न्याय व्यवस्था के निशाने पर अवैध संबंध

Edited By ,Updated: 26 Mar, 2019 03:53 AM

invalid relationship on target of justice

इस बात में कितनी सच्चाई है कि हमारे देश में टी.वी. धारावाहिकों की बढ़ती संख्या और फिल्मों के प्रभाव से पारिवारों के अंदर रिश्ते लगातार बिगड़ रहे हैं और बाहर समाज में अपराध के नित नए तरीके सामने आ रहे हैं? टी.वी. और सिनेमा को मूलत: मनोरंजन का माध्यम...

इस बात में कितनी सच्चाई है कि हमारे देश में टी.वी. धारावाहिकों की बढ़ती संख्या और फिल्मों के प्रभाव से पारिवारों के अंदर रिश्ते लगातार बिगड़ रहे हैं और बाहर समाज में अपराध के नित नए तरीके सामने आ रहे हैं? टी.वी. और सिनेमा को मूलत: मनोरंजन का माध्यम माना गया था, परन्तु वास्तव में इस मनोरंजन के नाम पर पर-पुरुष और पर-स्त्री संबंधों को इतने सहज तरीके से घर-घर पहुंचाने का कार्य प्रारम्भ हो गया कि अब भारतीय समाज में ऐसे अवैध संबंधों को आपत्तिजनक मानने की परम्परा कमजोर होती जा रही है।

इन अवैध संबंधों के चलते अपने वैध पति या पत्नी से छुटकारा पाने के लिए तलाक से लेकर हत्या जैसे प्रयास भी टी.वी. और सिनेमा में परोसी जाने वाली कहानियों में दिखाए जा रहे हैं। जीवन की दिनचर्या की तरह प्रतिदिन ऐसी कहानियों को देखने और उन पर चिंतन करते रहने से कुछ लोग उनका अनुसरण अपने जीवन में भी करने लगते हैं। यही कारण है कि आज परिवार और समाज अपनी दुर्दशा का कारण स्वयं बनता जा रहा है। पारिवारिक कहानियों के अतिरिक्त टी.वी. और सिनेमा समाज में अन्य अपराधों का भी प्रशिक्षण माध्यम बनते जा रहे हैं। लड़कियों से छेड़छाड़ से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध हों या बच्चों के अपहरण के बाद फिरौती मांगने से लेकर हत्याओं तक के अपराध आदि में वृद्धि का मुख्य कारण टी.वी. और सिनेमा उद्योग ही दिखाई दे रहा है।

कोर्ट ने दिया कारण ढूंढने का निर्देश
मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन. किरूबाकरण एवं अब्दुल कुदहोस की खंडपीठ ने केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों को ऐसे ही कुछ प्रश्नों की लम्बी सूची जारी करते हुए उनके कारण ढूंढने का निर्देश दिया है। वास्तव में यह खंडपीठ अजीत कुमार नामक एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिस पर एक महिला के साथ अवैध संबंधों के चलते जोसफ नामक एक व्यक्ति की हत्या का आरोप था। खंडपीठ ने अपने अंतरिम आदेश में जारी प्रश्न सूची में टी.वी. और सिनेमा के बढ़ते प्रभाव के अतिरिक्त महिलाओं की स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं का घर से निकल कर नौकरी या कारोबार में शामिल होने के कारण बाहरी वातावरण में पराए स्त्री-पुरुषों के साथ अधिक मेल-जोल और करीबी संबंधों का बनना, सोशल मीडिया के माध्यम से परिवार के बाहरी लोगों के साथ अधिक जुड़ाव, पश्चिमी संस्कृति का अंधाधुंध अनुसरण, शराब का बढ़ता प्रचलन, बड़े परिवार की व्यवस्थाओं का समापन, नैतिक मूल्यों की शिक्षा का अभाव आदि को भी प्रश्नगत किया गया है।

विवाह आज भी पवित्र बंधन
भारतीय समाज में प्रवेश कर चुकी अनेकों विकृतियों के बावजूद मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि भारत में आज भी विवाह जैसा गठबंधन प्रेम, विश्वास और वैध आशाओं के बल पर ही तैयार होता है। विवाह को आज भी एक पवित्र बंधन ही माना जाता है। परन्तु पति-पत्नी जब बाहर समाज में भी अन्य स्त्री-पुरुषों के साथ संबंध बनाने लगते हैं तो विवाह संबंध पवित्रता के स्थान पर डरावने दिखाई देने लगते हैं। पराए संबंध बनाने के मार्ग पर पति चले या पत्नी दोनों अपराध बोध से ग्रसित तो रहते ही हैं। दूसरी तरफ  उनके वैध पति या पत्नी  को जब इस संबंध का पता लगता है तो उनमें पीड़ा बोध उत्पन्न होने लगता है। इस प्रकार अपराध बोध और पीड़ा बोध परस्पर टकराने लगते हैं। यदि अपराध बोध वाला पक्ष सरलता से अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता और अपने चाल-चलन को ठीक नहीं करता तो दोनों पक्षों का टकराव तलाक या अपराधी तत्वों का सहारा लेकर हत्या तक की नौबत पैदा कर देता है।

क्या अवैध संबंधों के पीछे टी.वी.-सिनेमा हैं
मद्रास उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने केन्द्रीय परिवार कल्याण मंत्रालय को विशेष रूप से यह निर्देश जारी किया है कि परिवारों और समाज में बढ़ते अवैध संबंधों के  कारणों को ढूंढ कर उनके निराकरण के उपाय तलाश करना न्याय व्यवस्था का परम कत्र्तव्य है। उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार तथा तमिलनाडु सरकार को 20 प्रश्नों की एक सूची जारी करते हुए उपलब्ध आंकड़ों तथा सर्वे आदि के माध्यम से विस्तृत उत्तर की अपेक्षा की है। उपरोक्त पारिवारिक और सामाजिक विषयों के अतिरिक्त सरकारों से यह पूछा गया है कि राज्य में विगत 10 वर्ष के भीतर अवैध वैवाहिक संबंधों के कारण कितनी हत्याएं, आत्महत्या के प्रयास, अपहरण, मारपीट आदि जैसे अपराध हुए हैं।

क्या ऐसे अपराधों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है? क्या बढ़ते अवैध वैवाहिक सम्बन्धों के पीछे टी.वी. तथा सिनेमा मुख्य कारण हैं? क्या टी.वी., सिनेमा आदि से लोगों को अपने अवैध संबंधों की रक्षा के लिए हत्या, अपहरण जैसे अपराध करने की प्रेरणा मिलती है? क्या ऐसे अवैध संबंधों में शामिल पति-पत्नी अपने परिवार के पीड़ित पति-पत्नियों से छुटकारा पाने के लिए पेशेवर अपराधियों की सहायता लेते हैं? क्या अवैध संबंधों की वृद्धि में स्त्री-पुरुष की आॢथक स्वतंत्रता भी जिम्मेदार है? क्या अपने वैध पति-पत्नी से काम-तृप्ति न होना भी ऐसे अवैध संबंधों का कारण है? क्या फेसबुक तथा व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी ऐसे अवैध संबंधों को बढ़ाने में सहयोग दे रहे हैं? क्या पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण भी ऐसे अवैध संबंधों का कारण है?

क्या पति में शराब पीने की वृत्ति के कारण पत्नियां अवैध संबंध बनाने के लिए मजबूर होती हैं? क्या परिवारों में एक-दूसरे के साथ पर्याप्त समय न बिताना भी ऐसे अवैध संबंधों का कारण है? क्या विद्यालयों में नैतिक और चारित्रिक मूल्यों को न पढ़ाया जाना ऐसे अवैध संबंधों का कारण है? क्या वर-वधू की इच्छा के विरुद्ध आयोजित विवाह ऐसे अवैध संबंधों का कारण बनते हैं? क्या बेमेल विवाह भी अवैध संबंधों का कारण बनते हैं? इसके अतिरिक्त अवैध संबंधों के सामाजिक, आर्थिक या मनोवैज्ञानिक क्या कारण हो सकते हैं? क्या केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों तथा सामाजिक कार्यकत्र्ताओं आदि को सम्मिलित करके एक ऐसी समिति का गठन नहीं करना चाहिए जो ऐसे मामलों में परिवारों और समाज के मार्गदर्शन का कार्य करे जिससे समाज को अवैध संबंधों और उससे होने वाले अपराधों से बचाया जा सके? क्या प्रत्येक जिले के स्तर पर ऐसे पारिवारिक विचार-विमर्श केन्द्र गठित नहीं किए जाने चाहिएं?

मद्रास उच्च न्यायालय ने यह प्रश्न खड़े करके अपने आप में एक महान पथ निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया है। बेशक यह निर्देश केवल तमिलनाडु राज्य को लेकर दिए गए हैं, परन्तु केन्द्र सरकार यदि चाहे तो इन विषयों पर सारे देश के लिए कोई ठोस उपाय कर सकती है। इसी प्रकार विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय तथा राज्य सरकारें भी इन विषयों पर अपने-अपने राज्यों में कार्य कर सकती हैं। सामाजिक और कानूनी कार्यकत्र्ताओं को अपने-अपने राज्यों में इन विषयों पर कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। यह कार्य सीधा राज्य सरकारों के समक्ष प्रतिवेदन से हो सकता है या आवश्यकता पडऩे पर राज्य के उच्च न्यायालयों में जनहित याचिकाओं के माध्यम से भी इन विषयों पर कार्रवाई प्रारम्भ की जा सकती है। गैर-सरकारी संगठनों, मीडिया तथा सोशल मीडिया को भी इन विषयों पर यथा सम्भव आवाज उठानी चाहिए।-विमल वधावन(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)

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