथी तत्वों द्वारा की गई भड़काऊ बयानबाजी ने देश का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण कर दिया है।

ऐसे में ‘आया राम गया राम’ की भूमि हरियाणा भला कैसे पीछे रहने वाला था। आर.एस.एस. के पूर्व प्रचारक रह चुके इसके मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने टिप्पणी की, ‘‘मुस्लिम इस देश में पहले की भांति रह सकते हैं लेकिन उन्हें गौमांस का परित्याग करना होगा क्योंकि हमारे यहां गऊ श्रद्धा का केन्द्र है।’’
 
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके प्रसिद्ध पत्रकार अरुण शौरी कहते हैं : ‘‘कांग्रेस सरकार से मोदी सरकार का केवल इतना ही फर्क है कि इसने पहली नीतियों में गऊ को भी जोड़ दिया है। जहां तक राजनीति का सवाल है, कोई बदलाव नहीं आया।’’
 
इन घटनाक्रमों के राजनीतिक अर्थ ढूंढने से पहले कुछ बातों पर संक्षिप्त चर्चा करनी जरूरी है। इन घटनाक्रमों का निश्चय ही कोई नतीजा तो निकलना ही था और इसने उन लोगों द्वारा रोष व्यक्त किए जाने का रूप धारण किया जो यह चाहते थे कि भारत का सैकुलर एवं बहुलतावादी चरित्र यथावत रखा जाए। लेखकों, फिल्मकारों एवं अकादमिकों ने बढ़ती असहिष्णुता एवं साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के विरुद्ध रोष स्वरूप साहित्य अकादमी के अपने पुरस्कार लौटाने का कदम उठाया।
 
अनेक नामी-गिरामी लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने का रुझान उस समय ‘सुनामी’ का रूप ग्रहण कर गया जब दर्जन भर फिल्मी हस्तियों, 4 पद्म भूषण और एक पद्म विभूषण पुरस्कार विजेता सहित कई शीर्ष वैज्ञानिकों ने भी अपने पुरस्कार लौटा दिए। देश में ‘बढ़ती असहिष्णुता और घोर कड़वाहट भरे वातावरण’ के विरुद्ध रोष व्यक्त करने वाले ताजातरीन महानुभावों में भारत के 53 प्रसिद्ध इतिहासकार भी शामिल हैं। 
 
नवीनतम मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि चित्रकारों और कलादीर्घाओं के मालिकों सहित कलाकार समुदाय के 300 से अधिक सदस्यों तथा देश-विदेश के अग्रणी अकादमिक एवं शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों ने भी राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को याचिका प्रस्तुत करके हाल ही के दिनों में असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं तथा ‘साम्प्रदायिक नफरत भड़काने व ध्रुवीकरण करने के सोचे-समझे प्रयासों’ की बढ़ती घटनाओं पर अपनी बेचैनी व्यक्त की है।
 
जेतली ने पुरस्कार वापस किए जाने को ‘‘सरकार के विरुद्ध कागजी विद्रोह’’ की संज्ञा दी है और पद्म एवं राष्ट्रीय पुरस्कार वापस करने वालों को ‘भाजपा विरोध से पगलाए तत्व’ करार दिया है। जेतली के समर्थन में उतरते हुए खुद को ‘सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन’ कहने वाले आर.एस.एस. ने भी अब पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों और फिल्मकारों को ‘राजनीतिक दुराग्रह के शिकार मुठ्ठी भर कथित सैकुलरवादी’ करार दिया है।
 
इस स्थिति को 2 घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है : फिल्म एंड टैलीविजन इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया (एफ.टी.आई.आई.), चिल्ड्रंस फिल्म सोसायटी एवं केन्द्रीय फिल्म सैंसर बोर्ड जैसे देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरुण जेतली द्वारा संकीर्ण दृष्टिकोण एवं संदिग्ध पात्रता/योग्यता वाले आर.एस.एस. के लोगों की नियुक्ति करना और जेतली द्वारा ही सुप्रीमकोर्ट के राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द करने के निर्णय  पर टिप्पणी करना तथा कोलिजियम प्रणाली को जायज करार देना। 
 
अपनी कुछ बहुत ही कठोर प्रतिक्रिया में जेतली ने कहा, ‘‘लोकतंत्र ‘उन लोगों के अत्याचार का रूप ग्रहण नहीं कर सकता जिन्हें किसी ने निर्वाचित नहीं किया’।’’ सवाल पैदा होता है  कि जिस व्यक्ति को 2014 के चुनाव में अमृतसर संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं ने रद्द कर दिया था क्या वह अब स्वयं ‘गैर-निर्वाचित वित्त मंत्री नहीं?’ और प्रसिद्ध साहित्यकारों व कलाकारों द्वारा पुरस्कार लौटाए जाने को ‘सरकार के विरुद्ध कागजी विद्रोह’ करार देने की उसकी टिप्पणी क्या ‘गैर-निर्वाचित व्यक्ति का अत्याचार’ नहीं?
 
अब फिल्म स्टार अनुपम खेर भी जेतली के समर्थन में उतर आए हैं। उन्होंने पुरस्कार लौटाने को ‘पब्लिसिटी स्टंट’ करार देते हुए कहा है कि इन लोगों का एकमात्र एजैंडा केवल प्रधानमंत्री का विरोध करना है। फिल्मी दुनिया के अपने सहयोगियों की खेर द्वारा आलोचना इन अर्थों में ‘न्यायोचित’ है कि अपनी पत्नी को चंडीगढ़ से भाजपा टिकट पर लोकसभा सदस्य निर्वाचित करवाने के कारण वह पार्टी के अहसानों के बोझ से दबे हुए हैं।
 
जो लोग यह उम्मीद लगाए हुए हैं कि प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाए जाने के मुद्दे पर प्रधानमंत्री अपना मौन तोड़ेंगे, वे शेख चिल्ली की दुनिया में जी रहे हैं। वे यह बात भूल गए हैं कि बार-बार की गई विदेशी यात्राओं के दौरान विदेशी श्रोताओं के समक्ष धुआंधार और मंत्रमुग्ध करने वाले भाषण देने वाले मोदी ने अपने देश को दरपेश गंभीर मुद्दों पर तब भी मूतिवत मौन साधे रखा जब राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने अपनी सूक्ष्म टिप्पणियों से उन्हें जुबान खोलने को मजबूर कर दिया।
 
दादरी में भड़की भीड़ के हाथों मोहम्मद अखलाक की हत्या की रोशनी में की गई अपनी एक टिप्पणी में मुखर्जी ने कहा था ‘‘विभिन्नतावाद, सहिष्णुता और बहुलतावाद पर आधारित भारत के कुंजीवत जीवन मूल्यों का किसी भी कीमत पर क्षरण नहीं होने दिया जाएगा।’’ मुखर्जी द्वारा दो बार टिप्पणी किए जाने के बावजूद मोदी ने भीड़ के हाथों अखलाक की हत्या की निंदा नहीं की। 
 
उन्होंने केवल इतना ही कहा कि हिन्दू और मुस्लिम आपस में झगड़ा न करें और साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखें। उन्होंने न तो अपने मुंहफट मंत्रियों पर विभाजनकारी बयानबाजी करने के मामले में कोई कार्रवाई की और न ही पार्टी के सांसदों और विधायकों के विरुद्ध। उपरोक्त घटनाएं बिहार चुनाव के नतीजों को प्रभावित करेंगी। प्रत्याशी पार्टियों की प्रतिक्रियाओं से इस बात का भली-भांति संकेत मिलता है। जहां भाजपा और 3 दलों का महागठबंधन यह दावा कर रहे हैं कि चुनाव वही जीतेंगे, वहीं ऐसे संकेत मिले हैं कि भाजपा नेतृत्व हताशा का शिकार है। 
 
किसी भी कीमत पर वोट हथियाने की लालसा में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह नेे स्वयं यह कहकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने का प्रयास किया है कि यदि ‘‘बिहार में भाजपा पराजित हो गई तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे।’’ बिहार में उनके सहकर्मी सुशील मोदी ने मतदाताओं को कहा है कि वे प्रधानमंत्री मोदी के हाथ मजबूत करें क्योंकि ‘चीन और पाकिस्तान केवल मोदी से ही डरते हैं।’ भाजपा को तब भारी निराशा का सामना करना पड़ा जब उपरोक्त तीनों संकेतों के समान्तर ही चुनाव आयोग ने सत्तारूढ़ दल को कोटा के मुद्दे पर आधारित चुनावी विज्ञापन रोकने की चेतावनी दी और साथ ही समाचार पत्रों को ऐसे विज्ञापन प्रकाशित करने से मना कर दिया। 
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