Edited By ,Updated: 20 Jun, 2021 06:19 AM
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और जाने-माने अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने कुछ यूं अगाह किया है ‘अर्थव्यवस्था पर महामारी और महंगाई का अस्थायी वार कहीं लाइलाज रोग न बन जाए।’ कहते तो
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और जाने-माने अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने कुछ यूं अगाह किया है ‘अर्थव्यवस्था पर महामारी और महंगाई का अस्थायी वार कहीं लाइलाज रोग न बन जाए।’ कहते तो हैं कि जान है, तो जहान है। लेकिन जान बच जाने के बाद जहान की चिंता और भी दुखाने लगती है। कोरोना महामारी से बचाव के लिए बेशक सतर्कता जरूरी है, लेकिन बीते सवा साल से लॉकडाऊन पर लॉकडाऊन ने देश भर के मध्यवर्गीय परिवारों की आर्थिक सेहत का भी दम निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
वित्तीय मुश्किलों से घिरे निम्न और उच्चमध्य वर्ग के घर-परिवार का बजट चारों खाने चित्त हो चुका है। आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले 40 सालों में अर्थव्यवस्था अब तक के न्यूनतम स्तर पर लुढ़की हुई है। पैट्रोल से फल-सब्जी और दूसरे जरूरी सामान की महंगाई की डबल मार पड़ रही है। मध्य वर्ग तो जैसे-तैसे महंगाई के जुल्म बर्दाश्त कर लेता है, लेकिन गरीब वर्गों की कमर ही तोड़ देती है।
पिउ रिसर्च सैंटर के एक शोध के मुताबिक भारत के मध्य वर्ग को बीते साल महामारी की चपेट में आकर, 3.2 करोड़ नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। अब कोरोना की दूसरी लहर के चलते लाखों और नौकरियां दांव पर हैं, छिनने का भारी अंदेशा है। उधर मुंबई के थिंक टैंक सैंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी का दावा है कि अकेले इसी मई में एक करोड़ नौकरियों का सफाया हुआ है। इसी संस्था की रिपोर्ट जाहिर करती है कि विगत अप्रैल में ही 70 लाख लोगों का काम-धंधा छिन गया था।
पिछले सवा साल से परिवार की सेहत संभालने के चक्कर में ज्यादा खर्च भी मध्य वर्ग की कड़की का अहम कारण है। आंकड़े गवाह हैं कि इस दौरान, भारतीयों को अपनी कमाई का कम से कम 11 फीसदी हिस्सा दवा, टॉनिक, मास्क, सैनेटाइजर, बार-बार मैडिकल टैस्ट जैसी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों पर खर्च करने के लिए विवश होना पड़ा। जान और जहान की भारी क्षति के साथ कोरोना की पहली और दूसरी लहर ने मिल कर, मध्यवर्गीय परिवारों के सपने चकनाचूर कर दिए हैं।
बच्चों की पढ़ाई, रोजमर्रा के खाने-पीने, घर-गृहस्थी की टूट-फूट और रख-रखाव के लिए संभाल कर रखे रुपए-पैसे निकाल-निकाल कर मजबूरन खर्च करने की नौबत आ गई। घर- घर की कहानी है कि बैंक खाते खाली ही नहीं हुए, बचत योजनाओं में लगाया पैसा तक निकाल कर खर्च कर दिया गया है। बेशक देश भर में अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, लेकिन कोविड के ठीक हो चुके रोगी शरीर-जोड़ों के दर्द, जबरदस्त थकावट, मनोवैज्ञानिक बीमारी से लेकर निमोनिया, हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक तक की गहन जटिलताओं के शिकार हो रहे हैं, और अस्पताल के खर्चे पीछा छोडऩे का नाम नहीं ले रहे।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट से जाहिर होता है कि करीब 135 करोड़ की भारतीय आबादी ने एक साल में 66,000 करोड़ रुपए अतिरिक्त दवाओं और अन्य मैडिकल जरूरतों पर खर्च कर दिए। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले हर 100 रुपए में से 65 रुपए भारतीयों ने अपनी जेब से खर्च किए हैं, और बाकी सरकार की तरफ से खर्च किए गए। भारत की आॢथक गिरावट के चलते दुनिया की मध्यवर्गीय आबादी 60 फीसदी तक कम हुई है। इससे पहले 1990 से लगातार मध्यवर्गीय आबादी की संख्या बढ़ती गई, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को लिफ्ट करने में बड़ा योगदान दिया। तब देश की कुल आबादी का 28 फीसदी मध्य वर्ग था और कुल आयकरदाताओं में 79 फीसदी मध्यवर्गीय सम्मिलित रहे।
शहर देहात के मध्य वर्ग को एक और मार झेलनी पड़ी है कि इंटरनैट और लैपटॉप-क प्यूटर के अभाव से उनके बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित रहने को मजबूर हैं। नतीजतन कई बच्चों के तो स्कूल ही छूट गए हैं। अगली पीढ़ी अशिक्षित रह गई, तो मध्यवर्गीय परिवारों की आॢथक सेहत पर दूरगामी कुप्रभाव पडऩा स्वाभाविक है। महामारी की चपेट में दुनिया के 110 से ज्यादा देश आ चुके हैं। जिनेवा स्थित श्रमिकों के संगठन ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ’ का ताजा आकलन बताता है कि 2023 आते-आते दुनिया के 20.5 करोड़ लोग बेरोजगार हो जाएंगे। हालांकि कुछ अर्थव्यवस्थाओं का धंसना थम चुका है, और कुछ पुन: पटरी पर दौडऩे लगी हैं।
न्यूजीलैंड इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। वहां की सरकार ने लॉकडाऊन के दौरान अपने नागरिकों को घर में रहने की स त हिदायत दी। लॉकडाऊन का पूरी तरह पालन हो, इसलिए वहां की सरकार ने लोगों को उनकी मासिक आमदनी के 80 फीसदी रुपए घर बैठे-बिठाए देने की गारंटी ही नहीं दी, बाकायदा भुगतान भी सुनिश्चित किया।-अमिताभ भोला