बीमा कम्पनियों के प्रमुख पद खाली और सरकार लाभ बढ़ाने पर तुली

Edited By ,Updated: 06 Feb, 2017 12:16 AM

insurance companies bent on maximizing profits

आखिर क्यों सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों में प्रमुख पदों को कई बार महीनों खाली ही

आखिर क्यों सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों में प्रमुख पदों को कई बार महीनों खाली ही निकाल दिया जाता है? यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक में भी डिप्टी गवर्नरों के पदों को अभी तक पूरी तरह से नहीं भरा गया है। सरकार ने सैंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टीगेशन (सी.बी.आई.) के डायरैक्टर पद को भी महीनों खाली रखने के बाद आखिरकार नियुक्ति की। 

ऐसे में बाबुओं पर नजर रखने वालों और आम लोगों को भी यह सवाल काफी परेशान कर रहा है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है। चूंकि काफी सारे पद अधिकारियों का सेवाकाल पूरा होने के कारण खाली हुए हैं लेकिन उनका कार्यकाल कब समाप्त हो रहा है, यह भी कोई गोपनीय भेद नहीं है। कई पदों के लिए तो बाबू प्रक्रिया के शुरू होने से लेकर राजनीतिक आकाओं की हरी झंडी तक का इंतजार करते रहे हैं। 

वर्तमान में ओरिएंटल इंश्योरैंस कम्पनी, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरैंस कम्पनी और एग्रीकल्चरल इंश्योरैंस कॉर्पोरेशन भी बीते कई महीनों से बिना किसी प्रमुख से खाली पड़े हैं। इनके प्रमुखों की चयन प्रक्रिया को 2 बार खारिज किया जा चुका है और तीसरी बार इन पदों के लिए इंटरव्यू भी हो चुके हैं। कैबिनेट ने सूची के पहले 2 नामों को जनरल बीमा कम्पनियों  के लिए तय किया है और अगले वित्त वर्ष में न्यू इंडिया इंश्योरैंस और जी.आई.सी. के प्रमुखों को तय करने का फैसला किया है। 

बताया जा रहा है कि वित्त मंत्री अरुण जेतली ने इन कम्पनियों  को अपनी कमर कसने और अपनी लाभप्रदता बढ़ाने के लिए कहा है। पर, वह कह किन लोगों को रहे हैं जबकि इन कम्पनियों  का कोई प्रमुख ही नहीं है और कुछ पर अस्थायी लोग काम कर रहे हैं? सुनिश्चित है कि क्या एक बार फिर से सवाल खड़ा हो गया है कि प्रधानमंत्री को एक बार फिर से सिविल सॢवसेज कैडर में ऐसा कोई भी खोजे नहीं मिल रहा है जो कुशलता और प्रभावी ढंग से इनका संचालन कर सके?

बाबू की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश, सरकार जारी करेगी अधिसूचना सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) के निदेशक करनैल सिंह की नियुक्ति को लेकर एक नई अधिसूचना जारी करे जोकि सी.वी.सी. अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार 2 वर्ष के लिए और उसमें यह भी लिखा हो कि ‘एक नियम एक संवैधानिक व्यवस्था से ऊपर नहीं हो सकता है’।

सिंह जोकि सेवा विस्तार के बाद निदेशक पद को अतिरिक्त कार्यभार के तौर पर संभाल रहे थे, को प्रवर्तन निदेशालय में 27 अक्तूबर, 2016 से 31 अगस्त, 2017 तक के लिए पूर्ण-कालिक निदेशक के तौर पर नियुक्त किया गया। वह इसी तारीख को सेवानिवृत्त भी होंगे। हालांकि यह नियुक्ति केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी.) अधिनियम के अनुरूप नहीं है जिसमें ई.डी. निदेशक का पद 2 वर्ष से कम के लिए नियुक्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए, वर्तमान नियुक्ति पत्र अधिनियम का अनुपालन नहीं करता है और अदालत ने भी इसे ध्यान में रखते हुए यह निर्देश दिया है।

अब यह उम्मीद जताई जा रही है कि इस संबंध में एक नई अधिसूचना जारी हो गई तो फिर पूरा मामला शांत हो जाएगा। यह मामला उस समय सामने आया जब बीते साल मुम्बई स्थित पूर्व आई.आर.एस. अधिकारी उदय बाबू खलवाडेकर ने एक पी.आई.एल. को दायर किया और उन्होंने मांग की कि केन्द्र द्वारा सिंह को इस एजैंसी का अस्थायी पद देकर तथा फिर सेवा विस्तार प्रदान कर संबंधित कानून का उल्लंघन किया है।

कर अधिकारी क्यों खफा हैं जी.एस.टी. से अब जब राज्यों ने भी जी.एस.टी. के सभी प्रावधानों पर सहमति जता कर हस्ताक्षर कर दिए हैं तो अब बारी है कर अधिकारियों की, जोकि जी.एस.टी. काऊंसिल के फैसलों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि नई व्यवस्था में इसका क्रियान्वयन पूरी तरह से राज्य सरकारों का दायित्व बन जाएगा न कि केन्द्र का।

केन्द्र सरकार के राजस्व अधिकारियों, जिनमें कस्टम्स और एक्साइज अधिकारी भी शामिल हैं, इस मामले पर केन्द्र सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए काले बिल्ले लगातार काम कर रहे हैं और अपना विरोध जता रहे हैं। भारतीय राजस्व सेवा (आई.आर.एस.) एसोसिएशन के अनुसार जी.एस.टी. परिषद का फैसला 1.5 करोड़ रुपए वाॢषक से कम टर्नओवर वाले कर एसेसीज का 90 प्रतिशत नियंत्रण राज्यों को होगा और इससे केन्द्र को कर देने वालों का आधार काफी कम हो जाएगा।

हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेतली ने उनकी ङ्क्षचताओं को यह कह कर कम करने का प्रयास किया है कि उस विवाद या रोष का कोई ठोस आधार नहीं है, पर केन्द्रीय कर अधिकारी इस तर्क से अधिक सहमत नहीं दिखते हैं। उनका यह दावा है कि जी.एस.टी. को लेकर कोई अनुभव न होने के चलते राज्य अधिकारियों के लिए जी.एस.टी. को लागू करना काफी मुश्किल हो जाएगा और इससे करदाताओं के बीच भी काफी उलझनें पैदा हो जाएंगी। अब देखना यह होगा कि राज्यों में उनके समकक्ष कर अधिकारी किस प्रकार से प्रतिक्रिया देते हैं?

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