Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Jun, 2017 10:54 PM
मोदी सरकार ने 26 मई, 2017 को अपने कार्यकाल के 3 वर्ष पूरे कर....
मोदी सरकार ने 26 मई, 2017 को अपने कार्यकाल के 3 वर्ष पूरे कर लिए। मोदी फैस्ट जैसे विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कई स्थानों पर किया गया और देश भर में विभिन्न शहरों में समारोह आयोजित करने की योजना है। इन कार्यक्रमों में निहित संदेश यह है कि मोदी सरकार ने उल्लेखनीय कार्य किया है और देश सभी के लिए समृद्धि की ओर आगे बढ़ रहा है। मोदी को उनके करीबी लोगों ने ‘गरीबों का मसीहा’ बताया। बहुत से चैनल तथा कमैंटेटर उनकी विभिन्न उपलब्धियों के लिए उन्हें शानदार ग्रेड दे रहे हैं।
वास्तव में गत 3 वर्षों में हुआ क्या है? सटीक शब्दों में कहें तो इस समय के दौरान प्रधानमंत्री के हाथों में सत्ता का केन्द्रीयकरण हुआ है। ऐसा दिखाई देता है कि मंत्रिमंडलीय प्रणाली को दरकिनार कर दिया गया है। हर कोई विश्वास कर लेगा कि छवि बनाने के मामले में इस सरकार ने अत्यंत उच्च स्कोर हासिल किया है। यह विमुद्रीकरण जैसी विनाशकारी कार्रवाइयों को देश के लिए अच्छा बताकर बेचने में सफल रही है। जहां अधिकतर लोग सरकार द्वारा किए जा रहे प्रचार तथा इसके समर्थक मीडिया द्वारा उसे प्रचारित करने के कारण भ्रम की स्थिति में रह रहे हैं, जमीनी स्थिति यह है कि उत्पादन, रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतों, नौकरियां पैदा करने तथा रहन-सहन के औसत दर्जे के मामलों में गिरावट आई है।
स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और भी निराशाजनक हुई है। किसानों की आत्महत्या के मामले और बढ़ गए हैं। देश में होने वाले अधिकांश प्रदर्शनों की तरह तमिलनाडु के किसानों द्वारा किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन को भी नजरअंदाज कर दिया गया है। चुनावी वायदों का भविष्य भी सभी नागरिकों के बैंक अकाऊंट्स में 15-15 लाख रुपए जमा करवाने तथा नौकरियां पैदा करने में असफलता से जाहिर हो जाता है। ध्रुवीकरण के लिए राम मंदिर के मुद्दे का इस्तेमाल करने के बाद अब पवित्र गाय को राजनीति के मंच पर लाया गया है। इस गाय पूजा का परिणाम मुसलमानों तथा दलितों की बेरहम पिटाई के रूप में निकला है।
सरकार की गौ-रक्षा नीतियों के परिणामस्वरूप गौ-रक्षा के नाम पर हत्याएं हो रही हैं। जहां अपराध के दोषियों को बख्शा जा रहा है, वहीं इसके शिकार लोगों को कई आधार पर दंडित किया जा रहा है। सामाजिक परिदृश्य पर भ्रम पैदा करने वाले वायदे तथा पहचान से संबंधित मुद्दे हावी हैं। आपको याद है कि यू.पी.ए. शासनकाल में इतना शोर-शराबा नहीं किया जाता था तथा लोगों के अधिकारों से संबंधित प्रमुख मुद्दों पर चर्चा की जाती थी जैसे कि भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा तथा रोजगार। आजकल झूठी वाहवाही लूटने का माहौल बना हुआ है। सरकार की उपलब्धियां सुनाने के लिए एक सॢजकल स्ट्राइक का सहारा लिया जा रहा है जबकि सीमा पर नियमित रूप से झड़पें जारी हैं जिनमें सैनिक शहीद हो रहे हैं।
कश्मीर नीति ने एक ऐसी स्थिति बना दी है जिसमें न केवल गुस्साए लड़के बल्कि लड़कियां भी सड़कों पर निकलकर पत्थरबाजी कर रही हैं। कश्मीरियों के गुस्से पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा जबकि पाकिस्तान के साथ वार्ता शुरू करने में असफलता स्थिति को और भी खराब कर रही है। राजनीतिक मामलों में ‘हिन्दुत्व’ का दखल एक बड़ी चिंता का विषय है। शिक्षा के क्षेत्र में वैचारिक प्रवृत्ति के लोगों की घुसपैठ हो रही है तथा धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता छीनी जा रही है और शिक्षा के क्षेत्र में क्षरण की संस्कृति हावी हो रही है। अब नया नारा ‘पारम्परिक विश्वास’ को ‘जानकारी’ के तौर पर पुनर्जीवित करना तथा पौराणिक कथाओं को इतिहास के तौर पर जानना और सदियों पुरानी राजकीय जानकारी को साइंस का दर्जा देना है।
समाज के सभी वर्गों के लोग, जो समाज की बेहतरी में अपना योगदान डालते हैं, द्वारा सेना को देश की रक्षक का ऊंचा दर्जा दिया गया है जबकि अन्न उत्पादक तथा देश के लिए सेवाएं देने वाले अन्य वर्गों को हाशिए पर डाल दिया गया है। लाल बहादुर शास्त्री के समय में नारा था ‘जय जवान, जय किसान’ जबकि अब किसान को दरकिनार कर दिया गया है। कुल मिलाकर लोकतांत्रिक मूल्य स्थानांतरित हो गए हैं जिसमें मीडिया का एक बड़ा वर्ग सत्ताधारी सरकार के सामने नतमस्तक है और विपक्ष को निशाने पर ले रखा है। मीडिया ने सरकार पर नजर रखने और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की अपनी भूमिका को छोड़ दिया है। यह रुझान असहनीय है, जो अंधविश्वासों के खिलाफ आवाज उठाने वाले नरेन्द्र दाभोलकर, गोबिंद पंसारे तथा एम.एम. कलबुर्गी की हत्या के साथ शुरू हुआ था, जो अब चरम पर पहुंच गया है।
सरकार की इन सभी असफलताओं के बावजूद जनता की राय इस बात की ओर इशारा करती है कि कैसे शोर-शराबे वाला प्रचार सब कुछ ठीक होने वाला भ्रम बना सकता है। फिर भी जनता का असंतोष बढ़ रहा है। गत तीन वर्षों के दौरान मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ बड़ा विद्रोह देखा गया है। जहां किसानों की एकजुटता ने सरकार को भूमि सुधार अधिनियम वापस लेने को मजबूर कर दिया है, कन्हैया कुमार के आंदोलन, रामजस कालेज, हैदराबाद विश्वविद्यालय में प्रदर्शन तथा पुणे में असंतोष हमें बताता है कि मोदी सरकार की साख पतन की ओर अग्रसर है। जहां ‘हिंदुत्व’ की ताकतें और अधिक मुखर हो रही हैं, ये आंदोलन तथा अभियान भारतीय संविधान के मूल्यों पर आधारित एक बहुमुखी तथा उदार समाज के लिए हमारी आशा जगाते हैं।